बुधवार, 25 दिसंबर 2013

भाषा और अस्मिता विमर्श

-आनन्द पाण्डेय

धर्म, क्षेत्र, जाति, लिंग, राष्ट्र, राज्य आदि की तरह ही भाषा भी किसी व्यक्ति अथवा समुदाय की अस्मिता का एक आधार होती है। भाषा किसी समुदाय और जाति की पहचान का सबसे प्रखर माध्यम और भेदक लक्षण है। दुनिया भर में विभिन्न अस्मिताओं ने अपनी भाषाओं को अपने से जोड़कर देखा है क्योंकि विभिन्न संस्कृतियों और समाजों का निर्माण भाषा के आधार पर हुआ है। संस्कृति की पहचान भाषा के आधार पर होती है। तमिल संस्कृति, मराठी संस्कृति, बांग्ला संस्कृति आदि नाम इसी बात को साबित करते हैं।
            भाषा अगर मनुष्य को सभ्य और न्यायप्रिय बनाती है, उसमें समता का भाव जगाती है तो वही शोषण और उत्पीड़न का माध्यम भी है। एक भाषा ने दूसरी भाषा पर वर्चस्व बनाया और विजित जातियों के लोगों के बारे में अपने पूर्वग्रहों और भेदभावों को व्यक्त किया तथा उनके बारे में झूठे प्रचार किये और उनको हीन साबित किया। उनकी मानसिकता को जीतने और उनको हतोत्साहित करने के लिए उनके बारे में गलत और आपत्तिजनक विचारों को स्थापित और प्रचारित किया। अगर उत्पीड़ित और उत्पीड़क की भाषा अलग-अलग हो तब उतनी समस्या नहीं होती, लेकिन जब दोनों एक ही भाषा का व्यवहार बहुत लंबे समय से करते आ रहे हों तब उत्पीड़ित अस्मिताओं को अपने साथ हुए अन्याय का बोध भाषा करा देती है, तब यह भाषा उनकी अनुभूतियों और विचारों को अभिव्यक्ति देने में अक्षम साबित होती है। उत्पीड़ित लेखकों को ऐसी भाषा अधूरा और अन्यायपूर्ण आत्मबोध और जगद्बोध देती है। ऐसी स्थिति में लेखकों को भाषा के लिए संघर्ष करना पड़ता है और अपनी भाषा विकसित करनी पड़ती है।
            हिन्दी एक ऐसी ही भाषा है जिसमें वर्णव्यवस्थावादी व पितृसत्तावादी विचारधारा और उससे उपजे संस्कार रचे-बसे हुए हैं। भवदेव पाण्डेय ने स्त्री और दलित-अस्मिता-विमर्श के तर्कों के आधार पर हिन्दी भाषा और उसके लेखकों के सवर्णवादी और पुरूषवादी चरित्र को रेखांकित करते हुए लिखा है, ‘‘इतिहास साक्षी है कि संस्कृत और हिन्दी के कोशकारों ने दलित और स्त्री-वाचक शब्दों के साथ भारी छल किया है. एक तो ये सभी कोशकार पुरूष-दंभ से आक्रांत थे, दूसरे सवर्णवादी संकीर्ण मानसिकता के भी शिकार थे। यह इनका दोष नहीं था क्योंकि दूसरे शास्त्रवादियों की तरह ये रूढ़िगत और अलगाववादी सामाजिक संरचना के ही उत्पाद थे। इन लोगों ने साहित्य, धर्म, दर्शन और अध्यात्म पर तो हजार-हजार वितंडाएं खड़ी कीं, लेकिन दलितों और स्त्रियों से सम्बद्ध शब्दार्थों में न कोई मौलिक कल्पना की, न ही समाज के मनोवैज्ञानिक परिवर्तन को दृष्टि में रखकर नव अर्थांतरण ही किया। सवर्णवादियों के लिए शूद्र केवल शूद्र थे और पुरूषों के लिए और औरत महज औरत थी। शूद्रों को अपमान और स्त्रियों को संभोग के खूंटे से बांधकर रखने के सांस्कृतिक अधिकार इनके पास सुरक्षित थे।’’
              बीसवीं सदी के अंतिम दशक में जब स्त्री और दलित अस्मिताओं ने अपना आत्मरेखांकन आरंभ किया और उसके लिए साहित्यिक और सामाजिक विमर्श चलाया तब उन्हें इस बात का एहसास हुआ कि जिस भाषा में वे अपने अनुभवों और विचारों को व्यक्त करने की कोशिश कर रहे हैं, वह उनके लिए पर्याप्त साबित नहीं हो पा रही है। इसलिए नब्बे के दशक में स्त्री और दलित-अस्मिता-विमर्श और साहित्य और आलोचना के उभार के साथ-साथ हिन्दी में भाषा और अस्मिता के प्रश्न सतह पर आए गये। तमिल, तेलुगु और मराठी आदि की तरह दलित और स्त्री भाषाई अस्मिता नहीं हैं। उनके विमर्श भी वैसे नहीं हैं जैसे भाषाई अस्मिताओं के होते हैं। जिसके तहत एक भाषा-भाषी समुदाय दूसरे भाषा-भाषी समुदाय के वर्चस्व या उसके साथ अपने हितों के टकराव के कारण अपनी भाषा की अस्मिता को दूसरी भाषा के विरोध के माध्यम से रेखांकित करता है। जैसे दक्षिण भारत के राज्यों में हिन्दी विरोध के आधार पर तमिल इत्यादि भाषाई अस्मिताओं ने अपने को रेखांकित किया। भाषाई अस्मिता-विमर्श और किसी अस्मिता के भाषा संबंधी विमर्श अलग-अलग हैं। भाषाई विमर्श अस्मिता-विमर्श का एक रूप है। भाषाई अस्मिता-विमर्श के आधार पर ही भारत में केवल हिन्दी को लेकर ही अन्य भाषा-भाषियों में असुरक्षा और गुस्सा का भाव नहीं है बल्कि सभी भाषाएं एक दूसरी से असुरक्षित महसूस करती हैं। इस बात को रामविलास शर्मा ने स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘‘भय केवल हिन्दी से अहिन्दी भाषियों को नहीं रहा; भय है बंगालियों को असमिया से, मराठी भाषियों को गुजराती, तेलुगुभाषियों को तमिल से इत्यादि। और अंग्रेजी को गले लगाये रखने के लिए सब तैयार हैं!’’
              इस तरह के विमर्श राजनीतिक धरातल पर अधिक खुले और बड़े मुद्दे के रूप में सामने आते हैं। इसके पीछे अपनी भाषा में निहित वर्चस्व की प्रवृत्ति नहीं होती है। जबकि हिन्दी के संदर्भ में दलित और स्त्री अस्मिताओं की भाषा वही है जो सवर्ण पुरूष की है। यहां मुद्दा किसी दूसरी भाषा के विरोध का नहीं है, बल्कि भाषाई चरित्र का है। इस अर्थ में हिन्दी के ये स्त्री और दलित-विमर्श हिन्दी भाषा के स्त्री-विरोधी पुरूषवादी और दलित-विरोधी सवर्णवादी चरित्र के विरोध और उससे निजात पाने के तरीकों पर केन्द्रित हैं। यहां प्रश्न एक भाषा के भीतर जमे बैठे स्त्री और दलित-विरोधी संस्कारों और पुरूषवादी-सवर्णवादी विचारों से मुक्ति का है। एक तरह से ये हिन्दी भाषा की मुक्ति के विमर्श हैं। यह अलग बात है कि कुछ विचारक इन संस्कारों और विचारों के विरोध की बजाय हिन्दी भाषा का ही विरोध करने लगते हैं। ऐसे लोगों के यहां भाषा की मुक्ति की नहीं बल्कि भाषा से मुक्ति की प्रवृत्ति मिलती है।
          चंद्रभान प्रसाद हिन्दी समेत समस्त भारतीय भाषाओं को वर्ण-व्यवस्थावादी चरित्र, सवर्णवादी मानसिकता की वाहिका और भेदभाव की समर्थक मानते हैं। इसी लिए वे भारतीय भाषाओं की जगह अंग्रेजी को दलितों की मुक्ति के लिए अधिक उपयोगी मानते हैं। उन्होंने हाल ही में अंग्रेजी माता के मंदिर की स्थापना का आन्दोलन शुरू किया है। उनकी रणनीति यह है कि दलितों की धार्मिक भावना से जोड़कर अंग्रेजी को उनके बीच शीघ्रता और आसानी से लोकप्रिय बनाया जा सकता है। उनके अस्मितावादी भाषा-विमर्श के प्रमुख बिन्दुओं को वीर भारत तलवार ने व्यवस्थित रूप में इस प्रकार रखा है, ‘‘अब मैं चंद्रभान के इस पक्ष का जिक्र करना चाहता हूं कि हिन्दी एक भाषिक बुराई है। चंद्रभान का यह तर्क है कि कोई भी भाषा अपने समाज के इतिहास, संस्कृति परंपराओं और मूल्यों की भी वाहक होती है। इस दृष्टि से हिन्दी और सभी भारतीय भाषाएं लंबे समय से भारतीय वर्ण-व्यवस्था और जातिप्रथा की संस्कृति और उसके दलित-शूद्र विरोधी मूल्यों से इतनी दूषित हो चुकी हैं कि दलित उन्हें नहीं अपना सकते। इसलिए बेहतर होगा कि ये भाषाएं जल्द से जल्द भारत से गायब हो जाएं। इनकी जगह दलितों को अंग्रेजी भाषा को अपनाना चाहिए जो उन्हें एक ज़्यादा लोकतांत्रिक, आधुनिक और व्यापक अंतर्राष्ट्रीय समाज से जोड़ती है और उनके लिए बौद्धिक विकास का ज़्यादा बड़ा रास्ता खोलती हैं।’’
           दलित अस्मिता की भाषा संबंधी समस्याओं पर चंद्रभान प्रसाद की मान्यताएं भाषा वैज्ञानिक, ऐतिहासिक और जनवादी न होकर प्रतिक्रियावादी, मध्यवर्गीय मानसिकता की उपज और अव्यावहारिक हैं। यह सही है कि भाषा एक ऐसी प्रौद्योगिकी है जो व्यक्ति को समर्थ और सशक्त बनाती है। इससे संपन्न होने से वह न केवल रोजगार प्राप्त कर अपनी आर्थिक और सामाजिक हैसियत बढ़ा सकता है बल्कि इसके माध्यम से सौंदर्य और विचारों का भी सृजन कर सकता है। वह भाषा अगर बाजार, राजनीति और अभिजात्य वर्ग में सम्मानित हो तब यह बात और अधिक लागू होती है। कहने की जरूरत नहीं कि अंग्रेजी भाषा ऐसी ही भाषा है जिसके माध्यम से न केवल आज का करोबार चलता है बल्कि राजनीति और सांस्कृतिक गतिविधियां भी चलती हैं। देश का संभ्रांत तबका इसे अपनी शिक्षा और जीवन व्यवहार का माध्यम बनाकर चल रहा है इसलिए यह भाषा आज उन्नति और इज्जत के जरूरतमंद आदमी या समुदाय के लिए अभिप्रेत है। आज का हर भारतीय अंग्रेजी बोलना और समझना चाहता है। ऐसे में दलित अस्मिता के लिए तो यह वरदान हो सकती है जो पहले से ही उन भाषाओं के जातिवादी और सवर्णवादी चरित्र का शिकार हैं, जिनके माध्यम से उनका काम-काज चलता है। लेकिन, हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं को त्याग देने, अपनी जिन्दगी और मानसिकता से निकाल देने की बात जितनी आकर्षक और मुक्तिदायिनी लगती हैै, उतनी आसान, व्यावहारिक और कल्याणकारी नहीं है।
