गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

कोरोनाकाल पर एक दिलचस्प किताब


किसी नये लेखक की पहली किताब न सिर्फ चकित करे, बल्कि कुछ इस तरह बांध ले कि आप उसे पूरा पढने के लिए विकल हो जाएं, ऐसा बहुत कम होता है। ख़ासतौर से ऐसी किताब के लिए, जो न कविता हो, न उपन्यास, न निबंध हो, न यात्रावृतांत, लेकिन जिसमें साहित्य की कई विधाओं का स्वाद और अपने समय के जनजीवन की वेदना, प्रेम और मनुष्यता की उच्च भावभूमि और जीवनयात्रा का कठिन संघर्ष हो, जीवन का एक ऐसा मिश्रण जिसमें अपने समय का सत शामिल हो। मेरा आशय नये लेखक मयंक पाण्डेय की किताब ‘कोरोनाकाल की पचास सच्ची घटनाएंरू पलायन पीड़ा प्रेरणा‘ से है। किसी लेखक की पहली किताब से पहलीबार इस तरह प्रभावित हुआ हूं। कोरोना के भयावह समय पर कई लेखकों ने कविताएं लिखीं हैं। मैंने ख़ुद, पृथ्वी पर काली छाया, लंबी रात, सोनू सूद, शीर्षक से तीन लंबी कविताएं लिखी हैं। दिल्ली और मुंबई के महाकवियों ने भी कुछेक और देशभर के कवियों ने असंख्य छोटी कविताएं लिखी हैं, लेकिन कोनोनाकाल का दस्तावेज, इन कविताओं को नहीं कह सकता। दस्तावेजी लेखन मयंक की इस किताब में है। शायद ही कोई प्रतिनिधि घटना हो, जिस पर मयंक की नज़र न गयी हो, हृदय द्रवित न हुआ हो, लेखक की आंख से आंसू न टपका हो, शायद ही कोई मज़दूर या दुखी जन हो, जिसके कंधे पर मयंक ने हाथ न रखा हो। इस किताब को एक नज़र देखने के बाद पढ़ने के लिए उठाते ही मैंने कहा था कि नये लेखक की पहली किताब पढ़ रहा हूँ, जो उपन्यास नहीं है, लेकिन उपन्यास से कम भी नहीं है। कोरोना काल की पचास सच्ची घटनाओं से हिन्दी में ऐसा भी गद्य संभव है। जिसमें कथारस भी है, ज्ञान और सूचनाओं का संसार भी और अपने समय की दस्तावेजी पत्रकारिता भी। कहानियों और चरित्रों की एक सुदीर्घ शृंखला है। जीवन और संघर्ष की विराट गाथा। आख़िर उपन्यास है क्या? जीवन की महागाथा या कुछ और? इस किताब ने बाँध लिया है। पढ़ने की गति की समस्या अपनी जगह, लेकिन लंबे समय के बाद कोई इस तरह की किताब पढ़ रहा हूँ। पूरी किताब पढ़े बिना इसके बारे में कुछ कहना इस उम्र में मुश्किल नहीं है, लेकिन कोई किताब दिल को छू ले, तो उसे पूरा पढ़ना ही चाहिए। पढ़ने के बाद यह कहना बनता है कि वाकई कोनोनाकाल पर लिखी गयी यह एक दिलचस्प किताब है। जिस किसी की दिलचस्पी कोनोना समय को जानने की हो उसे इस किताब को ज़रूर पढ़ना चाहिए। यही नहीं, जिस कथाकार को कोरोनाकाल पर कोई उपन्यास या कहानी लिखनी हो, उसे भी एक बार इस किताब से ज़रूर गुज़रना चाहिए।

लेखक अपनी किताब की शुरुआत ही दो प्रेमियों की मुश्किल से करता है। अशोक और नमिता ने अंतरजातीय प्रेमविवाह किया था। लाकडाउन की विपरीत परिस्थितियां थीं। अशोक चेन्नई में काम करता था। पत्नी और प्रिया नमिता संग वहीं रहता था। दो छोटे बच्चे उड़ीसा में दादा-दादी के पास रहते थे। नमिता उनसे मिलने के लिए विकल थी। पब्लिक यातायात बंद। ऐसे में 1100 किलोमीटर की कठिन यात्रा साइकिल के कैरियर पर अपनी पत्नी को बैठाकर अशोक ने की। यह एक पिता का कर्तव्य ही नहीं, एक प्रेमी का अपनी पत्नी के लिए अक्षुण्ण प्रेम था, जिसने उसे मुश्किल रास्तों पर भी पैदल नहीं चलने दिया। यह ‘‘ अशोक का नमिता के प्रति निश्छल प्रेम था, जो स्वयं को मिटाकर भी पत्नी को सुख देना चाहता था। पहाड़ी रास्तों पर छाले तो अशोक के पैरों में पड़े थ, पर उनका दर्द नमिता ने भी महसूस किया था। साइकिल के पैडल मारते-मारते और ब्रेक लगाते-लगाते हाथ-पैर तो अशोक के सूजे थे, पर उसकी टीस और चुभन तो नमिता ने भी महसूस की थी।’’ मयंक ने स्त्रीजीवन और अपनी पत्नियों के लिए लाकडाउन जैसी विपरीत परिस्थितियों में की गयी पुरुषों की बहादुरी की अनेक घटनाओं की ओर ध्यान खींचा है। गहने बेनकर मोटर साइकिल खरीदना और उससे लंबी यात्रा करके गांव पहुंचना। मयंक पाण्डेय के भीतर का लेखक सिर्फ इसे एक धटना या खबर के रूप में नहीं लेता है, बल्कि स्त्री के मनोविज्ञान और स्वभाव का भी विश्लेषण करता है। मयंक ने बताया है कि भारतीय जीवन में गहने खासतौर से सोने का क्या महत्व है और उसे कैसे मुश्किल दिनों में बेचकर स्त्री अपने आभूषण प्रेम को पति और परिवार के प्रेम के सामने सरलता से तज देती है। यहां पुणे में काम करने वाले सात मज़दूरों की पत्नियां, परिवार और गांव पहुंचने के एक बड़े उद्देश्य के लिए अपने जेवर बेचने के लिए तुरत अपने पतियों को सौंप देती हैं। लाकडाउन जैसे अत्यंत मुश्किल समय में मज़दूरों की इन पत्नियों का यह त्याग प्रेमचंद के गबन की आभूषणप्रिय जालपा के स्वाधीनता संघर्ष के लिए किये गये आभूषण के त्याग से कम नहीं है। निश्चय ही प्रेमचंद ने जालपा के बहाने पहलीबार एक नयी स्त्री के चरित्र को गढ़ा है। लाकडाउन में ऐसी स्त्रियां असंख्य हैं, जो अपने पतियों के साथ विपदा का सामना करने के लिए डटकर खड़ी होती हैं। सच तो यह कि इस मुश्किल समय ने परिवार को ही नहीं, समाज को भी एक नयी चेतना से सम्पृक्त किया है। मनुष्य के भीतर नये मनुष्य का उदय होता है, जो पहले से अधिक मानवीय और उदार है, संकट के समय में छोटी से छोटी आर्थिक स्थिति का मनुष्य भी मसीहा बन जाता है। मदद के लिए अपनी सीमा भूलकर सहायता करता है। पैदल या साइकिल और ठेले वगैरह पर अपने परिवाी के साथ मुश्किल यात्रा करने वाले लोगों पर फैशन के रूप में लिखी गयीं कविताएं, भारतीयजन की पीड़ा और संवेदना को उस तरह नहीं व्यक्त कर पाती हैं, जैसा इस किताब के पन्नों पर जगह-जगह दर्द की नदी बनकर बह रही है। इस विपदा की घड़ी में जहां एक मां पैसे न होने की वजह से अपने बेटे का शव लेने से इंकार करती है कि उसका दाहसंस्कार कैसे करेगी, वहीं स्वयंसेवी संगठन उस विवश मों का हाथ थाम लेते हैं। ऐसे अनेक संगठन सामने आते हैं। छोटे-छोटे संगठन तो आगे आते ही हैं, टाटा समूह जैसा बड़ा धराना डेढ़ हजार करोड़ देश के लिए तुरत देता है। और भी औद्योगिक घराने और संस्थाएं, फिल्म कलाकार सामने आते हैं। इन फिल्म कलाकारों में निश्चय ही सोनू सूद की भूमिका सराहनीय है। यह खलनायक, एक नायक बनकर हमारे सामने आता है। मयंक ने विस्तार से सोनू सूद के प्रेरक चरित्र पर प्रकाश डाला है। मयंक ने अपनी किताब में मज़दूरों के पलायन को, उसकी पीड़ा को और इस मुश्किल में उनकी मदद के लिए जगह-जगह जो प्रेरक चरित्र उभरकर हमारे सामने आए हैं, उन सबको प्रामाणिकता और सहृदयता के साथ अपनी इस बेशकीमती किताब में चित्रित किया है। कोरोना समय में प्रशासनिक अधिकारी, डॉक्टर, पैरा मेडिकल स्टाफ, पुलिस अधिकारी और कर्मचारी, कई स्वयंसेवी संगठन, देवदूत की तरह उभरकर हमारे सामने आए। मयंक ने पैडवूमन अमनप्रीत पासी, प्रियल भारद्वाज, रूमा भार्गव, मेधा भार्गव, वैभव जैन और विकास खन्ना जैसे सचमुच के चरित्रों के ज़रिए इस कोरोना कथा को भावप्रवण, मार्मिक और बहुत प्रेरक बना दिया है। एक तरफ़ महान दुख है, तो दूसरी तरफ़ उस महान दुख से लड़ने का महान जज़्बा। यह सब शायद किसी काल्पनिक कहानी या उपन्यास में संभव नहीं हो पाता। कोरोनाकाल पर लिखी गयी इस किताब में ही यह सब संभव है।  
  मयंक ने कोरोनाकाल की मुश्किल को भारतीय समाज की मुश्किल के रूप में भी देखा है। मयंक एक ओर संघर्ष को रेखांकित किया है, तो दूसरी ओर कोरोना के खिलाफ चल रही जंग को कमज़ोर करने वाले तत्वों की भी ख़बर ली है। मघ्यप्रदेश में कैसे एक बाबा तंत्र-मंत्र के सहारे कोरोना ठीक करने का दावा करता है और इस तरह तमाम लोगों को कोरोना बांटता है। ऐसी मुश्किलों पर भी लेखक का घ्यान है, लेकिन लेखक उस विशालजन की पीड़ा से घ्यान नहीं हटाता है, जिनके पास संघर्ष के बीच विश्वास है, जीने और अपनों के पास पहुंचने की अदम्य इच्छा है। अपनी इन्हीं ख़ूबियों की वजह से भारतीयजन इस बड़ी विपदा से लड़ पाता है। इस यात्रा में कैसे कोई गर्भवती मां सड़क पर बच्चे को जन्म देती है और मदद के लिए कई हाथ बढ़ जाते हैं। कैसे एक भिखारी अपने बिना आंख के दो भिखारी साथियों को लंबी यात्रा के बाद अपने गांव-जवार लेकर पहुंचता है, कैसे कोई किशोरी अपने बीमार पिता को साइकिल पर बैठाकर लंबी यात्रा करती है, इस तरह के साहस और जज्बे की असंख्य धटनाएं इस दौरान धटी हैं, लेखक ने उनमें से कोई पचास धटनाओं को इस किताब की यात्रा के लिए चुना है। ज़ाहिर है, लेखक ने अपनी किताब को अपने समय और अपने आसपास के जीवन को समग्रता में देखा है। पूरा देश कोरोनाकाल की इस कथा में सिमट आया है। मयंक ने अपने आत्मकथ्य में ही इस भारतीयजन की धरवापसी को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में देखा है। यह गांव से शहर का पलायन नहीं है। शहर से गांव और मूल की ओर वापसी का पलायन है। ज़ाहिर है, कोई भी पलायन हो उसके साथ दर्द का एक सैलाब भी चलता चला जाता है। लेखक को भारत विभाजन के वक़्त जो विस्थापन होता है, उसकी याद आती है, उसके दर्द को इस पलायन से जोड़कर देखता है। लेखक कहता है, ‘ इतिहास गवाह है कि विस्थापन और पलायन ने हमेशा एक नये वर्ग को जन्म दिया है। चलायमान संधर्ष ने समूह में चल रहे लोगों के व्यक्तित्व और व्यवहार दोनों में सकारात्मक बदलाव किये हैं। सड़को पर संधर्षरत परिवार, वर्ग या व्यक्ति इस दौरान ज़िंदगी के यथार्थ, परिश्रम के महत्व और रिश्तों की महत्ता को बखूबी समझ लेता है। ये उसके व्यक्तित्व में ऐसे बदलाव लाते हैं, जिसके दूरगामी परिणाम होते हैं। पूरी किताब पढ़ना एक समय, एक अनुभव से गुज़रना ही नहीं है, हिन्दी में अपने तरह की एक बेहद दिलचस्प किताब से भी गुज़रना है। हिन्दी में सिर्फ कविता-कहानी की ही नहीं, ऐसी किताबों की ज़रूरत है, जो पाठक की संवेदना को झंकृत करें, उसके मर्म को छुएं और उसके भीतर किताबों को पढ़ने की दिलचस्पी पैदा करें।
- गणेश पाण्डेय

शनिवार, 18 जुलाई 2020

महेश अश्क की गजलें

एक/

गर सफर में निकल नहीं आते
हम जहाँ थे वहीं प’ रह जाते।
आहटें थीं, गुजर गईं छू के
ख्वाब होते तो आँख में आते।
हम ही खुद अपनी हद बनाते हैं
और उससे निकल नहीं पाते।
रास्ता था, तो धूल भी उड़ती
हम नहीं आते, दूसरे आते।
आप तो कह के बढ़ गए आगे
रह गए हम समझते-समझाते।
हम थे इक फासले प’ सूरज से
साथ होते तो डूब ही जाते।
इनकी-उनकी तो सुनते फिरते हैं
काश! हम अपनी कुछ खबर पाते...।

दो/

नहीं था, तो यही पैसा नहीं था
नहीं तो आदमी में क्या नहीं था।
परिंदों के परों भर आस्मां से
मेरा सपना अधिक ऊँचा नहीं था।
यहाँ हर चीज वह हे, जो नहीं हे
कभी पहले भी ऐसा था-? नहीं था।
हसद से धूप काली थी तो क्यों थी
दिया सूरज से तो जलता नहीं था।
पर इम्कां के झुलसते जा रहे थे
कहीं भी दूर तक साया नहीं था।
हुआ यह था कि उग आया था हम में
मगर जंगल अभी बदला नहीं था।
जमीनों-आस्मां की वुस्अर्तों में-
अटाए से भी मैं अटता नहीं था।
हमारे बीच चाहे और जो था
मगर इतना तो सन्नाटा नहीं था।
मुझे सब चाहते थे सस्ते-दामों
मुझे बिकने का फन आता नहीं था।

तीन/

मस्खरे तलवार लेकर आ गए
हम हँसे ही थे कि धोखा खा गए।
आस्मां आँखों को कुछ छोटा पड़ा
सारे मौसम मुट्ठियों में आ गए।
हादसे होते नहीं अब शहर में
यह खबर हमने सुनी, घबरा गए।
तुमको भी लगता हो शायद अब यही
सच वही था, जिससे तुम कतरा गए।
कुठ घरौंदे-सा उगा फिर रेत पर
और हम बच्चों-सा जिद पर आ गए।
रह गई खुलने से यकसर खामोशी
शब्द तो कुछ अर्थ अपना पा गए।
जिंदगी कुछ कम नहीं, ज्यादा नहीं
बस यही अंदाज हमको भा गए।
सच को सच की तर्ह जीने की थी धुन
हम सिला अपने किए का पा गए।
अब कहाँ ले जाएगी ऐ जिंदगी
घर से हम बाजार तक तो आ गए।

चार/

खिलौने तोड़ते, पर तितलियों के नोचते बच्चे
यही कल हो तो कल से कोई उम्मीद क्या रखे।
अचानक ठहर जाती है हवा गुम-गुम-सी होकर और
खटक जाते हैं जंगल को हरापन ओढ़ते पत्ते।
बना जाता है बॉबी दीमकों पेड़ ही सारा
मगर भालू को आते हैं नजर बस शहद के छत्ते।
हिरन को सुनके पंचायत ये इक आवाज में बोली
जिसे जंगल में रहना है, भरोसा शेर पर रखे।
क़सीदे हाकिमों के हों कि मलिका के, क़सीदे हैं
असद साहेब भी क्या-क्या सोच के पहुँचे थे कलकत्ते।

पांच/

तमाशा आँख को भाता बहुत है
मगर यह खून रुलवाता बहुत है।
अजब इक शै थी वो भी जेरे दामन
कि दिल सोचो तो पछताता बहुत है।
किसी की जंग उसे लड़नी नहीं है
मगर तलवार चमकाता बहुत है।
अगर दिल से कहूँ भी कुछ कभी मैं
समझता कम है समझाता बहुत है।
अजब है होशियारी का भी नश्शा
मजा आए तो फिर आता बहुत है।
हसद की आग अगर कुछ बुझ भी जाए
धुआँ सीने में रह जाता बहुत है।
हमारे दुख में तो इस, बात भी थी
तुम्हारे सुख में सन्नाटा बहुत है।

छः/

बिजलियां, लपटें, आशियां और हम
हर तरफ़ फैलता धुआं और हम।
बोने को सौ हरे-भरे मौसम
काटने को उदासियां और हम।
ज़िंदगी ठंडे चूल्हे-चौके सी
दांव देती कमाइयां और हम।
झाडिय़ां झुटपुटे के अफ़साने
खून के छींटे चूडिय़ां और हम।
पांव के नीचे से खिसकती ज़मीं
पंख, परवाज़, आस्मां और हम।
चेहरा-चेहरा जुलूस अपना-सा
दूर तक खाली मुट्ठियां और हम।
लफ़्ज़ हक और लफ़्ज़ का मोहताज
अपने रंग में रंगी ज़ुबां और हम।
रात-दिन, रात-दिन की फोटो-प्रति
काग़जी फूल तितलियां और हम।
होंठ कुछ कहते आंख कुछ बुनती
एक खामोशी दरमियां और हम।
आइने आपकी तरह के सब
अक्स-दर-अक्स किर्चियां और हम।
चीलें मंडराती आस्मानों पर
घर का घर ओढ़े चुप्पियां और हम।

सात/

दिन गुज़रता ये गिरता-पड़ता हुआ
दुख मुझे और मैं दुख को गढ़ता हुआ।
हर पकड़ छूटती पकड़ की तरह
गर्दनों पर दबाव बढ़ता हुआ।
आंख घिरती हुई अंधेरों से
हाथ जैसे चिराग़ गढ़ता हुआ।
खुद से मैं छूटता हुआ पीछे
रौंद कर खुद को आगे बढ़ता हुआ।
भूरा पड़ता एकेक हरा लमहा
सीना-सीना शिग़ाफ़ पड़ता हुआ।     (शिग़ाफ़- दरार)
शब्द शीशा सिफ़त चटखते हुए
अर्थ पारे की तर्ह चढ़ता हुआ।
सोच मिट्टी में इक उतरती हुई
मूड मौसम का कुछ बिगड़ता हुआ।
आदमी बनती-मिटती रेखाएं
और तोता नसीब पढ़ता हुआ।
क्या करूं मैं ये ठहरा - कुछ लेकर
कुछ से, कुछ तो कहीं हो कढ़ता हुआ।

आठ/

तुझ में तुझ से अलग जो है पलता
काश तुझको भी कुछ कभी खलता।
आंख, वो सब पकड़ नहीं पाती
होंठ और कान में जो है चलता।
इतनी परछाइयों में रहते हो
तुम कहां हो पता नहीं चलता।
मैं बताता कि रात का क्या हो
मेरे कहने से दिन अगर ढलता।
हम भी होते हैं अपनी बातों में
काम लफ़्ज़ों ही से नहीं चलता।
तुम अंधेरों को अपने देखो तो
कुछ कहीं है चिराग़-सा जलता।
जो न होना था वो हुआ आखि़र
आदमी हाथ रह गया मलता...।

नौ/

आप कहते हैं जो है पैसा है
हम नहीं मानते सब ऐसा है।
हम तो बाज़ार तक गये भी नहीं
घर में यह मोल-भाव कैसा है।
रात एहसास खुलते ज़ख्मों का
दिन बदन टूटने के ऐसा है।
कुछ के होने का कुछ जबाव नहीं
कुछ का होना सवाल जैसा है।
क्यों कथा अपनी लिख के हो रुसवा
अपना दुख कोई ऐसा-वैसा है।
आपको तो विदेश भी घर-सा
हमको घर भी विदेश जैसा है।
तुमने दिल दे ही मारा पत्थर पर
यह तो जैसे को ठीक तैसा है।

दस/

न मेरा जिस्म कहीं औ’ न मेरी जाँ रख दे
मेरा पसीना जहाँ है, मुझे वहाँ रख दे।
बगूला बन के भटकता फिरूँगा मैं कब तक
यक़ीन रख कि न रख, मुझमे कुछ गुमाँ रख दे।
बिदक भी जाते हैं, कुछ लोग भिड़ भी जाते हैं
प’ इसके डर से, कोई आईना कहाँ रख दे।
वो रात है, कि अगर आदमी के बस में हो
चिराग़ दिल को करे और मकाँ-मकाँ रख दे।
जो अनकहा है अभी तक, वो कहके देखा जाए
ख़मोशियों के दहन में, कोई ज़ुबाँ रख दे।

ग्यारह/

अब तक का इतिहास यही है, उगते हैं कट जाते हैं
हम जितना होते हैं अक्सर, उससे भी घट जाते हैं।
तुम्हें तो अपनी धुन रहती है, सफ़र-सफ़र, मंज़िल-मंज़िल
हम रस्ते के पेड़ हैं लेकिन, धूल में हम अट जाते हैं।
लोगों की पहचान तो आख़रि, लोगों से ही होती है
कहाँ किसी के साथ किसी के बाज़ू-चौखट जाते हैं।
हम में क्या-क्या पठार हैं, परबत हैं और खाई है
मगर अचानक होता है कुछ और यह सब घट जाते हैं।
अपने-अपने हथियारों की दिशा तो कर ली जाए ठीक
वरना वार कहीं होता है, लोग कहीं कट जाते हैं।