              दलित अस्मिता की मुक्ति और सर्वांगीण उन्नति के लिए अंग्रेजी की उपयोगिता को खारिज करते हुए और मातृभाषाओं के महत्व को रेखांकित करते हुए तुलसीराम ने यह प्रतिपादित किया है कि अंग्रेजी दलितों के विकास और उनकी शिक्षा में एक बड़ी बाधा है। उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में चंद्रभान प्रसाद की मान्यता का विरोध करते हुए कहा है, ‘‘भविष्य के नष्टकर्ता के रूप में अंग्रेजी का एक रोल है। वो कैरियर नहीं बनाती, बल्कि उसको बिगाड़ देती है: इसीलिए सिक्सटीज के दशक में अंग्रेजी विरोधी आन्दोलन चला। 1966 के आस-पास बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय ने उसे लीड किया था। हम लोग वहां छात्र थे और सभी उसमें शमिल थे। एक वातावरण बना था अंग्रेजी के खिलाफ और कई बोर्ड्स ने अंग्रेजी की शिक्षा को कंपल्सरी के बदले ऑप्सनल कर दिया था। अन्यथा जिस समय अंग्रेजी अनिवार्य होती थी, उत्तर प्रदेश और बिहार मंे हाईस्कूल और इंटरमीडिएट का पासिंग रिजल्ट 30-35 प्रतिशत से अधिक नहीं होता था। इस तरह से देखा जाय तो अंग्रेजी ने लाखों बच्चों का भविष्य अंधकार में डाल दिया। एक पूरी की पूरी पीढ़ी को अंग्रेजी ने बरबाद कर दिया। अगर आजादी के बाद अंग्रेजी के एकूमुलेटेड प्रभाव का अध्ययन किया जाए, तो उजागर होगा कि लाखों-लाख बच्चों का भविष्य आजादी के बाद से अब तक अंग्रेजी ने बरबाद किया है, क्योंकि उसमें फेल हो जाने के बाद बच्चे आगे नहीं पढ़ पाए। यह संख्या करोड़ों तक पहुंचेगी।’’
             भारतेंदु हरिश्चंद्र ने बहुत पहले अपनी एक कविता में कहा था, ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।’ भारतेंदु की इस मान्यता के आलोक में देखें तो चंद्रभान प्रसाद द्वारा सुझाया गया समाधान दलितों के लिए कल्याणकारी होने से अधिक विनाशकारी साबित हो सकता है। आज अंग्रेजी भारतीय समाज की सबसे बड़ी आकांक्षा है, बिना इस बात की ंिचंता किए कि यह आकांक्षा पालना कितना फायदेमंद और कितना नुकसानदेह हो सकता है। आज सभी, सवर्ण, स्त्रियां, आदिवासी, दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक अंग्रेजी की ओर भाग रहे हैं। भारतेंदु की उक्त सलाह को ध्यान में रखे बिना। यह सलाह केवल दलितों को या किसी एक समुदाय विशेष को नहीं दी जा सकती कि वे अंग्रेजी न सीखें, आज उनके लिए भी अंग्रेजी वैसी ही आकर्षक और जरूरी है, जैसी सवर्णों के लिए। लेकिन चाहे सवर्ण हों या दलित, किसी को भी अपनी मातृभाषा छोड़ने और कोई परायी भाषा के नियम या विचार से बांधना खतरनाक और अस्वाभाविक है। भाषा संस्कृति और परंपरा का पर्याय है। मातृभाषा त्यागने का अर्थ है सामूहिक रूप से अपनी संस्कृति और हजारों साल के अनुभव, स्मृतियांे और इतिहास से विच्छेद। हर तरीके से अपनी जड़ों से कटकर दुनिया की एक दिशाहीन और दोयम दर्जे की नागरिकता पा लेना, जो किसी भी कौम के लिए बहुत खतरनाक बात है, लगभग सामूहिक आत्महत्या करने जैसी खतरनाक बात। दुनिया भर के भाषावैज्ञानिकों और संस्कृति के अध्येताओं ने मातृभाषा को किसी मनुष्य या समुदाय के लिए सबसे उपयुक्त और लाभकारी भाषा माना है। उसके माध्यम से ज्ञान-विज्ञान और साहित्य तथा कला में जैसी उन्नति की जा सकती है वैसी किसी परायी भाषा में नहीं। आज भी अंग्रेजी की शिक्षा और जानकारी प्राप्त करना आर्थिक रूप से सक्षम और सामाजिक रूप से उच्चतर तबके की पहंुच में है। स्कूलों के माध्यम से जो थोड़ी-बहुत अंग्रेजी की जानकारी ग्रामीण किसानों, मजदूरों, दलितों और आदिवासियों को मिल पाती है उससे वे उसमें काम-काज या अभिव्यक्ति करने के काबिल नहीं हो पाते। यही बात अधिकांश छोटे शहरों के बारे में भी सही है। इसके अलावा जिनकी अंग्रेजी अच्छी समझी जाती है उनमें से भी अधिकांश लोग उसमें न कुछ गंभीर चीज लिख सकते हैं और न ही केवल उससे उनका जीवन और शिक्षा का काम पूरा हो सकता है। अंग्रेजी सीखने की और उसमें अपना जीवन चलाने की सुविधा केवल मुट्ठीभर उच्च वर्ग को प्राप्त है। ये भी अपने समग्र सांस्कृतिक विकास के लिए अपनी-अपनी मातृभाषाओं का सहारा लेते हैं। मातृभाषाओं से कट कर वे भी अधूरे रह जाएंगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि अंग्रेजी आज भी सांस्कृतिक रूप से परायी भाषा है। ऐसी परायी भाषा के माध्यम से कोई भी व्यक्ति या समुदाय अपना समग्र विकास नहीं कर सकता है- ऐसा प्रकृति और संस्कृति का नियम है; अगर वह अपनी मातृभाषा का पूर्णतः बहिष्कार कर देता है।
             जिस तरह की बात चंद्रभान प्रसाद ने सुझायी है उस तरह की बात दुनिया के किसी समाज के बारे में लागू हुई है, कह पाना बहुत मुश्किल है। कोई व्यक्ति अपनी भाषा, जिसने उसे बोलना, सोचना और समझना सिखाया, जिसने उसे दुनिया की समझ दी, को अचानक छोड़कर दूसरी भाषा को अपना ले और अपना पूरा जीवन उसी में जीने लगे; यह बात काल्पनिक है। व्यावहारिक स्तर पर यह संभव नहीं है। वीर भारत तलवार ने ठीक ही लिखा है, ‘‘भाषाओं को उस तरह से छोड़ा या अपनाया नहीं जा सकता जिसकी मांग चंद्रभान प्रसाद करते हैं। भाषाओं पर इतिहास, संस्कृति और परंपराओं की छाप जरूर होती है लेकिन इनमें होने वाले विकास और बदलावों के साथ-साथ भाषा का स्वरूप और चरित्र भी बदलता जाता है। इसलिए सवाल इन भाषाओं को छोड़ देने का नहीं है, बल्कि समाज में उस संस्कृति और उन प्रथाओं के खि़लाफ़ लड़ने का है जो इन भाषाओं के स्वरूप पर अपनी छाप छोड़ती हैं।’’ कहने की जरूरत नहीं कि आज भी दलितों की मुक्ति और उनके सशक्तीकरण का माध्यम उनकी मातृभाषाएं हैं। उनकी सामूहिक मुक्ति के लिए मातृभाषाओं और भारतीय प्रांतीय भाषाओं को समृद्ध किया जाना सबसे आवश्यक और स्वाभाविक है। यही सबसे व्यावहारिक भी है। इन भाषाओं के माध्यम से जब वे अपना थोड़ा विकास कर लेंगे, तब वैसे ही स्वाभाविक रूप से अंग्रेजी सीख लेंगे जैसे कि अन्य समुदायों का विकसित और विकासशील व्यक्ति कर लेता है।
           हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं का जातिवादी चरित्र और सवर्णवादी मानसिकता तथा शब्दावली जगजाहिर है। भाषा की यह समस्या आम तौर पर उन लेखकों के साथ है जो सवर्णवादी मानसिकता के लेखक हैं। ऐसे लेखक या तो जानबूझकर ऐसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं या फिर अनजाने ही उनके जातिवादी-सवर्णवादी-पुरूषवादी संस्कार भाषा में आ जाते हैं। इसके अतिरिक्त लोक-जीवन में भी भाषा का जातिवादी चरित्र सामने आता है। यह समस्या भी सवर्ण या गैर दलित लोक के साथ है। भाषा की ये समस्याएं धीरे-धीरे दूर हो रही हैं और जो बची हुई हैं, उन्हें आसानी से दूर किया जा सकता है- आन्दोलन और जागरूकता फैलाकर। लेकिन, दलित अस्मिता की भाषा समस्या पर विचार करते हुए इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि दलितों की अभिव्यक्ति और रचना की लम्बी और सबल-समृद्ध परंपरा रही है। उन सब में जहां-जहां दलित-अस्मिता की चेतना है वहां-वहां भाषा का चरित्र दलित विरोधी न होकर जातिवाद विरोधी अथवा वर्णव्यवस्था विरोधी है। उदाहरण के लिए कबीर की भाषा को लिया जा सकता है। उसमें उन शब्दों और अवधारणाओं का प्रयोग मिलता है जो ब्राम्हणवादी लगती हैं, लेकिन उन्होंने उनका अर्थ बदल दिया है और वे पूरी तरह से जातिनिरपेक्ष हो गयी हैं। इसका एक रोचक उदाहरण है- ‘राम’ शब्द या संज्ञा, जो कबीर के यहां वही नहीं है जो सगुण कवियों के यहां हैं। इससे यह पता चलता है कि जब सामाजिक संरचना बदल जाएगी तो भाषा का चरित्र और अर्थ भी बदल जाएगा, क्योंकि शब्दों का अर्थ बहुत कुछ संदर्भ पर निर्भर करता है कि उनका प्रयोग किस संदर्भ में किया गया है।