बारह/

यहीं एक प्यास थी, जो खो गई है
नदी यह सुन के पागल हो गई है।
जो हरदम घर को घर रखती थी मुझमें
वो आँख अब शहर जैसी हो गई है।
हवा गुज़री तो है जेहनों से लेकिन
जहाँ चाहा है आँधी बो गई है।
दिया किस ताक़ में है, यह न सोचो
कहीं तो रोशनी कुछ खो गई है।








मंगलवार, 23 जून 2020

सर्वत जमाल की दस ग़ज़लें


पुराने मक़बरों की शानो शौकत क्या बताऊं मैं
यहां इन्सान की कैसी है हालत, क्या बताऊं मैं
कोई कोई रहज़न, कोई क़ातिल, कोई पागल, कोई जाहिल
इन्हीं लोगों को क्यों मिलती है इज़्ज़त, क्या बताऊं मैं
अमीरों, हुक्मरानों के क़दम तुम ने ही चूमे हैं
अब उन के पांव के तलवों की लज़्ज़त क्या बताऊं मैं
सुना है कल यहां भी अम्न पर तक़रीरें होनी हैं
मगर बस्ती में क्यों फैली है दहशत, क्या बताऊं मैं
यहीं औरत को देवी मानते हैं, पूजा होती है
यहीं छह माह की बच्ची की अस्मत, क्या बताऊं मैं‌।

2

जो हम को थी वो बीमारी लगी ना
हंसी तुम को भी सिसकारी लगी ना
सफ़र आसान है, तुम कह रहे थे
क़दम रखते ही दुश्वारी लगी ना
समन्दर ही पे उंगली उठ रही थी
नदी भी इन दिनों खारी लगी ना
कहा था, पेड़ बन जाना बुरा है
बदन पर आज एक आरी लगी ना
मरे कितने ये छोड़ो, ये बताओ
मदद लोगों को सरकारी लगी ना।
3

नए लहजे उगाए जाते हैं
फिर क़सीदे सुनाए जाते हैं
उस तरफ़ कुछ अछूत भी हैं मगर
पांव किस के धुलाए जाते हैं
कोई बन्धन नहीं है लेकिन लोग
आदतन कसमसाए जाते हैं
मुल्क में अक़्लमंद हैं अब भी
क़ैदख़ानों में पाए जाते हैं
पहले मन्दिर बनाए जाते थे
आज कल मठ बनाए जाते हैं
हम ने ख़ुद को बचाया है ऐसे
जैसे पैसे बचाए जाते हैं
इस अंधेरे से हम को क्या ख़तरा
इस अंधेरे में साए जाते हैं।
4

कभी छिछली कभी चढ़ती नदी का क्या भरोसा है
शेयर बाज़ार जैसी ज़िन्दगी का क्या भरोसा है
यहां पिछले बरस के बाद फिर दंगा नहीं भड़का
रिआया ख़ौफ़ में है, ख़ामुशी का क्या भरोसा है
तबाही पर मदद को चांद भी नीचे उतर आया
मगर इस चार दिन की चांदनी का क्या भरोसा है
मिनट, घन्टे, सेकन्ड इन का कोई मतलब नहीं होता
समय को भांपना सीखो, घड़ी का क्या भरोसा है
वफ़ादारी, नमक क्या चीज़ है, इन्सान क्या जाने
ये कुत्ते जानते हैं, आदमी का क्या भरोसा है
महाभारत में अब के कौरवों ने शर्त यह रख दी
बिना रथ युद्ध होगा, सारथी का क्या भरोसा है।
5

कहां आंखों में आंसू बोलते हैं
मैं मेहनतकश हूं, बाज़ू बोलते हैं
कभी महलों की तूती बोलती थी
अभी महलों में उल्लू बोलते हैं
ज़बानें बंद हैं बस्ती में सब की
छुरे, तलवार, चाक़ू बोलते हैं
मुहाफ़िज़ कुछ कहें, धोखा न खाना
इसी लहजे में डाकू बोलते हैं
भला तोता और इंसानों की भाषा
मगर पिंजरे के मिट्ठू बोलते हैं
वहां भी पेट ही का मसअला है
जहां पैरों में घुंघरू बोलते हैं
जिधर घोड़ों ने चुप्पी साध ली है
वहीं भाड़े के टट्टू बोलते हैं
बस अपने मुल्क में मुस्लिम हैं 'सर्वत'
अरब वाले तो हिन्दू बोलते हैं।

6

सारा गाँव एकजुट था, अड़ गई हवेली फिर
और इक तमाचा-सा जड़ गई हवेली फिर
लालमन की हर कोशिश मिल गई न मिट्टी में
चार बीघा खेतों में बढ़ गई हवेली फिर
था गुमान भाषा में अब के हार जाएगी
कुछ मुहावरे लेकिन गढ़ गई हवेली फिर
मीलों घुप अंधेरे में रात भर चला, फिर भी
भोर में हथेली से लड़ गई हवेली फिर
नंगे-भूखे लोगों की खुल गईं जुबानें जब
आ के उनके पैरों में पड़ गई हवेली फिर
ज़ोर आज़माइश की, हर किसी ने कोशिश की
एक पल को उखड़ी थी, गड़ गई हवेली फिर।

7

अजब हैं लोग थोड़ी सी परेशानी से डरते हैं
कभी सूखे से डरते हैं, कभी पानी से डरते हैं
तब उल्टी बात का मतलब समझने वाले होते थे
समय बदला, कबीर अब अपनी ही बानी डरते हैं
पुराने वक़्त में सुलतान ख़ुद हैरान करते थे
नये सुलतान हम लोगों की हैरानी से डरते हैं
हमारे दौर में शैतान हम से हार जाता था
मगर इस दौर के बच्चे तो शैतानी से डरते हैं
तमंचा ,अपहरण, बदनामियाँ, मौसम, ख़बर, कालिख़
बहादुर लोग भी अब कितनी आसानी से डरते हैं
न जाने कब से जन्नत के मज़े बतला रहा हूँ मैं
मगर कम-अक़्ल बकरे हैं कि कुर्बानी से डरते हैं।

8

कितने दिन, चार, आठ, दस, फिर बस
रास अगर आ गया कफस, फिर बस
जम के बरसात कैसे होती है
हद से बाहर गयी उमस फिर बस
तेज़ आंधी का घर है रेगिस्तान
अपने खेमे की डोर कस, फिर बस
हादसे, वाक़यात, चर्चाएँ
लोग होते हैं टस से मस, फिर बस
सब के हालात पर सजावट थी
तुम ने रक्खा ही जस का तस, फिर बस
थी गुलामों की आरजू, तामीर
लेकिन आक़ा का हुक्म बस, फिर बस
सौ अरब काम हों तो दस निकलें
उम्र कितनी है, सौ बरस, फिर बस

9

अमीर कहता है इक जलतरंग है दुनिया
गरीब कहते हैं क्यों हम पे तंग है दुनिया
घना अँधेरा, कोई दर न कोई रोशनदान
हमारे वास्ते शायद सुरंग है दुनिया
बस एक हम हैं जो तन्हाई के सहारे हैं
तुम्हारा क्या है, तुम्हारे तो संग है दुनिया
कदम कदम पे ही समझौते करने पड़ते हैं
निजात किस को मिली है, दबंग है दुनिया
वो कह रहे हैं कि दुनिया का मोह छोड़ो भी
मैं कह रहा हूँ कि जीवन का अंग है दुनिया
अजीब लोग हैं ख्वाहिश तो देखिए इनकी
हैं पाँव कब्र में लेकिन उमंग है दुनिया
अगर है सब्र तो नेमत लगेगी दुनिया भी
नहीं है सब्र अगर फिर तो जंग है दुनिया
इन्हें मिटाने की कोशिश में लोग हैं लेकिन
गरीब आज भी जिंदा हैं, दंग है दुनिया।

10

लिखते हैं, दरबानी पर भी लिक्खेंगे
झाँसी वाली रानी पर भी लिक्खेंगे
आप अपनी आसानी पर भी लिक्खेंगे
यानी बेईमानी पर भी लिक्खेंगे
महलों पर लोगों ने ढेरों लिक्खा है
पूछो, छप्पर-छानी पर भी लिक्खेंगे
फ़रमाँबरदारों को इस का इल्म नहीं
हाकिम नाफ़रमानी पर भी लिक्खेंगे
अपना तो कागज़ पर लिखना मुश्किल है
और अनपढ़ तो पानी पर भी लिक्खेंगे
बस, कुछ दिन, खेती भी किस्सा हो जाए
खेती और किसानी पर भी लिक्खेंगे
हम ने सर्वत प्यार मुहब्बत खूब लिखा
क्या हम खींचातानी पर भी लिक्खेंगे।