            यह बात भी ध्यान में रखने लायक है कि दलितों की अपनी लम्बी भाषा-परंपरा है। लोक-भाषाओं में अभिव्यक्ति की यह परंपरा पुराने जमाने से चली आ रही है जिसे दलितों की भाषा कह सकते हैं। ये अभिव्यक्तियां मोटे तौर पर दलित-चेतना की अभिव्यक्तियां हैं इसलिए इसमें सवर्णों की भाषा की बुराइयां नहीं के बराबर हैं। दलित अस्मिता भाषा की अपनी समस्या का समाधान अभिव्यक्ति की इन पुरानी परंपराओं से अपने को जोड़कर कर सकती है। जब हम विभिन्न भारतीय भाषाओं में दलित साहित्य के उभार और उसकी परंपरा को देखते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि दलितों ने अपनी अस्मिता की भाषा समस्या को काफी हद तक सुलझा लिया है। आज दलित लेखकों और आलोचकों की भाषा ने हिन्दी को एक जातिनिरपेक्ष भाषा बनने में काफी मदद की है। डॉ0 धर्मवीर की आलोचना पुस्तक ‘हिन्दी की आत्मा’ ने भाषावैज्ञानिक स्तर पर दलित-दृष्टिकोण से हिन्दी भाषा के विकास में सराहनीय योगदान दिया है। इसके बाद भी अगर दलितों को उनकी अपनी मातृभाषा को छोड़कर अंग्रेजी को अपनाने के लिए आन्दोलित किया जा रहा है, तो इसे पोली दीवार पर पलस्तर लगाने से अधिक कुछ नहीं माना जा सकता है। रामविलास शर्मा के शब्दों में, ‘‘अंग्रेजी अवश्य एक समृद्ध भाषा है। शेक्सपियर, मिल्टन और डार्विन जैसे मनीषियों ने उसमें अपनी रचनाएं की हैं। यही भाषा इंगलैंड में बोली जाती है, संयुक्त राष्ट्र अमरीका, कनाडा, और दक्षिण अफ्रीका में, न्यूजीलैंड और आस्टेªलिया में और भारत जैसे ब्रिटेन के भूतपूर्व उपनिवेशों में-  कुछ शिक्षित जनों द्वारा- बोली जाती है। इन सब देशों की औद्योगिक और वैज्ञानिक प्रगति एक सी नहीं है। मुख्य बात है सामाजिक संगठन, सामाजिक विकास की मंजिल। नीचे से दीवाल पोली हो तो अंग्रेजी का पलस्तर लगाने से दीवाल इमारत मजबूत थोड़ी ही हो जाती है।’’
              जिस प्रकार दलित अस्मिता-विमर्श ने हिन्दी भाषा के दलित-विरोधी और सवर्णवादी चरित्र की पहचान की और विरोध किया है, उसी प्रकार स्त्रीवादी अस्मिता-विमर्श ने भी हिन्दी के पुरूषवादी और स्त्री-विरोधी चरित्र की पहचान और उसका विरोध किया है। जैसे दलित-अस्मिता के विमर्शकारों की चिंता अपनी अभिव्यक्ति और आत्म-बोध को संपूर्ण बनाने वाली भाषा की तलाश है वैसे ही स्त्रीवादी विमर्शकारों को भी है। एक जातिनिरपेक्ष भाषा के बिना जैसे दलित-मुक्ति संभव नहीं है वैसे ही लिंगनिरपेक्ष भाषा के बिना स्त्री-मुक्ति संभव नहीं है क्योंकि भाषा ही किसी व्यक्ति या समुदाय की अस्मिता की सबसे बड़ी पहचान है। ऐसे में अगर वही उसकी पहचान को अधूरी और अपमानित रूप में पेश करती है तो भेद-भावों से उसकी मुक्ति आवश्यक हो जाती है। इसी आवश्यकता को महसूस करते हुए स्त्रीवाद ने स्त्री-भाषा की अवधारणा पेश की है।
                मैनेजर पाण्डेय ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है, ‘‘सारी दुनिया में भाषाओं के निर्माण, विकास और संरक्षण का काम सबसे ज्यादा स्त्रियों ने किया है। ... यह अकारण नहीं है कि दुनिया में भाषाओं को केवल मातृभाषा कहा जाता है, कहीं पितृभाषा नहीं कहा जाता है।’’ यह बिडम्बना ही है कि मातृभाषाओं में पितृसत्ता की राजनीति हावी रही। नाम तो उसका मातृभाषा है, लेकिन सेवा वे पितृसत्ता की करती रहीं। मातृभाषा में पितृसत्ता की राजनीति कब और किस प्रकार आई; इस बात की पहचान और खोज स्त्री अस्मितावादी भाषा-विमर्श का प्रमुख विषय है। इसी लिए स्त्री-विमर्श जिन विषयों पर ध्यान केंद्रित करता है, उनमें भाषा प्रमुख है। स्त्री-अस्मिता भाषा के प्रश्न को लेकर जिस प्रकार गंभीर और सजग है, उससे अस्मिता-विमर्श और भाषा के संबंध का पता चलता है। अनामिका स्त्री-भाषा के स्वरूप और पुरूष-भाषा से उसकी भिन्नता को रेखांकित करती हुई लिखती हैं, ‘‘औरतों की भाषा का एक अलग मिजाज है जिसे कैनन में प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए। कैथरीन आर. सिम्पसन इसे बड़े कायदे से ‘भाषा की उछाल और उल्लास’ कहती हैं। पुरूष की ‘लिबिडल इकोनॉमी’ का बीज-शब्द है ‘संपत्ति’ और स्त्री की ‘लिबिडल इकोनॉमी’ का बीज-शब्द ‘उपहार’, एक ऐसा अवदान जिसका दाम वसूलने की कोशिश कभी की ही न जाए, इसलिए उसमें ऐसा बहुत कुछ वंचित रह जाता है जिसे उच्छल अभिव्यक्ति की आवश्यकता होती है।’’
                  स्त्रीवादी भाषा विमर्श ने इस बात को रेखांकित किया है कि, दुनिया की सभी भाषाएं पुरूषवादी हैं। ये पुरूषवादी भाषाएं स्त्रियों के आत्मबोध और जगद्बोध को खंडित और अधूरा बनाती हैं। इनके प्रयोग से कभी वे अपनी अस्मिता और अस्तित्व की खोज नहीं कर सकती हैं। स्त्रीवादियों ने इस बात को स्थापित किया है कि पुरूषों की भाषाओं ने स्त्रियों की अपनी भाषिक विशेषताओं का जान-बूझ कर दमन किया है। पुरूषों की भाषा स्त्रियों की भाषा की विशिष्टता और भिन्नता को खारिज करती है और उनके साथ भाषिक न्याय करने की बजाय अपने वर्चस्व को स्थापित करती हैं। इसलिए पुरूष-भाषा स्त्रियों के लिए समग्र और सामान्य भाषा नहीं हो सकती है। पश्चिमी स्त्रीवादी इरीगैरी के हवाले से अर्चना वर्मा इस तथ्य को रेखांकित करती हुई लिखती हैं, ‘‘इरीगैरी का मानना है कि मर्दानी भाषा का इस्तेमाल करती हुई स्त्री आत्मबोध में अधूरी और खंडित रह जाती है। मर्दानी भाषा की जो एकरूपता, एकोन्मुखता, समरूपता है वह भिन्नता के दमन से निकली है अतः वह समानता और समग्रता की पर्यायवाची नहीं हैं।’’
इरीगैरी के हवाले से पुरूष-भाषा के लैंगिक भेदभाव तथा स्त्री और पुरूष भाषाओं के अंतरों को रेखांकित करती हुई अर्चना वर्मा ने लिखा है, ‘‘इरीगरी के अनुसार स्त्री की कामना अभाव से नहीं, अतिशय से फूटती है। पुरूष की भाषा उसकी यौनिकता का सदृश बुद्धिप्रधान, प्रत्यक्ष, रैखिक और ऐकिक है। वह व्याकरण के साफ-सुथरे चौखटों में बंधी, स्पष्ट और एकायामी है, प्रत्यक्षतः सुव्यवस्थित किंतु दमनशील सांस्थानिकता के स्वभाव की तरह। स्त्री की यौनिकता पुरूष के लिंगाधारित एकोन्मुखी विस्फोट से भिन्न; स्पर्शजन्य और बहुकेन्द्रिक है। भिन्नताओं की स्वीकृति और समायोजन में समर्थ बहुन्मुखता स्त्री-स्वभाव का मूल है। स्त्री और स्त्रीत्व की भाषा का स्वभाव भी यही है। वह व्याकरण का उल्लंघन और संप्रेषण के नियमों का अतिक्रमण करके अपनी अंतरंग लय खोजती है। वह अर्थ की अनेक दिशाओं में एक साथ प्रस्थान करती है। पुरूष के लिए अर्थ के विषय मे वह प्रायः अस्पष्ट और अनिश्चित साबित होती है। यह भाषा ‘निर्बुद्धि’ नहीं, लेकिन एक भिन्न प्रकार से बौद्धिक या फिर बौद्धिकता से परे है; तर्कहीन नहीं, किंतु परिचित अर्थों से अवश्य तर्कातीत; पदानुक्रम-प्रतिरोधी और वृत्तात्मक होती है।‘‘
               हिन्दी के भाषाशास्त्रीय चिंतन में स्त्रियोें की भाषिक समस्याओं को महत्व नहीं दिया गया है। इसलिए आज भी स्त्रियों की भाषा का मूल्यांकन पुरूषों के भाषिक मानदंडों के आधार पर होता है। जब स्त्री लेखन की भाषा पुरूषों से भिन्न है तब उसके अध्ययन के लिए भी पुरूषवादी भाषिक मानदंड बेकार साबित हो जाते हैं। इसलिए पुरूषों को स्त्री साहित्य का अध्ययन करने के लिए अपने भाषिक मानदंडों को बदलना पडे़गा। स्त्रियों की भाषा की पुरूषों की भाषा से भिन्नता को रेखांकित करते हुए और स्त्री-पुरूष भाषाओं के लिए अलग-अलग मानदंडों की बात को उठाते हुए जगदीश्वर चतुर्वेदी ने ठीक ही लिखा है, ‘‘स्त्रियों की कृतियों को पढ़ते समय भिन्न किस्म की भाषिक संरचना और पठन शैली की जरूरत होती है। स्त्री भाषा को आमतौर पर पुरूष भाषा के मानदंडों से ही देखा गया है। दूसरी महत्पूर्ण बात यह है कि हमने कभी महसूस ही नहीं किया कि हमारी भाषाशास्त्रीय सैद्धांतिकी लिंगभेदीय पूर्वग्रहों से ग्रस्त है। फलतः पुरूष की भाषा को स्त्री भाषा का आदर्श बताया गया। स्त्री की भाषा पुरूष की भाषा से भिन्न हो सकती है? या है? यह प्रश्न आज साहित्य समीक्षा में सबसे ज्यादा विवादास्पद है। स्त्री की भाषा पुरूष की भाषा से एकदम भिन्न होती है अतः उसके मानदंड भी भिन्न होंगे स्त्री भाषा को निर्धारित करने वाले तत्व सिर्फ ‘‘पाठ’’ में ही नहीं होते बल्कि ‘‘पाठ’’ से बाहर भी होते हैं।’’