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सोमवार, 8 जून 2020

ये हिन्दी ग़ज़ल है


- सर्वत जमाल

सदियों पहले जब गज़लों ने भारत में क़दम रखे तब ईरान से चली इस इस विधा की भाषा फारसी थी और परिभाषा थी- ’महबूब से बातचीत।’ उन दिनों हिन्दुस्तानी भाषा (हिन्दी/उर्दू) में जिन लोगों ने ग़ज़लें कहने की कोशिश की, उन्हें जाहिल, गंवार तक कहा गया। कारण था, गज़लों का फ़ारसी भाषा में न होना। उस ज़माने आम तौर पर शहंशाह, नवाब, ज़मींदार और ऊंचे तबक़े के, पढ़े-लिखे लोग ही शायरी करते थे। उन लोगों ने यह ग्रंथि पाली थी कि ग़ज़ल सिर्फ़ और सिर्फ़ फ़ारसी में ही होगी। ग़ज़ल का मज़मून भी महबूब -इश्क-मुहब्बत-शराब तक ही सीमित था।
लेकिन धीरे धीरे ग़ज़ल ने अपने पांव पसारने शुरू किए। ग़ज़ल उर्दू भाषा में हिन्दुस्तानी अवाम के दिलो-दिमाग़ पर राज कने लगी। फिर भी ग़ज़ल के (परंपरागत) विषय से हटने की जुर्रत किसी भी शायर ने नहीं दिखाई।
तीन सदी पहले का ज़माना हुआ, हैदराबाद दकन पढ़े-लिखे लोगों की बस्ती थी, शायरी की धूम थी। ऐसे वक़्त में ’वली’ ’ दकनी का यह शेर(मतला) अवाम की ज़बान पर चढ़ गयाः
“मुफ़लिसी सब बहार खोती है
मर्द का एतबार खोती है।“
उस दौर में यह गज़ल का विषय था ही नहीं। बहुतों ने नाक-भौं चढ़ाई। मगर जिस शेर को अवाम ने सर चढ़ा लिया हो, उससे निगाहें फेरना भी मुमकिन नहीं था। बाद के दिनों में मीर, सौदा, इंशा, हाली , मोमिन  वग़ैरह ने तो वली दकनी के शेर की रोशनी को और ज़िन्दगी बख़्शी। मिर्ज़ा ग़ालिब ने तो ग़ज़लों को एक नया और अनूठा लहजा तक दे डाला। इक़बाल, फ़ैज़, जोश, फ़िराक़, साहिर ने ग़ालिब की परम्परा को आगे, बहुत आगे पहुँचा दिया। लगभग चार सौ सालों से ग़ज़ल भारतीय उपमहाद्वीप के एक बड़े हिस्से में लोगों के दिलों पर राज कर रही है और अभी दूए-दूर तक इसकी लोकप्रियता कम होने के आसार भी नज़र नहीं आते।
हिन्दी साहित्य की महान विभूति पंडित सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने ग़ज़लों की हिन्दी में शुरूआत की। बात आई गयी हो गयी (कबीर तथा उनके समकालीन कई रचनाकारों ने भी ग़ज़लें कहने की कोशिशें की हैं)। लेकिन...हिन्दी ग़ज़लों का चलन शुरू हो गया। बात फिर भी नहीं बन रही थी। उर्दू ग़ज़लें - हिन्दी ग़ज़लों पर २१ नहीं, २८-३० पड़ रही थीं। हिन्दी ग़ज़लकार भी दोषी करार दिए जायेंगे कि उन्होंने ग़ज़लों पर मेहनत नहीं की बल्कि हिन्दी के क्लिष्ट शब्दों को जबरन ठूंसने जैसी हरकतें ज़ियादा कीं। फिर... दुष्यंत कुमार का आगमन हुआ. छोटी सी उम्र में एक नन्हा सा ग़ज़ल संग्रह ’साए में धूप’ क्या आया, हिन्दी ग़ज़लों की धूम मच गयी. पानी पी पी कर कोसने वाले कुछ उर्दू के शायरों तक ने दुष्यंत और हिन्दी ग़ज़ल का लहजा अपनाया. यही सिलसिला जारी है और मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि दुष्यंत ने साए में धूप से जिस सफ़र की शुरूअत की थी, बाद के रचनाकारों ने उसे मन्ज़िल के काफ़ी क़रीब पहुंचा दिया.
हिन्दी ग़ज़लों की लोकप्रियता का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि बहुत से प्रख्यात गीतकार, कथाकार, निबंधकार यहाँ तक की कविता (अतुकांत) के लोग भी इस विधा से जोर आज़माइश करते नज़र आए । मुझे कुछ या किसी का भी नाम लेने, बताने की ज़रूरत नहीं, हक़ीक़त यह है कि गीतों/कहानियों/निबंधों और अख़बारों में ख़बरें लिख कर अपनी लेखनी का लोहा मनवा लेने वाले रचनाकार, ग़ज़ल के मोह में फंस कर, बुरी तरह धराशायी हुए। उनका यह ग़ज़ल प्रेम, ग़ज़ल की भाषा में कुछ ऐसा ही थाः
“ख़रीदेंअब चलो रुस्वाइयां भी
चलो उसकी गली भी देख आयें “
दरअस्ल ग़ज़ल ने जब महबूब का दामन छोड़ कर, आम आदमी के सरोकारों से नाता जोड़ा, फ़ारसी या गाढ़ी वाली उर्दू की आग़ोश से निकल कर, आम बोलचाल की भाषा के पहलू में बैठी तो यह ख़ास ही नहीं, आम की भी चहेती बन गयी। सिर्फ़ दो मिसरों में एक पूरी कहानी समो लेना, ग़ज़ल का ऐसा हुनर है, जिसने पाठकों/श्रोताओं के साथ क़लमकारों को भी अपने आकर्षण से जकड़ लिया। एक बाढ़ सी आई हुई है ग़ज़लों और ग़ज़लकारों की। ग़ज़लों को सामंती व्यवस्था का पैरोकार, नशा पिलाने वाली, कोठे वाली कह रही पत्रिकाओं ने भी ग़ज़ल विशेषांक प्रकाशित किए। बहुत से लोगों ने तो ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित कराने-कराने का धंधा ही खड़ा कर लिया है
लेकिन ग़ज़लकारों के इस सैलाब में कामयाब कितने हैं? ग़ज़ल की शास्त्रीयता, उसके नियम, क़ायदे-क़ानून को जाने-समझे बग़ैर लोगों ने लिखना शुरू कर दिया और अवाम ने उन्हें नकारना। परन्तु गज़लकारों ने हौसला नहीं छोड़ा। एक बड़ी तादाद ने इसका भी हल ढूंढ लिया। वे छाती ठोंककर कहते हैं -“ये हिन्दी ग़ज़ल है, ये ऐसी ही होती है।“
सवाल यह है कि अगर यह’ ऐसी ही होती है’ तो दुष्यंत कुमार की ऐसी क्यों नहीं हैं? तुफ़ैल चतुर्वेदी, महेश अश्क, सुलतान अहमद, इब्राहीम अश्क, अदम गोंडवी,ज्ञान प्रकाश विवेक, विज्ञान व्रत,देवेन्द्र आर्य, अंसार क़म्बरी राजेंद्र तिवारी, शेरजंग गर्ग और इस ’नाचीज़’ की ऐसी क्यों नहीं? क्या वो तमाम ग़ज़लगो, जो ग़ज़लों को मीटर (बहरों) की बंदिश में रखते हुए भी,कथ्य को शेरो की शक्ल देने में कामयाब हैं, हिन्दी ग़ज़लें नहीं कह रहे हैं? अगर हिन्दी ग़ज़लों का अर्थ अशुद्धियाँ-त्रुटियां ही हैं तो उन रचनाकारों को चाहिए कि वे दुष्यंत को भी हिन्दी ग़ज़ल के ख़ैमे से ख़ारिज कर दें।
ग़ज़लें लगभग ४०० साल से भारत में लोकप्रिय हैं। पिछले ३०-३५ वर्षों से हिन्दी ग़ज़ल के नाम पर कुछ लोगों द्वारा जो परोसा जा रहा है, भारतीय जनमानस उसे लगातार नकारता आ रहा है। अगर चार सदियों में, शायरों ने ग़ज़ल के क़ायदे-क़ानून सीख कर ही शायरी की है तो ये बाक़ी लोग सीखने से गुरेज़ क्यों रखते हैं? क्या भारतीय चुनाव व्यवस्था की तरह ’इतने सरे बुरे लोगों में से कम बुरे को नें’ की तर्ज़ पर ये लोग अपनी ग़ज़लें भी परवान चढ़ाना चाहते हैं? ग़ज़ल को ग़ज़ल ही रहने दें। न लिख सकें तो कविता की कई विधाएं हैं, उन में क़लम आज़मायें। ग़ज़ल ही लिखने के लिए किसी डाक्टर ने मशवरा दिया है क्या?

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राजकिशोर राजन की कविताएं


(कुछ कवि खामोशी से अपना काम करते हैं, जैसे राजकिशोर राजन। यह खामोशी अक्सर गंभीरता में बदल जाती है, जैसे राजकिशोर राजन की कविताएँ। राजकिशोर राजन पचास के आसपास के कवि हैं, अपने समय के कवियों में एक जरूरी खामोश धुन की तरह की तरह मौजूद हैं। राजन कविता की चौपाल में बैठकर वक्त गँवाने वाले कवि नहीं हैं। एक समर्थ कवि अपने लिखने की मेज के आसपास नितांत अकेला होता है। कह सकते हैं कि कवि मेज के बिना भी कविताएँ लिख रहा होता है, मैं कहूँगा कि हाँ, लेकिन वह जहाँ वह खड़े-खड़े कविता लिख रहा होता है, वह खड़े होने की मुद्रा ही मेज हो जाती है। बात तो उस जगह और वक्त की है, जहाँ वह रच रहा होता हैं। राजन वयस्क कवि हैं। कविता में कवि की वयस्कता का प्रमाण उम्र कतई नहीं है। साठ के आसपास के कवि भी अपरिपक्व हो सकते हैं और पचास के पास का कवि बहुत परिपक्व। मैं इधर तरह-तरह के अनुभवों से गुजर रहा हूँ।
   अनुभव करता हूँ कि राजन अपनी कविताओं के प्रति बेहद संजीदा हैं। एक-एक शब्द उनके लिए कीमती है। उन्हें पता है कि कब कहाँ क्या करना है। किस शब्द को किस जगह पर रखना हैं। कईबार यह सब अनुभव और दूयसरे कवियों के अनुभव को जानने से भी आ जाता है। राजन के व्यक्तित्व की शालीनता और सहजता और विनम्रता उनकी कविताओं में चरितार्थ होते देखता हूँ। उनकी एक छोटी कविता ‘‘राग’’ देखें,-
‘‘अकस्मात् ही हुआ होगा
कभी दबे पैर आया होगा
ईर्ष्या-द्वेष
घृणा-बैर आदि के साथ
जीवन में राग

फिर न पूछिए !
क्या हुआ ...................
कुछ भी नहीं बचा
बेदाग ।’’
      राजन की पारदर्शी कविताओं में भी जीवन के गूढ़ प्रश्न बुद्ध की रोशनी में सुलझे हुए मिलते हैं। राजन को बुद्ध प्रिय हैं। बुद्ध के विचार प्रिय हैं-
‘‘पृथ्वी से ऊपर नहीं 
पृथ्वी पर ही 
है संभावना
मुक्ति, आनंद की 
प्रेय और श्रेय की ’’
        राजन जीवन के असंख्य दुख और बाधाओं सें मुक्ति और जीवन के सच्चे आनंद की खोज इसी पृथ्वी पर करते हैं। सबके दुख में झाँकते हैं, सबके दुख को छूते हैं। अपने गाँच-जवार के दुख के पास पहुँचते हैं। जीवन की हजार मुश्किलें हैं, हजार दुख। अकेलापन का दंश भी भी एक दुख है। राजन को भी बुद्ध की तरह एक वृद्धा का दुख व्यथित करता है-
‘‘उस औरत को कोई समझाये नहीं 
इस क्रूर, निर्मोही समय के बारे में 
कि हर घर, शहर और देश
अब बूढ़ों के लिए है परदेश’’
राजन को दुख की पहचान है तो उससे मुक्ति का मार्ग भी पता है-
‘‘उस वृठ्ठा से कोई मिले तो इतना जान लेगा
कि जीवन विविधताओं से भरा अनथक युठ्ठ है
और जो जीवन भर लड़ेगा, वही जीवन को जियेगा’’
राजन अपने समय के यथार्थ से उपजे दुख को, प्रकृति की मार से उपजे दुख को और शासन की उपेक्षा से उपजे दुख को एक में मिलाकर अपने समय को देखते हैं, अपने परिवेश की मुश्किलों को देखते हैं-
‘‘उस इलाके में सड़क का पता नहीं 
कब बनी और कहाँ गुम हो गयी 
जैसे कि सड़क को भी मालुम 
न ये, कहीं जाने वाले
न यहाँ, कोई आने वाला ।’’
   ऊपर-ऊपर से अभिधा में कही जाने वाली बात दरअसल सिर्फ अभिधा में नहीं हैं। पंक्तियों के बीच में और उनके पार्श्व में अर्थ की जो धुन बजती है, वह यह कि सड़क का गुम हो जाना साधारण बात नहीं है, आदमी का गुम हो जाना तो हम जानते हैं, लेकिन सड़क का गुम हो जाना, व्यवस्था का गुम हो जाना है, शासन का गुम हो जाना हैं, गाँव और जवार के लोगों के जीवन में आने वाली खुशहाली की डोली का गुम हो जाना है, अच्छे दिन के संग सड़क का भाग जाना है। ‘‘न ये कहीं जाने वाले हैं और न यहाँ कोई आने वाला है’’ के पीछे की गूँज यह कि ये अपने किसी प्रिय से मिलने या अपनी जरूरतों की फरियाद लेकर किसी हाकिम के पास जाने वाले हैं या इनके पास क्या है कि जिसे लेकर बाजार जाएँ कुछ खरीदने के लिए। न कोई उधर से दनकी सुध लेने के लिए आने वाला है। कोई हाकिम, कोई मंत्री कोई जनप्रतिनिधि, कोई ऐसा जो इनकी बात ऊपर पहुँचाये और इनके जीवन का अँधेरा दूर करे, उजाला लाए, दुख से मुक्ति दिलाए। यह सब कहने की जरूरत नहीं थी, इसलिए कहा कि राजन की बहुत साधारण पंक्ति को अदेख करना कविता की संभावना को अदेख करना है। 
  राजन को अपने समय की कविता का बुद्ध समझ लेना जल्दबाजी होगी। राजन को कवि समझें जरूरी यह है। राजन जीवन और समाज के दर्द के कवि ही नहीं है, प्र्रेम के भी कवि हैं। प्रेंम और करुणा कविता के दो पाट हैं, जिनके बीच अक्सर अच्छी कविता की आवाजाही होती रहती है। हाँ, बड़ी कविता में जीवन के गहरे संदर्भों के साथ प्रेम और करुणा के साथ ओज तथा अविस्मरणीय चरित्र का तत्व भी जुड़ जाता है। मैं बड़ी कविता की कोई परिभाषा नहीं दे रहा हूँ, सिर्फ अपना अनुभव साझा कर रहा हूँं। - गणेश पाण्डेय)