बीसवीं सदी के अंतिम दशक में दलित और स्त्री अस्मितावादी विमर्शों के अलावा हिन्दू अस्मिता-विमर्श और उसकी राजनीति काफी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराती है। दलित और स्त्री अस्मितावादी विमर्श ने जहां हिन्दी भाषा से जातिवादी-लिंगवादी भेदभावों और सवर्णवादी-पितृसत्तावादी विचारों और संस्कारों को समाप्त करने का काम करता है वहीं हिन्दूवादी अस्मिता-विमर्श भाषा की चेतना और उसकी सार्थकता को नष्ट करने का काम करता है। हिन्दूवादी अस्मिता के भाषा-विमर्श को यों तो ‘हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान’ के पुराने नारे से जोड़ कर समझा जा सकता है, लेकिन बीसवीं सदी के अंतिम दशक में हिन्दूवादी अस्मिता-विमर्श और उसकी राजनीति ने भाषा का वैसा विमर्श कभी प्रस्तुत ही नहीं किया जैसा दलित और स्त्री अस्मिताओं ने किया। हिन्दूवादी अस्मिता की राजनीति ने धर्म, धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता, धार्मिक सहिष्णुता, परंपरा, संस्कृति, हिन्दू जैसे शब्दों के अर्थ को या तो नष्ट करने किया या फिर अस्थिर कर दिया। हिन्दूवादी राजनीति के भाषाई व्यवहार ने यह दिखा दिया है कि अस्मिता-विमर्श हरहाल में भाषा से जुड़े होते हैं और उनको प्रभावित करते हैं। 
(यात्रा-7 से)


सोमवार, 23 दिसंबर 2013

महात्मा गांधी का ‘हिंद स्वराज’

 -विपिन कुमार शर्मा
          ‘हिंद स्वराज्य’ महात्मा गाँधी के विचारों का सार माना जाता है। इसे गाँधी ने सन् 1909 में लंदन से लौटते हुए जहाज पर लिखा था। मूल किताब गुजराती मंे लिखी गई थी जिसका बाद में गाँधी ने स्वयं अंग्रेजी में अनुवाद किया था। मूल पुस्तक प्रकाशन के तुरंत बाद ही भारत की अंग्रेजी सरकार के द्वारा जब्त कर ली गई थी। इसके बाद गाँधी ने अंग्रेजी अनुवाद को यथाशीघ्र प्रकाशित करना आवश्यक समझा।1 गाँधी इस पुस्तक के जब्त होने से आश्चर्यचकित थे। उनकी राय में तो यह किताब एक बालक के हाथ में भी दी जा सकती थी, क्योंकि वह द्वेष-धर्म की जगह प्रेम-धर्म सिखाती है; हिंसा की जगह आत्मबलिदान को रखती है, पशुबल से टक्कर लेने हेतु आत्मबल को खड़ा करती है।2 अंग्रेजी अनुवाद की भूमिका में गाँधी ने लिखा भी है कि ‘‘मुझे पता नहीं कि ‘हिंद स्वराज’ पुस्तक भारत में जब्त क्यों कर ली गई? मेरी दृष्टि में तो यह जब्ती ब्रिटिश सरकार जिस सभ्यता का प्रतिनिधित्व करती है उसके निन्द्य होने का अतिरिक्त प्रमाण है। इस पुस्तक में हिंसा का तनिक-सा भी समर्थन कहीं किसी रूप में नहीं है। हाँ, उसमें ब्रिटिश सरकार के तौर-तरीकों की जरूर कड़ी निंदा की गई है। अगर मैं यह न करता तो मैं सत्य का, भारत का और जिस साम्राज्य के प्रति वफादार हूँ उसका द्रोही बनता।’’3
       यह पुस्तक, जैसा कि उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है, प्रारंभ से लेकर आज तक इतिहासकारों और राजनीतिज्ञों के बीच वाद-विवाद के केन्द्र में रही है। कुछ विद्वानों ने इसे बहुत गंभीरता से लिया तो कुछ ने इसे गाँधीवादी सामाजिक कल्पनालोक, अयथार्थवादी पोंगापंथी तक कहा है।4 किन्तु आज भी जब एक वैकल्पिक व्यवस्था की बात की जाती है तो गाँधी के ‘स्वराज्य’ पर बहस जरूर होती है।
          यह पुस्तक पाठक और संपादक के बीच वार्तालाप की रोचक शैली में लिखी गई है। संपादक तो निस्संदेह महात्मा गाँधी हैं। पाठक कौन है इसकी पड़ताल गाँधी के इस कथन में की जा सकती है- ‘‘1909 में लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए जहाज पर हिंदुस्तानियों के हिंसावादी पंथ को और उसी विचारधारा वाले दक्षिण अफ्रीका के एक वर्ग को दिए ज़वाब के रूप में यह लिखी गई थी। लंदन में रहनेवाले एक नामी अराजकतावादी हिंदुस्तानी के संपर्क में मैं आया था। उनकी शूरवीरता का असर मेरे मन पर पड़ा था, लेकिन मुझे लगा कि उनके जोश ने उलटी राह पकड़ ली है।’’5 इस आधार पर कहा जा सकता है कि पाठक-संपादक वार्तालाप का अज्ञात पाठक ‘नामी अराजकतावादी हिंदुस्तानी शूरवीर’ वीर सावरकर थे जो उन दिनों लंदन में रह रहे थे, और जिन पर आगे चलकर ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध द्रोह के जुर्म में मुकदमा चलाया गया और उम्र कैद की सजा दी गई।6
        इस पुस्तक में कुल बीस अध्याय हैं जिसमें से महत्वपूर्ण बातों पर चर्चा करना उपयोगी होगा। ‘हिंद स्वराज्य’ में संकलित सन् 1921 ई. में लिखी गई भूमिका में गाँधी जी लिखते हैं कि ‘‘लेकिन मैं पाठकों को एक चेतावनी देना चाहता हूँ। वे ऐसा न मान लें कि इस किताब में जिस स्वराज्य की तस्वीर मैंने खड़ी की है, वैसा स्वराज्य कायम करने के लिए आज मेरी कोशिशें चल रही हैं। मैं जानता हूँ कि अभी हिंदुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है। ऐसा कहने में शायद ढिठाई का भास हो, लेकिन मुझे पक्का विश्वास है कि इसमें जिस स्वराज्य की तस्वीर मैंने खींची है, वैसा स्वराज्य पाने की मेरी निजी कोशिश जरूर चल रही है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आज मेरी सामूहिक प्रवृत्ति का ध्येय तो हिंदुस्तान की प्रजा की इच्छा के मुताबिक पार्लियामेंटरी ढंग का स्वराज्य पाना है।’’7
        तात्पर्य यह कि सन् 1921 में गाँधी भी अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज्य’ को राजनीतिक स्वराज्य के एक मॉडल के रूप में मानने से इंकार करते हैं। गाँधी के विचारों में लगातार परिवर्तन दिखाई देता है, क्योंकि वे ‘सत्य के साथ प्रयोग’ कर रहे थे, जड़ नहीं हो गए थे। बाद के वर्षों में गाँधी ने बार-बार दुहाराया है कि मेरी पिछली बातों पर हाल में कही बातों को तरजीह दी जाय। इस संदर्भ में कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं। गाँधी के आलोचकों ने जब उन पर अपने वैचारिक आग्रहों से विचलित होने का आरोप लगाया तो 1938 में उन्होंने कहा- ‘‘मेरे हाल के लेखनों को पहले कही बातों और किए गए कार्यों को निरस्त करता हुआ देखा जाना चाहिए। यद्यपि मेरे शरीर का आयु बढ़ने के साथ अपकर्ष हो रहा है, किन्तु मैं आशा करता हूँ कि अपकर्षण का कोई ऐसा नियम विवेक के विरूद्ध क्रियाशील नहीं है जिस पर मेरा विश्वास है कि उसका न केवल अपकर्षण होता है अपितु वह हमेशा बढ़ता रहता है।’’8
29 अप्रैल 1933 के ‘हरिजन’-3 में गाँधी ने लिखा था कि ‘‘सत्य की अपनी तलाश में मैंने बहुत से विचारों का त्याग किया है और कई चीजें सीखीं हैं....और इसीलिए यदि किसी को मेरे दो लेखनों मे विसंगति लगती है और उसे मेरे मानसिक संतुलन में विश्वास है तो वह उसी विषय पर मेरे बाद के लेखन को चुने।’’9
गाँधी की उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखें तो ‘हिंद स्वराज’ में जो स्वराज्य की अवधारणा है उसकी तलाश ‘हिंद स्वराज’ से बाहर जाकर करना आवश्यक हो जाता है।
        गाँधी बार-बार इस बात पर जोर देते हैं कि भारत से अंग्रेजों का चला जाना स्वराज्य मिलना नहीं है बल्कि भारत से अंग्रेजी व्यवस्था और सभ्यता को खत्म करके स्वराज्य प्राप्त किया जा सकता है। वार्तालाप के क्रम में स्वराज्य की रूपरेखा बताते हुए ‘पाठक’ कहता है कि ‘‘उन लोगों के जितनी (कैनेडा और बोअर लोगों को जो राजसत्ता मिली है) सत्ता जब अंग्रेज हमें देंगे तब हम अपना ही झंडा रखेंगे। जैसा जापान वैसा हिंदुस्तान। अपना जंगी बेड़ा, अपनी फौज और अपनी जाहोजलाली होगी। और तभी हिंदुस्तान का सारी दुनिया में बोलबाला होगा।’’10 इसके उत्तर में संपादक (गाँधी) कहता है- ‘‘इसका अर्थ तो यह हुआ कि हमें अंग्रेजी राज्य तो चाहिए, पर अंग्रेज (शासक) नहीं चाहिए। आप बाघ का स्वभाव तो चाहते हैं, लेकिन बाघ नहीं चाहते। मतलब यह हुआ कि आप हिंदुस्तान को अंग्रेज बनाना चाहते हैं। और हिंदुस्तान जब अंग्रेज बन जायगा तब वह हिंदुस्तान नहीं कहा जायेगा, लेकिन सच्चा इंग्लिस्तान कहा जायगा। यह मेरी कल्पना का स्वराज्य नहीं है।’’11
        गाँधी की कल्पना का स्वराज्य क्या है, इसे समझने से पहले ध्यान रखना होगा कि गाँधी दो स्तरों पर स्वराज्य की बात करते हैं- प्रथम तो आध्यात्मिक स्वराज्य की बात और दूसरे राजनीतिक स्वराज्य की बात। गाँधी के आध्यात्मिक स्वराज्य का अर्थ है व्यक्ति का स्वयं पर अर्थात् अपने मन पर नियंत्रण रखना। दूसरे शब्दों में कहें तो आत्मिक उन्नति प्राप्त करना। पश्चिमी सभ्यता के भारत में प्रसार की वजह से भारत की सभ्यता और संस्कृति दूषित हो गई थी, यहाँ के नागरिक सुविधाआंे के वश में हो गए थे और भोग-विलास तथा आनंद की प्राप्ति ही जीवन का प्रमुख लक्ष्य हो गया था। अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से अंग्रेजी संस्कृति हमारे मन को गुलाम बनाती जा रही थी और गाँधी इसे ही परतंत्रता का प्रमुख कारक मानते थे। उन्होंने लिखा है कि- ‘‘...सारा हिंदुस्तान उसमें (गुलामी में) घिरा हुआ नहीं है। जिन्होंने पश्चिम की शिक्षा पाई है और जो उसके पाश में फंस गए हैं, वे ही गुलामी में घिरे हुए हैं। हम जगत को अपनी दमड़ी के नाप से नापते हैं। अगर हम गुलाम हैं, तो जगत को भी गुलाम मान लेते हैं। ....हम अपने ऊपर राज करें वही स्वराज्य है; और वह स्वराज्य हमारी हथेली में है।’’12
         एक ओर तो गाँधी स्वराज्य की अवधारणा को अध्यात्म से जोड़कर अमूर्त कर देते हैं तथा दूसरी ओर उसे धर्म अथवा ‘रामराज्य’ से जोड़कर भी विवादस्पद बना देते हैं। इसी ‘रामराज्य’ की अवधारणा के कारण गाँधी को बार-बार बताना भी पड़ा था कि रामराज्य से उनका तात्पर्य क्या है। फिर भी मुस्लिम जनता का रामराज्य से तादात्म्य बिठा पाना मुमकिन नहीं हो सका। गाँधी ‘हिन्दी नवजीवन’ के 20 मार्च 1930 के ‘स्वराज्य और रामराज्य’ शीर्षक लेख में लिखते हैं कि ‘‘स्वराज्य के कितने ही अर्थ क्यों न किए जाएँ, मैं भी उसके कितने ही अर्थ क्यों न बताता रहा हूँ, तो भी मेरे नजदीक तो उसका त्रिकाल-सत्य एक ही अर्थ है, और वह है रामराज्य। यदि किसी को रामराज्य शब्द बुरा लगे तो मैं उसे धर्मराज्य कहूँगा। रामराज्य शब्द का भावार्थ यह है कि उसमें गरीबों की संपूर्ण रक्षा होगाी, सब कार्य धर्मपूर्वक किए जायेंगे और लोकमत का हमेशा आदर किया जाएगा।”13
        इसी प्रकार स्वराज्य की परिभाषा के अंतर्गत व्यावहारिक नीति-शास्त्र को समेटते हुए गाँधी कहते हैं कि ‘‘स्वराज्य का वास्तविक अर्थ है- अपने ऊपर काबू रख सकना। यह वही मनुष्य कर सकता है जो स्वयं नीति का पालन करता है, दूसरों को धोखा नहीं देता, माता-पिता, स्त्री-बच्चे, नौकर-चाकर, पड़ोसी सबके प्रति अपने कर्तव्य का पालन करता है। ऐसा मनुष्य चाहे जिस देश में हो फिर भी स्वराज्य ही भोग रहा है। जिस राष्ट्र में ऐसे मनुष्यों की संख्या अधिक हो उसे स्वराज्य मिला हुआ ही समझना चाहिए।’’14
      गाँधी ने हमेशा ही त्याग और आत्मबलिदान पर बल दिया। वे हिंसा का रास्ता अपनाकर आजादी नहीं प्राप्त करना चाहते थे। साधन की शुद्धता पर वे बहुत जोर देते थे। उन्हें पूरा विश्वास था कि शस्त्र-बल से मिली आजादी आम जनता के हित में कतई नहीं होगी। जो शस्त्र के बूते पर आजादी हासिल करेगा वह अपनी बात मनवाने के लिए जनता के ऊपर भी उसी शस्त्र का प्रयोग करेगा।15 गाँधी ने लिखा है कि ‘‘मैं जिस स्वराज्य की कल्पना करता हूँ वह दूसरों की हत्या और रक्तपात का परिणाम नहीं, बल्कि अनवरत आत्म-बलिदान के स्वेच्छा-प्रेरित कार्य का ही परिणाम होगा। वह रक्तपात करके अधिकारों को बलात् छीन लेने का परिणाम नहीं होगा, वह तो ठीक ढंग से और सच्चे अर्थों में कर्तव्य के पालन का स्वाभाविक सुफल होगा। इसलिए ऐसे स्वराज्य को पाने के प्रयत्न में नीरो के ढंग का नहीं, बल्कि चैतन्य महाप्रभु के ढंग का पर्याप्त रस भी मिलेगा।” 16 इसके साथ-साथ गाँधी का ध्यान इस ओर भी था कि ‘‘हिंदुस्तान ने शस्त्र युद्ध द्वारा अगर स्वतंत्रता प्राप्त की तो दुनिया में सच्ची शांति की स्थापना का दिन अनिश्चित काल तक के लिए टल जाएगा।’’17 ‘पूर्ण स्वराज्य क्यों’ शीर्षक अपने छोटे से लेख में गाँधी ने लिखा है कि ”...स्वराज्य प्राप्ति का अर्थ है सब कठिनाइयों पर विजय पाना।’’18
       गाँधी के स्वराज्य की व्याख्या महज राजनीतिक स्वाधीनता तक ही सीमित नहीं थी बल्कि उसके दायरे में जीवन का हर क्षेत्र आता था। गाँधी ’हिंद स्वराज’ में ही एक जगह लिखते हैं कि ‘‘स्वराज्य तो सबको अपने लिए पाना चाहिए- और सबको उसे अपना बनाना चाहिए। दूसरे लोग जो स्वराज्य दिला दें वह स्वराज्य नहीं है, बल्कि परराज्य है। इसलिए सिर्फ अंग्रेजों को बाहर निकाला कि आपने स्वराज्य पा लिया, ऐसा अगर आप मानते हैं तो वह ठीक नहीं है।’’19
     जिस प्रकार मानव की मुक्ति के लिए भगवान बुद्ध ने तीन सूत्र दिए थे (संसार में दुख है, दुख का कारण है, निवारण हेतु आष्टांगिक मार्ग....); ठीक उसी शैली में महात्मा गाँधी तीन सूत्र देते हैं-
1. अपने मन का राज्य स्वराज्य है।   
2. उसकी कुंजी सत्याग्रह, आत्मबल या करुणा-बल है।
3. उस बल को आजमाने के लिए स्वदेशी को पूरी तरह अपनाने की जरूरत है।20
इस प्रकार देखा जा सकता है कि गाँधी दो अलग-अलग स्वराज्य की बात करते हैं- आध्यात्मिक स्वराज्य और राजनीतिक स्वराज्य। आध्यात्मिक स्वराज्य की बात जब गाँधी करते हैं तो ज्यादातर उसमें नीति और व्यवहार की बातें आ जाती हैं, कुछ आत्मसंयम और आत्मोन्नति की बातें होती हैं तथा कुछ वे बातें भी आ जाती हैं जिसकी चर्चा वे राजनीतिक स्वराज्य के अंतर्गत भी करते हैं। जैसे पश्चिमी सभ्यता और पश्चिमी शिक्षा को वे सभ्यता और संस्कृति से भी जोड़ते हैं तथा राजनीतिक परतंत्रता से भी। किन्तु जब राजनीतिक स्वराज्य की बात वे करते हैं तो बातें ठोस धरातल पर होती हैं, हालाँकि बाद की बातों से जोड़ने पर उनमें अंतर्विरोध दिख जाता है।
        राजनीतिक स्वतंत्रता के अर्थ में स्वराज्य गाँधी की कोई अमूर्त कल्पना नहीं थी बल्कि वह यथार्थ की सख़्त जमीन पर सोची-समझी नीति थी। ‘‘स्वराज्य की व्याख्या’’ शीर्षक लेख में सन् 1921 में गाँधी लिखते हैं- ‘‘...स्वराज्य का अर्थ है- देश के आयात और निर्यात पर, सेना और अदालतों पर जनता का पूरा नियंत्रण। ...स्वराज्य का अर्थ है अन्न-वस्त्र की बहुतायत। परंतु वह इतनी होनी चाहिए कि किसी को भी उसके बिना भूखा और नंगा न रहना पड़े। ...स्वराज्य का अर्थ है- ऐसी स्थिति जिसमें एक बालिका भी घोर अंधकार में निर्भयता के साथ घूम-फिर सके। ...स्वराज्य का अर्थ होगा अन्त्यजों के प्रति अस्पृश्यता की भावना का सर्वथा लोप, ब्राह्मणों और अब्राह्मणों के झगड़े की समाप्ति तथा हिंदू-मुसलमान के मनोमालिन्य का सर्वथा नाश। ...स्वराज्य का अर्थ है- हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी, यहूदी सभी धर्मों के लोग अपने-अपने धर्म का पालन कर सकें और ऐसा करते हुए एक-दूसरे की रक्षा और एक-दूसरे के धर्म का आदर करें। स्वराज्य का अर्थ है प्रत्येक ग्राम चोरों और डाकुओं के भय से अपनी रक्षा करने में समर्थ हो जाये और प्रत्येक ग्राम अपने लिए आवश्यक अन्न-वस्त्र पैदा करे। स्वराज्य का अर्थ है- देशी राज्यों, जमींदारों और प्रजा में मित्र भाव रहे, देशी राज्य अथवा जमींदार प्रजा को परेशान न करे और रियाया राजा, अथवा जमींदार को तंग न करे। धनवान और श्रमजीवियों में परस्पर मित्रता। स्वराज्य वह है जिसमें स्त्रियाँ माता और बहनें समझी जायें और उनका मान-आदर हो तथा ऊँच-नीच का भेद-भाव दूर होकर सब परस्पर भाई-बहन की भावना से बरताव करें। स्वराज्य में राज्यसत्ता मादक पदार्थों का व्यापार न करे, अनाज और रूई का सट्टा न हो, कोई कानून भंग न करे। स्वराज्य में स्वेच्छाचार के लिए बिल्कुल स्थान न रहे, जिससे कोई अपने ही खिलाफ की गई शिकायत का फैसला खुद ही काजी बनकर न करे बल्कि देश की बनाई अदालत में अपने खिलाफ की गई फरियाद का फैसला होने दे।21