कविताएं/

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कला और बुद्ध
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सौन्दर्य तो पात-पात में
क्या देखना पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण
ऊपर-नीचे
वह नित परिवर्तित सौन्दर्य
है कण-कण में विद्यमान
वही सत्य का आधार
जिसका, न आर - न पार
जो कर लेता
अपने हृदय में
उस अप्रतिम सौन्दर्य का संधान
कला करती उसी का अभिषेक
करती उसी का सम्मान

जब तक, इसका नहीं ज्ञान
तब तक, सकल मान-अभिमान ।

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दंगश्री
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पृथ्वी से ऊपर नहीं 
पृथ्वी पर ही 
है संभावना
मुक्ति, आनंद की 
प्रेय और श्रेय की 

दंगश्री पर्वत की ओर
उँगली उठा
बुद्ध ने कहा था
आकाश को 

और सदा से 
आकाश की ओर टकटकी लगाए
मनुष्य को कहा 
लौटने को पृथ्वी पर

दंगश्री, दंग है 
अब तक ।

नोट- दंगश्री एक पर्वत का नाम है ।

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कविता का स्वाद
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आम में नहीं हो
आम का स्वाद

अमरूद में नहीं हो
अमरूद का स्वाद

और न इमली में हो
इमली का स्वाद

ठीक उसी तरह
कविता में हो
सबकुछ इफरात
मगर नहीं हो 
कविता का स्वाद

तो सब छूँछा !

मजा तो देखिये !
पोपले मुँह वालों के ऊपर है 
कि बतायें हमें
कविता का स्वाद !

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बाढ़ में घिरे लोग
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उस इलाके में बाढ़ को लोग यही कहते हैं 
कि बढ़ आया है पानी गंगा और गंडक का 
बाढ़ से इनका पुराना हेलमेल 
जैसे गरीबी हूक, अमीरी का अहंकार से

अगर इन्हें मैं दिखाऊँ कि 
यहाँ की अंतहीन त्रासदी पर 
लिखी है मैंने कविता
तो मेरी समझ पर वे ठठा कर हँसेंगे 
और वह लड़की तो हँसते लोटपोट हो जायेगी
जो पढ़ती है कक्षा आठ में
जिसका सरकारी स्कूल
महीनों डूबा रहता, बाढ़ के पानी में तैरते 
उसने पढ़ाई और स्कूल के बारे में सोचना
और अफसोस करना छोड़ दिया 
और इन दिनों सीख रही है सिलाई-कढ़ाई
अपनी सखी-सलेहर की तरह वह भी 
पास कर लेगी जैसे-तैसे 
विवाह के पूर्व मैट्रिक की परीक्षा 

वह लड़की मेरी कविता सुन
कहेगी जरूर
कि यह भी भला लिखने की चीज है 
हो न हो, आप रहते हैं परदेश में 
जिसे मालूम नहीं लोग कैसे रहते हैं देश में 

उस इलाके में सड़क का पता नहीं 
कब बनी और कहाँ गुम हो गयी 
जैसे कि सड़क को भी मालुम 
न ये, कहीं जाने वाले
न यहाँ, कोई आने वाला ।

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एक मरणासन्न वृद्धा के नाम
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उस औरत से पूछे मत कोई हालचाल
नहीं तो फिर कहीं फटेगा बादल
नदियों में आयेगी बाढ़
रोते-रोते उसका, होगा बुरा हाल

रोते-रोते सोना और सोते-सोते रोना
उसके लिए जिन्दगी को जीने का
दूसरा नाम है
और जब तक रहेगा पानी उसकी आँखों में 
वह मरेगी नहीं इतना तय है 

जो उससे मिलने जाता
चला जाता कथा-कहानियों के देश में 
जहाँ वह बचपन में चराती थी बकरियाँ 
और अकसर बैठ जाती महुआ के नीचे 
लाल रिबन बाँधे, आँखों में काजल लगाये 
खेलने लग जाती, कित्......कित्......कित्......कित्

छउरा में डेग रख, एक दिन उसे भी जाना पड़ा था
सास-ससुर, देवरानी-जेठानी से भरे-पूरे परिवार में 
फिर कभी लाल साड़ी में बिहँसते 
कभी रोत-सिसकते
कैसे कट गयी उम्र, पति को मनाते 
बेटे-बेटियों को ढेबुआ (पैसा) का मर्म समझाते
कभी रोटी के साथ नून-तेल
भात के साथ आम के अचार का मसाला सान खाते 

धीरे-धीरे साथ छोड़ते गये 
पति से लेकर लरिकाई की सखि लालमुनी भी 
बेटी रहती दिल्ली में यमुनापार
और बेटे आबाद हो गये अपनी पत्नियों संग
अलग-अलग शहरों में 
पर उस वृठ्ठा का मानना है कि नहीं हो दुख तो 
पहाड़ जैसी जिन्दगी कैसे लगेगी पार
उसने नहीं की कभी ईश्वर से शिकायत
नहीं की कभी पास-पड़ोस के लोगों से नालिश
हर दुपहरिया दुहकर बकरी का दूध
वे कभी पूछने भी नहीं आते 
कि माँ, एक लोटा पी लो पानी

उस औरत को कोई समझाये नहीं 
इस क्रूर, निर्मोही समय के बारे में 
कि हर घर, शहर और देश
अब बूढ़ों के लिए है परदेश
नहीं तो भर-भर आँचर गाली देगी 
और तुनककर कहेगी कि करने चले हो छाव
पसारते हो देह पर झूठ की चादर
उसको भरोसा है कि धरती पर अभी भी
है अच्छाई का राज
और सभी की होती है, उसकी तरह
गरीबी, लाचारी और अभाव से विवाह

जब वह पीती है चापाकल पर पानी
गीली हो जाती देह
ठठा कर हँसते बच्चे, उससे चुहलबाजी करते
पर वह कभी बुरा नहीं मानती, न देती गाली
उनसे बोलते-बतियाते आगे बढ़ जाती

उससे कोई मिले तो मेरे बारे में मत पूछे
चूँकि मेरे गाँव के सीवान पर है उसका घर
नहीं तो वह कहेगी
कि लिखते-लिखते फवित-फवित
मर, भस गया राधाकिसुन का बेटवा
रहता है छपरा-पटना, ऐन्ने-ओन्ने, केन्ने-केन्ने
मुँह दिखाने भर को आता है गाँव 

उस वृद्धा से कोई मिले तो इतना जान लेगा
कि जीवन विविधताओं से भरा अनथक युद्ध है
और जो जीवन भर लड़ेगा, वही जीवन को जियेगा
और यह भी कि जो अपने समय से भागेगा
उसके लिए कभी समय नहीं बदलेगा ।

     






बुधवार, 14 दिसंबर 2016

सिपाही का दर्द

- सतीश कुमार पाण्डेय 

धूप मे लाचार खड़े सिपाही का दर्द लिख रहा हूँ
प्यास के मारे बादलो को निहारते 
आँखो का पानी लिख रहा हूँ । 
अफसर,नेता,गुंडा की यातनाएँ 
वेदना, घुटन से मजबूर,लाचार
सिपाही की कहानी लिख रहा हूँ ।
माना कि सब भले नही है इनमे भी
मगर जो है उनका दर्द लिख रहा हूँ । 
मन करता है इनके महूबूब के पायल की आवाज लिखूँ ,
इनके छोटू और गुड़ियाँ का दुलार लिखूँ , 
पर तीन दिन की छुट्टी के लिए,
अपने अफसर के सामने सर झुकाये खड़े सिपाही को देख कर  
बताओ कैसे इनके महबूब का प्यार लिखूँ,
इनके बच्चो का दुलार लिखूँ। 
जिन्दगी मुफलिस मे गुजरती है इनकी
फिर भी इनके ओठो की मुस्कान लिख रहा हूँ। 
तीस रूपये मे महीने भर चमकती 
वर्दी की कहानी लिख रहा हूँ ।
चार सौ रूपये मिलने वाले मकान भत्ते कि कहानी लिख रहा हूँ।
पुलिस आफिस मे बाबुओ की मनमर्जी 
और उनके शोषण का दर्द लिख रहा हूँ। 
बात बात सस्पेंड की मिलने वाली धमकी 
की कहानी लिख रहा हूँ
चोर भागे मोटरसाईकिल से सिपाही दैड़ाये साईकिल से
ऐसे मिलने वाले साईकिल भत्ते की कहानी लिख रहा हूँ।
धूप मे लाचार खड़े सिपाही का दर्द लिख रहा हूँ , 
प्यास के मारे बादलो को निहारते आँखो का पानी लिख रहा हूँ । 

(
सतीश कुमार पाण्डेय, उ प्र पुलिस में कांस्टेबल हैं।
यात्रा के अंक 12 में इनकी भी कविताएं छपी हुई हैं। उनमें से यह एक है।
-संपादक, यात्रा)