           इस आधार पर कहा जा सकता है कि गाँधी के स्वराज्य संबंधी विचार कल्पना पर आधारित नहीं हैं बल्कि उसका एक ठोस वैचारिक जमीन है। गाँधी कुछ सीमित लोगांे के लिए आजादी नहीं चाहते थे। उनकी नजर करोड़ों आम भारतीयों पर थी जिन्हें वे अपने आंदोलन में सहयोगी बनाना चाहते थे। गाँधी की राजनीति की यह एक अपूर्व विशेषता थी। इससे पहले नेताओं ने शोषितों-पीड़ितों के हक में आवाज ज़रूर उठाई किन्तु उन्हें अपने साथ लेने का प्रयास नहीं किया। जबकि गाँधी का इस मुद्दे पर साफ तौर पर मानना था कि ‘‘एक ही जाति अथवा एक ही वर्ग के प्रयत्नांे से मिलने वाला स्वराज्य, स्वराज्य नहंी बल्कि उस जाति अथवा वर्ग का राज्य होगा।’’22 इसलिए सबों की राष्ट्रीय आंदोलन में भागीदारी ज़रूरी थी। गाँधी भली-भाँति जान रहे थे कि ‘‘स्वराज्य कुछ आसमान से तो नहंी टपक पड़ेगा। इसके लिए धैर्य, कठिनाइयों को झेलते हुए अडिग रहने, अथक परिश्रम और साहस तथा परिस्थितियों और परिवेश की सही पहचान तथा पकड़ की आवश्यकता होगी।’’23 परिस्थितियों और परिवेश को सही तौर पर समझने के क्रम में ही गाँधी ने जाना कि अंग्रेजी पढ़े-लिखे मुट्ठी भर लोग संपूर्ण हिंदुस्तान नहीं हैं। आम लोगों की समझ में आने लायक शब्द, जो सबों की स्वतंत्रता को द्योतित करता हो, चुनने की कश्मकश में गाँधी ने ‘स्वराज्य’ शब्द का इस्तेमाल करना सबसे अधिक पसंद किया। ‘स्वराज्य’ शब्द का पहली बार प्रयोग दादा भाई नौरोजी ने 1906 ई. की कलकत्ता कांग्रेस के अपने अध्यक्षीय भाषण में स्वशासन के अर्थ में किया था।24
           गाँधी जी इस विषय पर थोड़ी-सी भी दुविधा में नहीं हैं कि केवल अंग्रेजों के भारत छोड़ देने से भारत को स्वराज्य नहीं मिल जाएगा। उसके लिए देश को अंग्रेजी सभ्यता से भी छुटकारा पाना होगा। महात्मा गाँधी लिखते हैं कि- ‘‘हिंदुस्तान की आजादी से मतलब है सारे हिंदुस्तान की आजादी। आजादी नीचे से शुरू होनी चाहिए। हर एक गाँव में जम्हूरी सभ्यता का या पंचायत का राज होगा। उसके पास पूरी सत्ता और ताकत होगी। ...जो आदमी अपनी जमीन में से पैदा करता है और खाता है जो जनरल बने, प्रधान बने तो हिंदुस्तान की शक्ल बदल जाएगी। आज जो सड़ा पड़ा है वह नहीं रहेगा।’’25 अन्यत्र भी गाँधी लिखते हैं कि ‘‘आप हिंदुस्तान का अर्थ मुट्ठी भर राजा करते हैं। मेरे मन में तो हिंदुस्तान का अर्थ वे करोड़ों किसान हैं जिनके सहारे राजा और हम सब जी रहे हैं।’’26 ‘‘हम किसी का भी जुल्म या दबाव नहीं चाहते- चाहे वो गोरा हो या हिंदुस्तानी।’’27
            उपर्युक्त उद्धरणों से यह लग सकता है कि गाँधी भी भगतसिंह की भाँति ही किसानों-मजदूरों का राज चाहते थे। सवाल अगर सिर्फ चाहने का है तो बेशक गाँधी ऐसा चाहते थे, किन्तु व्यवहार के स्तर पर गाँधी इस निर्धारित लक्ष्य की ओर बढ़ते नहीं दिखाई देते। किसानों-मजदूरों के राज्य का रास्ता उनके जमींदारों और पूँजीपतियों से समन्वय की नीति और ट्रस्टीशिप के रास्ते से बहुत दूर था। इस फर्क को गाँधी षायद नहीं समझ पा रहे थे।
सन् 1942 में लुइस फिशर से बातचीत के क्रम में गाँधी कहते हैं- ‘‘गाँवों में किसान कर देना बंद कर देंगे। अगला कदम जमीन पर कब्जा करना होगा।’’28 और इसके लिए वे हिंसा की आशंका से इंकार नहंी करते। तो क्या यह मान लिया जाय कि गाँधी भी धीरेे-धीरे उसी दिशा में बढ़ रहे थे जहाँ क्रांति के लिए हिंसा प्राथमिक उपाय न भी हो तो अंतिम उपाय हो सकती थी? लेकिन  गाँधी के विचारों के परिवर्तन की दिशा पकड़कर अनुमान लगाने से मनमाने निष्कर्ष भी निकाले जा सकते हैं, इसलिए यह सही नहीं है।
         गाँधी बार-बार अपने स्वराज्य को स्पष्ट करते हैं और उसे सबके हित में साबित करने का प्रयास करते हैं। 11 जून 1931 के यंग इंडिया में उन्होंने एक लेख लिखा ‘जब स्वराज्य होगा’। इसमें वे लिखते हैं कि ‘‘...धार्मिक निष्पक्षता का मतलब यह है कि सरकार का कोई भी राजधर्म नहीं होगा, न कोई विशेष पक्षपात का तरीका ही होगा। अस्पृश्यता मिट जाएगी। ‘अस्पृश्यों’ को किसी भी दूसरे मनुष्य के बराबर ही हक मिलेंगे। परंतु ब्राह्मण को इस बात के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा कि वह किसी दूसरे को छुए ही। उसे स्वयं अस्पृश्य बनने, अपने कुएँ, अपने मंदिर, अपनी शाला और दूसरी तमाम चीजें जो वह रख सकता हो, तब तक रखने की छूट होगी, जब तक वह उनका उपयोग पड़ोसियों के मार्ग में बाधा डाले बिना करेगा। परंतु जैसा कि कुछ लोग आजकल करते हैं, अन्त्यजों को सार्वजनिक रास्तों पर चलने की, सार्वजनिक कुओं का उपयोग करने की हिम्मत करने के लिए सजा नहीं दी जा सकेगी। सार्वजनिक मंदिरों में जाने की छूट दूसरे सब हिंदुओं को हो, और अन्त्यजों को नहंीं, ऐसे अत्याचार स्वराज्य में नहीं टिक सकेंगे। वेदों और दूसरे शास्त्रों की प्रामाणिकता अस्वीकार नहीं की जाएगी परंतु जिस हद तक इन धर्म ग्रंथों का उपयोग जनता को आचार-विचार का नियमन करने में होगा, उस हद तक उनका अर्थ करने का काम व्यक्तियों का नहीं बल्कि अदालतों के जिम्मे रहेगा। धर्म बुद्धि के विधि-निषेधों की कद्र की जाएगी, परंतु इसके लिए सार्वजनिक सदाचार या दूसरे अधिकारों को हानि पहुँचाकर नहीं। जो असाधारण विधि-निषेधों को अपनायेंगे, उन्हें स्वयं अड़चन उठानी पड़ेगी और अपनी इस सुविधा का दाम चुकाना होगा। रूढ़ि या धर्म के नाम पर कोई भी व्यक्ति या वर्ग अपने को उच्च मान ले, तो कानून उसे सहन नहीं करेगा।’’29
             यह सही है कि गाँधी ने भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करने से पहले भारत के गाँवांे का भ्रमण किया और उसे बहुत निकट से देखा और समझा, किन्तु उपर्युक्त उद्धरण से ऐसा लगता है कि वे लोगांे की प्रवृत्ति से बिल्कुल अनजान हैं। वे पृथकता कायम रखते हुए अस्पृश्यता मिटाने की बात करते हैं। यह अजीब विरोधाभास है। वैसे ही वेदों और धर्मगं्रथों की सत्ता बनाये रखते हुए धर्मनिरपेक्षता की भी बात करते हैं। इसके अलावा उल्लेखनीय बात यह भी है कि गाँधी ‘संसद’ का विरोध करते हैं। इंगलैंड की पार्लियामेंट के बारे में गाँधी की राय गौर करने लायक है। वे लिखते हैं कि- ‘‘जितना समय और पैसा पार्लियामंेट खर्च करती है उतना समय और पैसा अगर अच्छे लोगों को मिले तो प्रजा का उद्धार हो जाय। ब्रिटिश पार्लियामेंट महज प्रजा का खिलौना है और वह खिलौना प्रजा को भारी खर्च में डालता है। ...प्रधानमंत्री को पार्लियामेंट की थोड़ी ही परवाह रहती है। वह तो अपनी सत्ता के मद में मस्त रहता है। अपना दल कैसे जीते इसी की लगन उसे रहती है। पार्लियामेंट सही काम कैसे करे, इसका वह बहुत कम विचार करता है अपने दल को बलवान बनाने के लिए प्रधानमंत्री पार्लियामेंट से कैसे-कैसे काम करवाता है इसकी मिसालें जितनी चाहिए उतनी मिल सकती हैं।’’30 किन्तु ‘हिंद स्वराज’ की सन् 1921 में लिखी भूमिका में ही गाँधी ने कहा है कि ‘‘आज मेरी सामूहिक प्रवृत्ति का ध्येय तो हिंदुस्तान की प्रजा की इच्छा के मुताबिक पार्लियामेंटरी ढंग का स्वराज्य पाना है।’’ इस अंतर्विरोध में फंसकर कोई दिशा तय कर पाना बहुत कठिन लगता है। अगर गाँधी की इच्छा के मुताबिक भारत का प्रत्येक गाँव अपने आप में आत्मनिर्भर हो जाता तो भारत का एक राष्ट्र के रूप में संगठित होना संभव नहीं होता। आत्मनिर्भरता से एकता नहीं हो सकती, एक-दूसरे पर निर्भर होने से ही एकता संभव हो सकती है। अगर भारत एक संगठित राष्ट्र नहीं बन पाता, सभी गाँव अपने-अपने घेरे में आत्मनिर्भर और आनंदित रहते तो गाँधी के जनांदोलन का क्या होता! गाँव आत्मनिर्भर हों या न हों, अंग्रेज तो कायम रहते ही, लेकिन स्वाबलंबी गाँवों की वजह से उन अंग्रेेजों को भगा पाना मुश्किल होता। व्यक्ति के स्वावलंबन को भी गाँधी जितना महत्व देते हैं, अगर कोई उसी तरह बनने का प्रयास करे तो उसका सारा दिन अनुत्पादक कामों में ही व्यतीत हो जाएगा। पार्लियामंेट का विरोध करते हुए गाँधी कोई ऐसी वैकल्पिक व्यवस्था नहीं सुझाते जो भारत जैसे बड़े देश को संगठित और सुशासित रख सके।
        गाँधी बार-बार यह दुहराते हैं कि हमारी लड़ाई अंग्रेजों से नहीं बल्कि अंग्रेजी सभ्यता से है क्योंकि वह सभ्यता ‘‘दूसरों का नाश करनेवाली और खुद नाशवान है।’’31 भारत की परतंत्रता की प्रमुख वजह वे इसी सभ्यता को मानते हैं। उनकी ‘‘पक्की राय है कि हिंदुस्तान अंग्रेजों से नहीं बल्कि आजकल की सभ्यता से कुचला जा रहा है।’’32 उन्हें लगता है कि अगर हम अंग्रेजी संस्कृति और अंग्रेजी वस्तुआंे को दृढ़तापूर्वक अपने जीवन से खारिज कर दें तो अंग्रेज मजबूरन भारत छोड़ देंगे अथवा वे भी भारतीय सभ्यता को ही अपना लेंगे। वे लिखते हैं कि ‘‘अंग्रेजों को यहाँ लाने वाले हम हैं और वे हमारी बदौलत ही यहाँ रहते हैं। आप यह कैसे भूल जाते हैं कि हमने उनकी सभ्यता अपनायी है, इसलिए वे यहाँ रह सकते हैं? आप उनसे जो नफरत करते हैं वह नफरत आपको उनकी सभ्यता से करनी चाहिए।’’33
पश्चिमी सभ्यता के संवाहक के तौर पर ही गाँधी रेल, वकील और डॉक्टर को देखते हैं और इसीलिए इन तीनों का पुरजोर विरोध करते हैं। वे यह तक कहते हैं कि ‘‘हिंदुस्तान को रेलों, वकीलों और डॉक्टरों ने कंगाल बना दिया है।”34
       शिक्षा के संदर्भ में बात करें तो गाँधी पाश्चात्य शिक्षा के हिमायती नहीं हैं। वे किसी को शिक्षा देने से पहले यह तय कर लेना चाहते हैं कि उसे इस शिक्षा से क्या मिल सकता है और उस शिक्षा का उपयोग उसके जीवन में हो सकता है या नहीं! साक्षरता को गाँधी बहुत महत्व नहीं देते। गाँधी की दृष्टि में अंग्र्रेजी की शिक्षा देना गुलामी में डालने जैसा है।35 इसके अलावा गाँधी निज भाषा पर काफी बल देते हैं।36
किन्तु ‘हिंद-स्वराज’ में इसी प्रसंग मंे गाँधी स्वीकार करते हैं कि ‘‘हम सभ्यता के रोग में ऐसे फंस गए हैं कि अंग्रेजी शिक्षा बिल्कुल लिए बिना अपना काम चला सकें ऐसा समय अब नहीं रहा। जिसने वह शिक्षा पाई है, वह उसका अच्छा उपयोग करे।’’37
          इससे किसे इंकार हो सकता है कि ज्ञान का सही इस्तेमाल हो, किन्तु गलत इस्तेमाल की आशंका में हम ज्ञान से ही मुँह मोड़ लें, यह किसी भी दृष्टिकोण से सही नहंी हो सकता। एक अंग्रेज विद्वान को उद्धृत करते हुए वे लिखते है।  ‘‘...उसने सच्ची शिक्षा पाई है, जिसकी बुद्धि शुद्ध, शांत और न्यायदर्शी है। उसने सच्ची शिक्षा पायी है, जिसका मन कुदरती कानूनों से भरा है और जिसकी इन्द्रियाँ उसके बस में हैं, जिसके मन की भावनायें बिल्कुल शुद्ध हैं, जिसे नीच कामों से नफरत है और जो दूसरों को अपने जैसा मानता है।’’38 लेकिन इस शिक्षा से किसी व्यक्ति अथवा देश का विकास नहीं हो सकता, भले ही गाँधी की राय में वह शिक्षा बहुत मूल्यवान ठहरती हो। हिंदुस्तान के हजारों वर्षों के इतिहास को पलटकर देख लें, सारे ग्रंथ ब्राह्मणों या सवर्णों ने लिखे हैं, सारे धर्मों का प्रवर्तन भी इन्हीं लोगों के द्वारा हुआ। भीमराव अम्बेडकर जैसा विद्वान व्यक्ति पश्चिमी शिक्षा के द्वारा ही संभव हो सका। गाँधी की शिक्षा अथवा सभ्यता नीति अन्त्यजों और शूद्रों को मंदिर में पूजा करने का अधिकार भले ही दिलवा देती किन्तु धर्म-ग्रंथ रचने की अवस्था तक नहीं पहंुचा सकती थी।
       गाँधी शिक्षा में धर्म को भी जोड़ने की बात करते हैं। वे धर्म की भले ही चाहे जितनी उदार और सार्वभौम व्याख्या प्रस्तुत करें किन्तु हर जगह धर्म का घालमेल धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के लिए रूकावट ही बनेगा, यह भी तय है। लेकिन गाँधी इन बातों में दूरदर्शिता से काम नहीं लेते, वे सभी को अपनी तरह ही मान लेते हैं। चाहे राजनीति हो, चाहे समाजनीति हो, चाहे अर्थनीति हो या चाहे शिक्षानीति हो- हर प्रसंग में किसी न किसी तरह गाँधी धर्म को जोड़ ही देते हैं। इससे सांप्रदायिक तत्वों को खाद-पानी मिलता रहा है। जिन्ना अंत-अंत तक गाँधी को एक हिंदू नेता ही मानते रहे, भले ही गाँधी ने इसी सांप्रदायिक सद्भाव के कारण अपने को बलिदान कर दिया।
        रेलों और डॉक्टरों तथा वकीलों के संदर्भ में भी गाँधी के विचार देख लें जो उन्होंने सन् 1921 में ‘हिंद स्वराज’ की भूमिका मंे व्यक्त किया है- ‘‘रेलों या अस्पतालों का नाश करने का ध्येय मेरे मन में नहीं है, अगरचे उनका कुदरती नाश हो तो मैं जरूर स्वागत करूंगा। ...ज्यादा से ज्यादा यही कह सकते हैं कि यह एक ऐसी बुराई है, जो टाली नहीं जा सकती। ...उसी तरह मैं अदालतों के स्थायी नाश का ध्येय मन में नहीं रखता, हालाँकि ऐसा नतीजा आये तो मुझे अवश्य बहुत अच्छा लगेगा। यंत्रों और मिलों के नाश के लिए तो मैं उससे भी कम कोशिश करता हूँ।’’39
       डॉक्टरों और पश्चिमी चिकित्सा विज्ञान से पहले भारत में प्रति हजार व्यक्ति मृत्यु दर क्या थी और उसके बाद क्या हो गई, गाँधी इस तथ्य से आंख मूंद लेते हैं। जो विज्ञान एक भी व्यक्ति का जीवन बचा सकने में कामयाब हो वह क्योंकर त्याज्य हो सकता है? यहाँ तक कि पश्चिमी चिकित्सा शास्त्र के कारण भारतीय लोगों की औसत उम्र में भी लगातार वृद्धि हुई है। यह सही है कि डॉक्टरों का पेशा लोगों के स्वास्थ्य पर नहीं बल्कि अस्वास्थ्य पर टिका होता है, किन्तु इससे हम डॉक्टरों के महत्व को कैसे नकार सकते हैं! हरेक पहलू के दोनों पक्ष होते हैं, यह स्वयंसिद्ध है।
        वकील भी निश्चित तौर पर पश्चिमी न्याय व्यवस्था के आधार हैं। परंतु गाँवों में पंचायत होने के बावजूद भी गरीबों को न्याय नहीं मिलता था, न ही सभी पंच ‘परमेश्वर’ होते हैं। गाँधी अगर ग्रामीण पंचों को पश्चिमी न्याय व्यवस्था का विकल्प मानते हैं तो भूल करते हैं। पश्चिमी न्याय-व्यवस्था कायम होने के बाद ही हिंदुस्तान के आम लोगों को मालूम हुआ कि गरीबों को भी न्याय मिल सकता है, साथ ही यह भी कि गरीब और अमीर कानून की नजर मे बराबर हैं। भले ही वकील अंग्रेजी भाषा में जिरह करें, लेकिन बिना जिरह किए न्याय नहीं होता था। भले ही चालाकी से गवाही दिलवाकर, वकीलों को पैसे देकर सामर्थ्यवान लोग इस व्यवस्था में भी अपने पक्ष में फैसला करवाते रहे, लेकिन वैसा तालमेल हमेशा संभव नहीं होता और कभी-कभी गरीबों को भी न्याय मिल जाता था।
        इसी प्रकार रेलों के आने से आम लोगों का भी दूर-दूर आना-जाना संभव हुआ और इतने ही परिवर्तन से देश का परिदृश्य बहुत हद तक बदल गया। किसान अपनी फसल को गाँवों की चौहद्दी तक ही बेचने को मजबूर नहीं रहा, वह रेलों में लादकर उसे शहर में भी ला सकता था। यही स्थिति बुनकरों और शिल्पकारों की भी रही। यह सही है कि अंग्र्रेजी सरकार ने भारतीयों के फायदे को ध्यान में रखकर रेलें नहीं चलाई, किन्तु यह भी सही है कि रेल आम लोगों के लिए कई संदर्भों में फायदेमंद भी रही।
           ब्रिटिश सत्ता केवल ताकत पर ही नहीं बल्कि एक खास तरह की विचारधारा पर भी टिकी थी और गाँधी देख रहे थे कि वह विचारधारा लोगों के दिलो-दिमाग में घर करती जा रही है। अंग्रेज सरकार एक ओर तो भारतीय सभ्यता को सामंती और रूढ़िवादी तथा जड़ साबित करने का प्रयास कर रही थी और इसी के आधार पर यहाँ के निवासियों को भी असभ्य बता रही थी, वहीं दूसरी ओर अपनी सभ्यता को अत्यंत ही उदार, न्यायप्रिय और लोकतांत्रिक बता रही थी। उसके ऐसा करने के पीछे यह तर्क था कि वे भारत का शोषण करने के लिए इस पर शासन नहीं कर रहे हैं बल्कि इस देश को सभ्य और सुसंस्कृत बनाने के लिए ऐसा कर रहे हैं। चूंकि वे विश्व के सर्वाधिक सभ्य और विकसित नागरिक हैं, अतः असभ्य देशों को सभ्य बनाना उनका मानवीय कर्तव्य बनता है। धीरे-धीरे भारत की जनता भी यह मानने लग गई थी कि हम असभ्य हैं तथा अंग्रेज सभ्य हैं और यह भी कि अंग्रेज सरकार हमारी भलाई के लिए है।