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

भाषा और अस्मिता विमर्श

-आनन्द पाण्डेय

धर्म, क्षेत्र, जाति, लिंग, राष्ट्र, राज्य आदि की तरह ही भाषा भी किसी व्यक्ति अथवा समुदाय की अस्मिता का एक आधार होती है। भाषा किसी समुदाय और जाति की पहचान का सबसे प्रखर माध्यम और भेदक लक्षण है। दुनिया भर में विभिन्न अस्मिताओं ने अपनी भाषाओं को अपने से जोड़कर देखा है क्योंकि विभिन्न संस्कृतियों और समाजों का निर्माण भाषा के आधार पर हुआ है। संस्कृति की पहचान भाषा के आधार पर होती है। तमिल संस्कृति, मराठी संस्कृति, बांग्ला संस्कृति आदि नाम इसी बात को साबित करते हैं।
            भाषा अगर मनुष्य को सभ्य और न्यायप्रिय बनाती है, उसमें समता का भाव जगाती है तो वही शोषण और उत्पीड़न का माध्यम भी है। एक भाषा ने दूसरी भाषा पर वर्चस्व बनाया और विजित जातियों के लोगों के बारे में अपने पूर्वग्रहों और भेदभावों को व्यक्त किया तथा उनके बारे में झूठे प्रचार किये और उनको हीन साबित किया। उनकी मानसिकता को जीतने और उनको हतोत्साहित करने के लिए उनके बारे में गलत और आपत्तिजनक विचारों को स्थापित और प्रचारित किया। अगर उत्पीड़ित और उत्पीड़क की भाषा अलग-अलग हो तब उतनी समस्या नहीं होती, लेकिन जब दोनों एक ही भाषा का व्यवहार बहुत लंबे समय से करते आ रहे हों तब उत्पीड़ित अस्मिताओं को अपने साथ हुए अन्याय का बोध भाषा करा देती है, तब यह भाषा उनकी अनुभूतियों और विचारों को अभिव्यक्ति देने में अक्षम साबित होती है। उत्पीड़ित लेखकों को ऐसी भाषा अधूरा और अन्यायपूर्ण आत्मबोध और जगद्बोध देती है। ऐसी स्थिति में लेखकों को भाषा के लिए संघर्ष करना पड़ता है और अपनी भाषा विकसित करनी पड़ती है।
            हिन्दी एक ऐसी ही भाषा है जिसमें वर्णव्यवस्थावादी व पितृसत्तावादी विचारधारा और उससे उपजे संस्कार रचे-बसे हुए हैं। भवदेव पाण्डेय ने स्त्री और दलित-अस्मिता-विमर्श के तर्कों के आधार पर हिन्दी भाषा और उसके लेखकों के सवर्णवादी और पुरूषवादी चरित्र को रेखांकित करते हुए लिखा है, ‘‘इतिहास साक्षी है कि संस्कृत और हिन्दी के कोशकारों ने दलित और स्त्री-वाचक शब्दों के साथ भारी छल किया है. एक तो ये सभी कोशकार पुरूष-दंभ से आक्रांत थे, दूसरे सवर्णवादी संकीर्ण मानसिकता के भी शिकार थे। यह इनका दोष नहीं था क्योंकि दूसरे शास्त्रवादियों की तरह ये रूढ़िगत और अलगाववादी सामाजिक संरचना के ही उत्पाद थे। इन लोगों ने साहित्य, धर्म, दर्शन और अध्यात्म पर तो हजार-हजार वितंडाएं खड़ी कीं, लेकिन दलितों और स्त्रियों से सम्बद्ध शब्दार्थों में न कोई मौलिक कल्पना की, न ही समाज के मनोवैज्ञानिक परिवर्तन को दृष्टि में रखकर नव अर्थांतरण ही किया। सवर्णवादियों के लिए शूद्र केवल शूद्र थे और पुरूषों के लिए और औरत महज औरत थी। शूद्रों को अपमान और स्त्रियों को संभोग के खूंटे से बांधकर रखने के सांस्कृतिक अधिकार इनके पास सुरक्षित थे।’’
              बीसवीं सदी के अंतिम दशक में जब स्त्री और दलित अस्मिताओं ने अपना आत्मरेखांकन आरंभ किया और उसके लिए साहित्यिक और सामाजिक विमर्श चलाया तब उन्हें इस बात का एहसास हुआ कि जिस भाषा में वे अपने अनुभवों और विचारों को व्यक्त करने की कोशिश कर रहे हैं, वह उनके लिए पर्याप्त साबित नहीं हो पा रही है। इसलिए नब्बे के दशक में स्त्री और दलित-अस्मिता-विमर्श और साहित्य और आलोचना के उभार के साथ-साथ हिन्दी में भाषा और अस्मिता के प्रश्न सतह पर आए गये। तमिल, तेलुगु और मराठी आदि की तरह दलित और स्त्री भाषाई अस्मिता नहीं हैं। उनके विमर्श भी वैसे नहीं हैं जैसे भाषाई अस्मिताओं के होते हैं। जिसके तहत एक भाषा-भाषी समुदाय दूसरे भाषा-भाषी समुदाय के वर्चस्व या उसके साथ अपने हितों के टकराव के कारण अपनी भाषा की अस्मिता को दूसरी भाषा के विरोध के माध्यम से रेखांकित करता है। जैसे दक्षिण भारत के राज्यों में हिन्दी विरोध के आधार पर तमिल इत्यादि भाषाई अस्मिताओं ने अपने को रेखांकित किया। भाषाई अस्मिता-विमर्श और किसी अस्मिता के भाषा संबंधी विमर्श अलग-अलग हैं। भाषाई विमर्श अस्मिता-विमर्श का एक रूप है। भाषाई अस्मिता-विमर्श के आधार पर ही भारत में केवल हिन्दी को लेकर ही अन्य भाषा-भाषियों में असुरक्षा और गुस्सा का भाव नहीं है बल्कि सभी भाषाएं एक दूसरी से असुरक्षित महसूस करती हैं। इस बात को रामविलास शर्मा ने स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘‘भय केवल हिन्दी से अहिन्दी भाषियों को नहीं रहा; भय है बंगालियों को असमिया से, मराठी भाषियों को गुजराती, तेलुगुभाषियों को तमिल से इत्यादि। और अंग्रेजी को गले लगाये रखने के लिए सब तैयार हैं!’’
              इस तरह के विमर्श राजनीतिक धरातल पर अधिक खुले और बड़े मुद्दे के रूप में सामने आते हैं। इसके पीछे अपनी भाषा में निहित वर्चस्व की प्रवृत्ति नहीं होती है। जबकि हिन्दी के संदर्भ में दलित और स्त्री अस्मिताओं की भाषा वही है जो सवर्ण पुरूष की है। यहां मुद्दा किसी दूसरी भाषा के विरोध का नहीं है, बल्कि भाषाई चरित्र का है। इस अर्थ में हिन्दी के ये स्त्री और दलित-विमर्श हिन्दी भाषा के स्त्री-विरोधी पुरूषवादी और दलित-विरोधी सवर्णवादी चरित्र के विरोध और उससे निजात पाने के तरीकों पर केन्द्रित हैं। यहां प्रश्न एक भाषा के भीतर जमे बैठे स्त्री और दलित-विरोधी संस्कारों और पुरूषवादी-सवर्णवादी विचारों से मुक्ति का है। एक तरह से ये हिन्दी भाषा की मुक्ति के विमर्श हैं। यह अलग बात है कि कुछ विचारक इन संस्कारों और विचारों के विरोध की बजाय हिन्दी भाषा का ही विरोध करने लगते हैं। ऐसे लोगों के यहां भाषा की मुक्ति की नहीं बल्कि भाषा से मुक्ति की प्रवृत्ति मिलती है।
          चंद्रभान प्रसाद हिन्दी समेत समस्त भारतीय भाषाओं को वर्ण-व्यवस्थावादी चरित्र, सवर्णवादी मानसिकता की वाहिका और भेदभाव की समर्थक मानते हैं। इसी लिए वे भारतीय भाषाओं की जगह अंग्रेजी को दलितों की मुक्ति के लिए अधिक उपयोगी मानते हैं। उन्होंने हाल ही में अंग्रेजी माता के मंदिर की स्थापना का आन्दोलन शुरू किया है। उनकी रणनीति यह है कि दलितों की धार्मिक भावना से जोड़कर अंग्रेजी को उनके बीच शीघ्रता और आसानी से लोकप्रिय बनाया जा सकता है। उनके अस्मितावादी भाषा-विमर्श के प्रमुख बिन्दुओं को वीर भारत तलवार ने व्यवस्थित रूप में इस प्रकार रखा है, ‘‘अब मैं चंद्रभान के इस पक्ष का जिक्र करना चाहता हूं कि हिन्दी एक भाषिक बुराई है। चंद्रभान का यह तर्क है कि कोई भी भाषा अपने समाज के इतिहास, संस्कृति परंपराओं और मूल्यों की भी वाहक होती है। इस दृष्टि से हिन्दी और सभी भारतीय भाषाएं लंबे समय से भारतीय वर्ण-व्यवस्था और जातिप्रथा की संस्कृति और उसके दलित-शूद्र विरोधी मूल्यों से इतनी दूषित हो चुकी हैं कि दलित उन्हें नहीं अपना सकते। इसलिए बेहतर होगा कि ये भाषाएं जल्द से जल्द भारत से गायब हो जाएं। इनकी जगह दलितों को अंग्रेजी भाषा को अपनाना चाहिए जो उन्हें एक ज़्यादा लोकतांत्रिक, आधुनिक और व्यापक अंतर्राष्ट्रीय समाज से जोड़ती है और उनके लिए बौद्धिक विकास का ज़्यादा बड़ा रास्ता खोलती हैं।’’
           दलित अस्मिता की भाषा संबंधी समस्याओं पर चंद्रभान प्रसाद की मान्यताएं भाषा वैज्ञानिक, ऐतिहासिक और जनवादी न होकर प्रतिक्रियावादी, मध्यवर्गीय मानसिकता की उपज और अव्यावहारिक हैं। यह सही है कि भाषा एक ऐसी प्रौद्योगिकी है जो व्यक्ति को समर्थ और सशक्त बनाती है। इससे संपन्न होने से वह न केवल रोजगार प्राप्त कर अपनी आर्थिक और सामाजिक हैसियत बढ़ा सकता है बल्कि इसके माध्यम से सौंदर्य और विचारों का भी सृजन कर सकता है। वह भाषा अगर बाजार, राजनीति और अभिजात्य वर्ग में सम्मानित हो तब यह बात और अधिक लागू होती है। कहने की जरूरत नहीं कि अंग्रेजी भाषा ऐसी ही भाषा है जिसके माध्यम से न केवल आज का करोबार चलता है बल्कि राजनीति और सांस्कृतिक गतिविधियां भी चलती हैं। देश का संभ्रांत तबका इसे अपनी शिक्षा और जीवन व्यवहार का माध्यम बनाकर चल रहा है इसलिए यह भाषा आज उन्नति और इज्जत के जरूरतमंद आदमी या समुदाय के लिए अभिप्रेत है। आज का हर भारतीय अंग्रेजी बोलना और समझना चाहता है। ऐसे में दलित अस्मिता के लिए तो यह वरदान हो सकती है जो पहले से ही उन भाषाओं के जातिवादी और सवर्णवादी चरित्र का शिकार हैं, जिनके माध्यम से उनका काम-काज चलता है। लेकिन, हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं को त्याग देने, अपनी जिन्दगी और मानसिकता से निकाल देने की बात जितनी आकर्षक और मुक्तिदायिनी लगती हैै, उतनी आसान, व्यावहारिक और कल्याणकारी नहीं है।
              दलित अस्मिता की मुक्ति और सर्वांगीण उन्नति के लिए अंग्रेजी की उपयोगिता को खारिज करते हुए और मातृभाषाओं के महत्व को रेखांकित करते हुए तुलसीराम ने यह प्रतिपादित किया है कि अंग्रेजी दलितों के विकास और उनकी शिक्षा में एक बड़ी बाधा है। उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में चंद्रभान प्रसाद की मान्यता का विरोध करते हुए कहा है, ‘‘भविष्य के नष्टकर्ता के रूप में अंग्रेजी का एक रोल है। वो कैरियर नहीं बनाती, बल्कि उसको बिगाड़ देती है: इसीलिए सिक्सटीज के दशक में अंग्रेजी विरोधी आन्दोलन चला। 1966 के आस-पास बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय ने उसे लीड किया था। हम लोग वहां छात्र थे और सभी उसमें शमिल थे। एक वातावरण बना था अंग्रेजी के खिलाफ और कई बोर्ड्स ने अंग्रेजी की शिक्षा को कंपल्सरी के बदले ऑप्सनल कर दिया था। अन्यथा जिस समय अंग्रेजी अनिवार्य होती थी, उत्तर प्रदेश और बिहार मंे हाईस्कूल और इंटरमीडिएट का पासिंग रिजल्ट 30-35 प्रतिशत से अधिक नहीं होता था। इस तरह से देखा जाय तो अंग्रेजी ने लाखों बच्चों का भविष्य अंधकार में डाल दिया। एक पूरी की पूरी पीढ़ी को अंग्रेजी ने बरबाद कर दिया। अगर आजादी के बाद अंग्रेजी के एकूमुलेटेड प्रभाव का अध्ययन किया जाए, तो उजागर होगा कि लाखों-लाख बच्चों का भविष्य आजादी के बाद से अब तक अंग्रेजी ने बरबाद किया है, क्योंकि उसमें फेल हो जाने के बाद बच्चे आगे नहीं पढ़ पाए। यह संख्या करोड़ों तक पहुंचेगी।’’
             भारतेंदु हरिश्चंद्र ने बहुत पहले अपनी एक कविता में कहा था, ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।’ भारतेंदु की इस मान्यता के आलोक में देखें तो चंद्रभान प्रसाद द्वारा सुझाया गया समाधान दलितों के लिए कल्याणकारी होने से अधिक विनाशकारी साबित हो सकता है। आज अंग्रेजी भारतीय समाज की सबसे बड़ी आकांक्षा है, बिना इस बात की ंिचंता किए कि यह आकांक्षा पालना कितना फायदेमंद और कितना नुकसानदेह हो सकता है। आज सभी, सवर्ण, स्त्रियां, आदिवासी, दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक अंग्रेजी की ओर भाग रहे हैं। भारतेंदु की उक्त सलाह को ध्यान में रखे बिना। यह सलाह केवल दलितों को या किसी एक समुदाय विशेष को नहीं दी जा सकती कि वे अंग्रेजी न सीखें, आज उनके लिए भी अंग्रेजी वैसी ही आकर्षक और जरूरी है, जैसी सवर्णों के लिए। लेकिन चाहे सवर्ण हों या दलित, किसी को भी अपनी मातृभाषा छोड़ने और कोई परायी भाषा के नियम या विचार से बांधना खतरनाक और अस्वाभाविक है। भाषा संस्कृति और परंपरा का पर्याय है। मातृभाषा त्यागने का अर्थ है सामूहिक रूप से अपनी संस्कृति और हजारों साल के अनुभव, स्मृतियांे और इतिहास से विच्छेद। हर तरीके से अपनी जड़ों से कटकर दुनिया की एक दिशाहीन और दोयम दर्जे की नागरिकता पा लेना, जो किसी भी कौम के लिए बहुत खतरनाक बात है, लगभग सामूहिक आत्महत्या करने जैसी खतरनाक बात। दुनिया भर के भाषावैज्ञानिकों और संस्कृति के अध्येताओं ने मातृभाषा को किसी मनुष्य या समुदाय के लिए सबसे उपयुक्त और लाभकारी भाषा माना है। उसके माध्यम से ज्ञान-विज्ञान और साहित्य तथा कला में जैसी उन्नति की जा सकती है वैसी किसी परायी भाषा में नहीं। आज भी अंग्रेजी की शिक्षा और जानकारी प्राप्त करना आर्थिक रूप से सक्षम और सामाजिक रूप से उच्चतर तबके की पहंुच में है। स्कूलों के माध्यम से जो थोड़ी-बहुत अंग्रेजी की जानकारी ग्रामीण किसानों, मजदूरों, दलितों और आदिवासियों को मिल पाती है उससे वे उसमें काम-काज या अभिव्यक्ति करने के काबिल नहीं हो पाते। यही बात अधिकांश छोटे शहरों के बारे में भी सही है। इसके अलावा जिनकी अंग्रेजी अच्छी समझी जाती है उनमें से भी अधिकांश लोग उसमें न कुछ गंभीर चीज लिख सकते हैं और न ही केवल उससे उनका जीवन और शिक्षा का काम पूरा हो सकता है। अंग्रेजी सीखने की और उसमें अपना जीवन चलाने की सुविधा केवल मुट्ठीभर उच्च वर्ग को प्राप्त है। ये भी अपने समग्र सांस्कृतिक विकास के लिए अपनी-अपनी मातृभाषाओं का सहारा लेते हैं। मातृभाषाओं से कट कर वे भी अधूरे रह जाएंगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि अंग्रेजी आज भी सांस्कृतिक रूप से परायी भाषा है। ऐसी परायी भाषा के माध्यम से कोई भी व्यक्ति या समुदाय अपना समग्र विकास नहीं कर सकता है- ऐसा प्रकृति और संस्कृति का नियम है; अगर वह अपनी मातृभाषा का पूर्णतः बहिष्कार कर देता है।
             जिस तरह की बात चंद्रभान प्रसाद ने सुझायी है उस तरह की बात दुनिया के किसी समाज के बारे में लागू हुई है, कह पाना बहुत मुश्किल है। कोई व्यक्ति अपनी भाषा, जिसने उसे बोलना, सोचना और समझना सिखाया, जिसने उसे दुनिया की समझ दी, को अचानक छोड़कर दूसरी भाषा को अपना ले और अपना पूरा जीवन उसी में जीने लगे; यह बात काल्पनिक है। व्यावहारिक स्तर पर यह संभव नहीं है। वीर भारत तलवार ने ठीक ही लिखा है, ‘‘भाषाओं को उस तरह से छोड़ा या अपनाया नहीं जा सकता जिसकी मांग चंद्रभान प्रसाद करते हैं। भाषाओं पर इतिहास, संस्कृति और परंपराओं की छाप जरूर होती है लेकिन इनमें होने वाले विकास और बदलावों के साथ-साथ भाषा का स्वरूप और चरित्र भी बदलता जाता है। इसलिए सवाल इन भाषाओं को छोड़ देने का नहीं है, बल्कि समाज में उस संस्कृति और उन प्रथाओं के खि़लाफ़ लड़ने का है जो इन भाषाओं के स्वरूप पर अपनी छाप छोड़ती हैं।’’ कहने की जरूरत नहीं कि आज भी दलितों की मुक्ति और उनके सशक्तीकरण का माध्यम उनकी मातृभाषाएं हैं। उनकी सामूहिक मुक्ति के लिए मातृभाषाओं और भारतीय प्रांतीय भाषाओं को समृद्ध किया जाना सबसे आवश्यक और स्वाभाविक है। यही सबसे व्यावहारिक भी है। इन भाषाओं के माध्यम से जब वे अपना थोड़ा विकास कर लेंगे, तब वैसे ही स्वाभाविक रूप से अंग्रेजी सीख लेंगे जैसे कि अन्य समुदायों का विकसित और विकासशील व्यक्ति कर लेता है।
           हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं का जातिवादी चरित्र और सवर्णवादी मानसिकता तथा शब्दावली जगजाहिर है। भाषा की यह समस्या आम तौर पर उन लेखकों के साथ है जो सवर्णवादी मानसिकता के लेखक हैं। ऐसे लेखक या तो जानबूझकर ऐसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं या फिर अनजाने ही उनके जातिवादी-सवर्णवादी-पुरूषवादी संस्कार भाषा में आ जाते हैं। इसके अतिरिक्त लोक-जीवन में भी भाषा का जातिवादी चरित्र सामने आता है। यह समस्या भी सवर्ण या गैर दलित लोक के साथ है। भाषा की ये समस्याएं धीरे-धीरे दूर हो रही हैं और जो बची हुई हैं, उन्हें आसानी से दूर किया जा सकता है- आन्दोलन और जागरूकता फैलाकर। लेकिन, दलित अस्मिता की भाषा समस्या पर विचार करते हुए इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि दलितों की अभिव्यक्ति और रचना की लम्बी और सबल-समृद्ध परंपरा रही है। उन सब में जहां-जहां दलित-अस्मिता की चेतना है वहां-वहां भाषा का चरित्र दलित विरोधी न होकर जातिवाद विरोधी अथवा वर्णव्यवस्था विरोधी है। उदाहरण के लिए कबीर की भाषा को लिया जा सकता है। उसमें उन शब्दों और अवधारणाओं का प्रयोग मिलता है जो ब्राम्हणवादी लगती हैं, लेकिन उन्होंने उनका अर्थ बदल दिया है और वे पूरी तरह से जातिनिरपेक्ष हो गयी हैं। इसका एक रोचक उदाहरण है- ‘राम’ शब्द या संज्ञा, जो कबीर के यहां वही नहीं है जो सगुण कवियों के यहां हैं। इससे यह पता चलता है कि जब सामाजिक संरचना बदल जाएगी तो भाषा का चरित्र और अर्थ भी बदल जाएगा, क्योंकि शब्दों का अर्थ बहुत कुछ संदर्भ पर निर्भर करता है कि उनका प्रयोग किस संदर्भ में किया गया है।
            यह बात भी ध्यान में रखने लायक है कि दलितों की अपनी लम्बी भाषा-परंपरा है। लोक-भाषाओं में अभिव्यक्ति की यह परंपरा पुराने जमाने से चली आ रही है जिसे दलितों की भाषा कह सकते हैं। ये अभिव्यक्तियां मोटे तौर पर दलित-चेतना की अभिव्यक्तियां हैं इसलिए इसमें सवर्णों की भाषा की बुराइयां नहीं के बराबर हैं। दलित अस्मिता भाषा की अपनी समस्या का समाधान अभिव्यक्ति की इन पुरानी परंपराओं से अपने को जोड़कर कर सकती है। जब हम विभिन्न भारतीय भाषाओं में दलित साहित्य के उभार और उसकी परंपरा को देखते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि दलितों ने अपनी अस्मिता की भाषा समस्या को काफी हद तक सुलझा लिया है। आज दलित लेखकों और आलोचकों की भाषा ने हिन्दी को एक जातिनिरपेक्ष भाषा बनने में काफी मदद की है। डॉ0 धर्मवीर की आलोचना पुस्तक ‘हिन्दी की आत्मा’ ने भाषावैज्ञानिक स्तर पर दलित-दृष्टिकोण से हिन्दी भाषा के विकास में सराहनीय योगदान दिया है। इसके बाद भी अगर दलितों को उनकी अपनी मातृभाषा को छोड़कर अंग्रेजी को अपनाने के लिए आन्दोलित किया जा रहा है, तो इसे पोली दीवार पर पलस्तर लगाने से अधिक कुछ नहीं माना जा सकता है। रामविलास शर्मा के शब्दों में, ‘‘अंग्रेजी अवश्य एक समृद्ध भाषा है। शेक्सपियर, मिल्टन और डार्विन जैसे मनीषियों ने उसमें अपनी रचनाएं की हैं। यही भाषा इंगलैंड में बोली जाती है, संयुक्त राष्ट्र अमरीका, कनाडा, और दक्षिण अफ्रीका में, न्यूजीलैंड और आस्टेªलिया में और भारत जैसे ब्रिटेन के भूतपूर्व उपनिवेशों में-  कुछ शिक्षित जनों द्वारा- बोली जाती है। इन सब देशों की औद्योगिक और वैज्ञानिक प्रगति एक सी नहीं है। मुख्य बात है सामाजिक संगठन, सामाजिक विकास की मंजिल। नीचे से दीवाल पोली हो तो अंग्रेजी का पलस्तर लगाने से दीवाल इमारत मजबूत थोड़ी ही हो जाती है।’’
              जिस प्रकार दलित अस्मिता-विमर्श ने हिन्दी भाषा के दलित-विरोधी और सवर्णवादी चरित्र की पहचान की और विरोध किया है, उसी प्रकार स्त्रीवादी अस्मिता-विमर्श ने भी हिन्दी के पुरूषवादी और स्त्री-विरोधी चरित्र की पहचान और उसका विरोध किया है। जैसे दलित-अस्मिता के विमर्शकारों की चिंता अपनी अभिव्यक्ति और आत्म-बोध को संपूर्ण बनाने वाली भाषा की तलाश है वैसे ही स्त्रीवादी विमर्शकारों को भी है। एक जातिनिरपेक्ष भाषा के बिना जैसे दलित-मुक्ति संभव नहीं है वैसे ही लिंगनिरपेक्ष भाषा के बिना स्त्री-मुक्ति संभव नहीं है क्योंकि भाषा ही किसी व्यक्ति या समुदाय की अस्मिता की सबसे बड़ी पहचान है। ऐसे में अगर वही उसकी पहचान को अधूरी और अपमानित रूप में पेश करती है तो भेद-भावों से उसकी मुक्ति आवश्यक हो जाती है। इसी आवश्यकता को महसूस करते हुए स्त्रीवाद ने स्त्री-भाषा की अवधारणा पेश की है।
                मैनेजर पाण्डेय ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है, ‘‘सारी दुनिया में भाषाओं के निर्माण, विकास और संरक्षण का काम सबसे ज्यादा स्त्रियों ने किया है। ... यह अकारण नहीं है कि दुनिया में भाषाओं को केवल मातृभाषा कहा जाता है, कहीं पितृभाषा नहीं कहा जाता है।’’ यह बिडम्बना ही है कि मातृभाषाओं में पितृसत्ता की राजनीति हावी रही। नाम तो उसका मातृभाषा है, लेकिन सेवा वे पितृसत्ता की करती रहीं। मातृभाषा में पितृसत्ता की राजनीति कब और किस प्रकार आई; इस बात की पहचान और खोज स्त्री अस्मितावादी भाषा-विमर्श का प्रमुख विषय है। इसी लिए स्त्री-विमर्श जिन विषयों पर ध्यान केंद्रित करता है, उनमें भाषा प्रमुख है। स्त्री-अस्मिता भाषा के प्रश्न को लेकर जिस प्रकार गंभीर और सजग है, उससे अस्मिता-विमर्श और भाषा के संबंध का पता चलता है। अनामिका स्त्री-भाषा के स्वरूप और पुरूष-भाषा से उसकी भिन्नता को रेखांकित करती हुई लिखती हैं, ‘‘औरतों की भाषा का एक अलग मिजाज है जिसे कैनन में प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए। कैथरीन आर. सिम्पसन इसे बड़े कायदे से ‘भाषा की उछाल और उल्लास’ कहती हैं। पुरूष की ‘लिबिडल इकोनॉमी’ का बीज-शब्द है ‘संपत्ति’ और स्त्री की ‘लिबिडल इकोनॉमी’ का बीज-शब्द ‘उपहार’, एक ऐसा अवदान जिसका दाम वसूलने की कोशिश कभी की ही न जाए, इसलिए उसमें ऐसा बहुत कुछ वंचित रह जाता है जिसे उच्छल अभिव्यक्ति की आवश्यकता होती है।’’
                  स्त्रीवादी भाषा विमर्श ने इस बात को रेखांकित किया है कि, दुनिया की सभी भाषाएं पुरूषवादी हैं। ये पुरूषवादी भाषाएं स्त्रियों के आत्मबोध और जगद्बोध को खंडित और अधूरा बनाती हैं। इनके प्रयोग से कभी वे अपनी अस्मिता और अस्तित्व की खोज नहीं कर सकती हैं। स्त्रीवादियों ने इस बात को स्थापित किया है कि पुरूषों की भाषाओं ने स्त्रियों की अपनी भाषिक विशेषताओं का जान-बूझ कर दमन किया है। पुरूषों की भाषा स्त्रियों की भाषा की विशिष्टता और भिन्नता को खारिज करती है और उनके साथ भाषिक न्याय करने की बजाय अपने वर्चस्व को स्थापित करती हैं। इसलिए पुरूष-भाषा स्त्रियों के लिए समग्र और सामान्य भाषा नहीं हो सकती है। पश्चिमी स्त्रीवादी इरीगैरी के हवाले से अर्चना वर्मा इस तथ्य को रेखांकित करती हुई लिखती हैं, ‘‘इरीगैरी का मानना है कि मर्दानी भाषा का इस्तेमाल करती हुई स्त्री आत्मबोध में अधूरी और खंडित रह जाती है। मर्दानी भाषा की जो एकरूपता, एकोन्मुखता, समरूपता है वह भिन्नता के दमन से निकली है अतः वह समानता और समग्रता की पर्यायवाची नहीं हैं।’’
इरीगैरी के हवाले से पुरूष-भाषा के लैंगिक भेदभाव तथा स्त्री और पुरूष भाषाओं के अंतरों को रेखांकित करती हुई अर्चना वर्मा ने लिखा है, ‘‘इरीगरी के अनुसार स्त्री की कामना अभाव से नहीं, अतिशय से फूटती है। पुरूष की भाषा उसकी यौनिकता का सदृश बुद्धिप्रधान, प्रत्यक्ष, रैखिक और ऐकिक है। वह व्याकरण के साफ-सुथरे चौखटों में बंधी, स्पष्ट और एकायामी है, प्रत्यक्षतः सुव्यवस्थित किंतु दमनशील सांस्थानिकता के स्वभाव की तरह। स्त्री की यौनिकता पुरूष के लिंगाधारित एकोन्मुखी विस्फोट से भिन्न; स्पर्शजन्य और बहुकेन्द्रिक है। भिन्नताओं की स्वीकृति और समायोजन में समर्थ बहुन्मुखता स्त्री-स्वभाव का मूल है। स्त्री और स्त्रीत्व की भाषा का स्वभाव भी यही है। वह व्याकरण का उल्लंघन और संप्रेषण के नियमों का अतिक्रमण करके अपनी अंतरंग लय खोजती है। वह अर्थ की अनेक दिशाओं में एक साथ प्रस्थान करती है। पुरूष के लिए अर्थ के विषय मे वह प्रायः अस्पष्ट और अनिश्चित साबित होती है। यह भाषा ‘निर्बुद्धि’ नहीं, लेकिन एक भिन्न प्रकार से बौद्धिक या फिर बौद्धिकता से परे है; तर्कहीन नहीं, किंतु परिचित अर्थों से अवश्य तर्कातीत; पदानुक्रम-प्रतिरोधी और वृत्तात्मक होती है।‘‘
               हिन्दी के भाषाशास्त्रीय चिंतन में स्त्रियोें की भाषिक समस्याओं को महत्व नहीं दिया गया है। इसलिए आज भी स्त्रियों की भाषा का मूल्यांकन पुरूषों के भाषिक मानदंडों के आधार पर होता है। जब स्त्री लेखन की भाषा पुरूषों से भिन्न है तब उसके अध्ययन के लिए भी पुरूषवादी भाषिक मानदंड बेकार साबित हो जाते हैं। इसलिए पुरूषों को स्त्री साहित्य का अध्ययन करने के लिए अपने भाषिक मानदंडों को बदलना पडे़गा। स्त्रियों की भाषा की पुरूषों की भाषा से भिन्नता को रेखांकित करते हुए और स्त्री-पुरूष भाषाओं के लिए अलग-अलग मानदंडों की बात को उठाते हुए जगदीश्वर चतुर्वेदी ने ठीक ही लिखा है, ‘‘स्त्रियों की कृतियों को पढ़ते समय भिन्न किस्म की भाषिक संरचना और पठन शैली की जरूरत होती है। स्त्री भाषा को आमतौर पर पुरूष भाषा के मानदंडों से ही देखा गया है। दूसरी महत्पूर्ण बात यह है कि हमने कभी महसूस ही नहीं किया कि हमारी भाषाशास्त्रीय सैद्धांतिकी लिंगभेदीय पूर्वग्रहों से ग्रस्त है। फलतः पुरूष की भाषा को स्त्री भाषा का आदर्श बताया गया। स्त्री की भाषा पुरूष की भाषा से भिन्न हो सकती है? या है? यह प्रश्न आज साहित्य समीक्षा में सबसे ज्यादा विवादास्पद है। स्त्री की भाषा पुरूष की भाषा से एकदम भिन्न होती है अतः उसके मानदंड भी भिन्न होंगे स्त्री भाषा को निर्धारित करने वाले तत्व सिर्फ ‘‘पाठ’’ में ही नहीं होते बल्कि ‘‘पाठ’’ से बाहर भी होते हैं।’’
बीसवीं सदी के अंतिम दशक में दलित और स्त्री अस्मितावादी विमर्शों के अलावा हिन्दू अस्मिता-विमर्श और उसकी राजनीति काफी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराती है। दलित और स्त्री अस्मितावादी विमर्श ने जहां हिन्दी भाषा से जातिवादी-लिंगवादी भेदभावों और सवर्णवादी-पितृसत्तावादी विचारों और संस्कारों को समाप्त करने का काम करता है वहीं हिन्दूवादी अस्मिता-विमर्श भाषा की चेतना और उसकी सार्थकता को नष्ट करने का काम करता है। हिन्दूवादी अस्मिता के भाषा-विमर्श को यों तो ‘हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान’ के पुराने नारे से जोड़ कर समझा जा सकता है, लेकिन बीसवीं सदी के अंतिम दशक में हिन्दूवादी अस्मिता-विमर्श और उसकी राजनीति ने भाषा का वैसा विमर्श कभी प्रस्तुत ही नहीं किया जैसा दलित और स्त्री अस्मिताओं ने किया। हिन्दूवादी अस्मिता की राजनीति ने धर्म, धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता, धार्मिक सहिष्णुता, परंपरा, संस्कृति, हिन्दू जैसे शब्दों के अर्थ को या तो नष्ट करने किया या फिर अस्थिर कर दिया। हिन्दूवादी राजनीति के भाषाई व्यवहार ने यह दिखा दिया है कि अस्मिता-विमर्श हरहाल में भाषा से जुड़े होते हैं और उनको प्रभावित करते हैं। 
(यात्रा-7 से)