            इन परिस्थितियों में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन अंग्रेजों के इस वैचारिक प्रभुत्व से टक्कर लिए बिना अपना वर्चस्व कायम नहीं कर सकता था। यह वैचारिक-राजनीतिक संघर्ष राष्ट्रवादी नीति का सबसे महत्वपूर्ण पहलू था जिसका प्रारंभ नवजागरण काल में ही हो गया था। एक ओर राष्ट्रवादी नेताओं ने भारतीय गौरव को प्रचारित करके लोगों के च्युत आत्मसम्मान को फिर से स्थापित किया, दूसरी ओर अंग्रेजी सरकार की शोषणपरक आर्थिक-राजनीतिक नीतियों का पर्दाफाश करके उसके चेहरे पर सजे सभ्यता के आवरण को उखाड़ फेंका। महात्मा गाँधी के ‘हिंद स्वराज’ का महत्व अगर इस दृष्टिकोण से देखें तो समझ में आ सकता है। इस पुस्तक में गाँधी ने ढूंढ़-ढूंढ़कर अंग्रेजी सभ्यता की आलोचना की है। लोगों में इस सभ्यता को लेकर पर्याप्त सम्मान का भाव था, जाहिर है कि इस स्थिति में उससे लोहा लेना नामुमकिन था। खादी और स्वदेशी की प्रतिज्ञा इसी दिशा में बढ़ता हुआ कदम था। किन्तु गाँधी अंग्रेजी सभ्यता से नफरत करते हुए अंग्रेजों से प्रेम करने की बात कहकर इस अवधारणा को दुरूह बना देते हैं। अंग्रेजी सभ्यता अंग्रेजों से किसी भी अर्थ मंे अलग नहीं थी, वह अंग्रेजों के साथ ही भारत मंे आई थी, यह दुखद विडम्बना है कि अंग्रेजों के साथ वह सभ्यता गई नहीं। ऐसा करना गाँधी के लिए संभव होता भी हो तो आमजन के लिए संभव नहीं था, बल्कि आम लोगों के लिए तो अंग्रेजों से अलग करके अंग्रेजी सभ्यता को समझ भी पाना मुश्किल था। किसी भी विचार अथवा आविष्कार के दोनों पहलू होते हैं और उसके प्रयोग से होने वाली भलाई या बुराई व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है। किन्तु इस भय से ज्ञान और विवेक को कुंद कर देना किसी भी दशा में सही नहीं समझा जा सकता। गाँधी इस तथ्य को नजरअंदाज कर रहे थे कि राष्ट्रीय आंदोलन या नवजागरण काल के अधिकांश नेता उसी शिक्षा और सभ्यता के जरिए आए हैं। स्वयं गाँधी भी उसी शिक्षा और सभ्यता से उस सभ्यता के प्रबल विरोध तक पहुँचे थे। कहने का यह आशय नहीं है कि उस शिक्षा के बिना स्वतंत्रता की चेतना पैदा नहीं होती, किन्तु उस शिक्षा के बिना स्वतंत्रता की चेतना को सुविचारित-सुनियोजित रूप देना संभव नहंी होता, यह माना जा सकता है।
इसी तरह आधुनिकता को अपनाना अंग्रेजी सभ्यता का अंधानुकरण नही है। आधुनिकीकरण और पाश्चात्यीकरण दो अलग-अलग चीजें हैं। अगर एक के साथ दूसरा लगा-बंधा आ जाए तो दूसरे की निंदा उचित हो सकती है किन्तु समग्र ज्ञान और विचार की निंदा करना बेमानी है। यह भी सोचना होगा कि आधुनिकता का न होना मध्यकालीन मूल्यों के लिए जगह तैयार करता है।
         यंत्रों के संबंध में ‘हिंद स्वराज्य’ में गाँधी लिखते हैं कि ‘‘मशीनें यूरोप को उजाड़ने लगी हैं और वहाँ की हवा अब हिंदुस्तान में चल रही है। यंत्र आज की सभ्यता की मुख्य निशानी है और वह महापाप है।’’40 वे यहाँ तक लिखते हैं कि ‘‘हम हिंदुस्तान में मिलें कायम करें, उसके बजाय हमारा भला इसी में है कि हम मैनचेस्टर को और भी रुपये भेजकर उसका सड़ा हुआ कपड़ा काम में ले लें, क्योंकि उसका कपड़ा काम में लेने से सिर्फ हमारे पैसे ही जायेंगे। हिंदुस्तान में अगर हम मैनचेस्टर कायम करेंगे तो पैसा हिंदुस्तान में ही रहेगा, लेकिन वह पैसा हमारा खून चूसेगा; क्योंकि वह हमारी नीति को बिल्कुल खतम कर देगा। ...गरीब हिंदुस्तान तो गुलामी से छूट सकता है लेकिन अनीति से पैसे वाला बना हुआ हिंदुस्तान गुलामी से कभी नहीं छूटेगा। ...अंग्रेजी राज को यहाँ टिकाए रखनेवाले धनवान लोग ही हैं।’’41
गाँधी यह समझते थे कि अंग्रेजी राज को यहाँ बनाये रखने वाले धनवान लोग हैं, किन्तु कांग्रेस में धनवानों को टिकाये रखने में गाँधी की भी भूमिका थी और यह विचित्र विरोधाभास था। ‘हिंद स्वराज’ में मशीन के विरोध में गाँधी और भी कई अव्यावहारिक बातें करते हैं, जिसकी चर्चा यहाँ अनावश्यक है। वे यहाँ तक कहते हैं कि ‘‘जब ये सब चीजें यंत्र से नहीं बनती थीं तब हिंदुस्तान क्या करता था? वैसा ही आज भी कर सकता है।’’42 किंतु सन् 1921 मंे ‘हिंद स्वराज्य’ की लिखी भूमिका में गाँधी यंत्र संबंधी अपने विचारों में  सुधार कर लेते हैं। वे लिखते हैं- ‘‘मिलों के संबंध में मेरे विचारों में इतना परिवर्तन हुआ है कि हिंदुस्तान की आज की हालत में मैनचेस्टर के कपड़े के बजाय हिंदुस्तान की मिलों को प्रोत्साहन देकर भी अपनी जरूरत का कपड़ा हमें अपने देश में ही पैदा कर लेना चाहिए।’’43
             लंदन में अपनी पढ़ाई करने के दौरान गाँधी ने ब्रिटेन के औद्योगीकरण को बहुत नजदीक से देखा था और साथ ही उससे पैदा हुई विषमता को भी देखा था। वहाँ के मजदूर नारकीय स्थितियों में जीने के लिए मजबूर थे। गाँधी को लगता था कि औद्योगीकरण के सिर्फ सकारात्मक प्रभावों को ग्रहण करना और नकारात्मक प्रभावों से बच निकलना संभव नहीं होगा। ‘हिंद स्वराज’ मंे गंाधी उपयुक्त तकनीकी और सुदृढ़ विकास जैसी अवधारणाओं पर विचार कर रहे थे। गाँधी भली-भाँति समझ रहे थे कि भारत में उपलब्ध संसाधनों तथा उनसे पाली जाने वाली बड़ी आबादी के बीच के संबंधों को देखते हुए यूरोपीय अनुभव का हू-ब-हू क्रियान्वयन जबर्दस्त रूप से विनाशकारी होगा। इसीलिए सन् 1934 तथा उसके बाद से गाँधीजी ने बार-बार कहा कि वे आधुनिक बड़े पैमाने के उद्योगों के विरूद्ध नहीं हैं जब तक कि ये वृद्धिकारी तथा मानव श्रम के बोझ को कम करने वाली हैं, न कि उसे समाप्त करने वाली, तथा जब तक इस पर निजी पूँजीपतियों का नहीं अपितु राज्य का स्वामित्व हो। 1934 में एक समीक्षा में उन्होंने कहा कि ‘‘मैं सबके हित के लिए किए गए किसी भी वैज्ञानिक आविष्कार का स्वागत करूंगा।’’ इसी तरह 1938 के अंत में तीस अर्थशास्त्रियों ने गाँधी जी के साथ उनके आर्थिक-दर्शन पर बातचीत की। उन्होंने प्रश्न किया कि ‘‘क्या आप बड़े पैमाने पर उत्पादन के विरूद्ध हैं?’’ गाँधी जी का जवाब था, ‘‘मैंने ऐसा कभी नहीं कहा। यह मेरे बारे में फैली अनेक भ्रामक धारणाओं में से एक है। मेरा आधा समय इसी प्रकार के प्रश्नों के उत्तर देने मंे चला जाता है।’’ अर्थशास्त्रियों को झिड़कते हुए उन्होने कहा ‘‘वैज्ञानिकों से मैं बेहतर ज्ञान की अपेक्षा करता हूँ। मैं उस तरह की वस्तुओं का बड़े पैमाने पर उत्पादन के विरूद्ध हूँ जिसे गाँव के लोग बिना किसी कठिनाई के उत्पन्न कर सकते हैं।’’ यह भी ध्यातव्य है कि राष्ट्रीय कांग्रेस के 1931 के कराची अधिवेशन में मूल अधिकारों और आर्थिक परिवर्तन संबंधी प्रसिद्ध प्रस्ताव गाँधी जी के द्वारा ही रखा गया था।44
          सन् 1924 में भी एक बातचीत में गाँधी ने स्पष्ट कहा था कि ‘‘मेरा विरोध यंत्रोें के लिए नहीं है, बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है, उसके लिए है। उनसे (यंत्रों से) मेहनत ज़रूर बचती है, लेकिन लाखों लोग बेकार होकर भूखों मरते हुए रास्तों पर भटकते हैं। समय और श्रम की बचत तो मैं भी चाहता हूँ, परंतु वह किसी खास वर्ग की नहीं, बल्कि सारी मानव जाति की होनी चाहिए। ...आज तो करोड़ों की गरदन पर कुछ लोगांे के सवार हो जाने में यंत्र मददगार हो रहे हैं। यंत्रों के उपयोग के पीछे जो प्रेरक कारण है वह श्रम की बचत नहीं है, बल्कि धन का लोभ है। आज की इस चालू अर्थव्यवस्था के खिलाफ मैं अपनी तमाम ताकत लगाकर युद्ध चला रहा हूँ।....मेरा उद्देश्य तमाम यंत्रों का नाश करने का नहीं है, बल्कि उनकी हद बांधने का है।’’45
गाँधी जी हर काम के पीछे मानव की भलाई की प्रेरणा को आवश्यक मानते थे। सिंगर की सिलाई मशीन के आविष्कार का उदाहरण देते हुए गाँधी जी बताते हैं कि वैज्ञानिक खोज की प्रेरणा लालच की जगह प्रेम बने तो वैसी खोज मनुष्य के लिए उपयोगी होगा। ऐसे यंत्र जिस कारखाने में तैयार हांे वह जनता की ओर से राष्ट्र के द्वारा चलाया जाना चाहिए। ऐसे कारखानों को चलाने के पीछे राष्ट्र का उद्देश्य लाभ कमाना नहीं बल्कि जनता की भलाई होनी चाहिए।46
       इस प्रकार से देखते हैं कि गाँधी ने दो कारणों से पश्चिमी सभ्यता को अस्वीकार किया, पहला इसका आधार असमानता पर टिका था और दूसरा, यह व्यक्ति को अमानवीय और गै़र-व्यक्तिवादी दृष्टि से देखता था। गाँधी जी कामकाजी वर्ग और गरीब का आजाद होना ज्यादा जरूरी समझते थे। पश्चिमी प्रौद्योगिकी और इसका अनुसरण करने वाली जीवन-शैली भारतीय परम्परा से अलग थी। साथ-ही साथ, गाँधी की राय में यह भारत की ज़रूरतों को पूरा करने में भी अपर्याप्त थी और व्यक्तिगत रूप से जनता के अर्थपूर्ण और वास्तविक विकास में बाधक थी। यही वजह है कि वे मशीनरी, आने-जाने के आधुनिक साधनों, आधुनिक चिकित्सा और मशीन से बने कपड़ों का इस्तेमाल नहंी करना चाहते थे। वे यही नहीं मान रहे थे कि हरेक अच्छाई के साथ बुराई चली आती है, इसलिए अच्छाई का इस्तेमाल करते हुए बुराई की उपेक्षा करनी चाहिए। मशीन के भी दोनों पक्ष हैं। हालाँकि बाद के वर्षों में गाँधी ने अपने विचारों का विकास किया।
इतिहासकार सुमित सरकार मानते हैं कि गाँधी जी का ‘हिंद स्वराज’ आधुनिकीकरण से आक्रांत और कुंठित लोगांे के पक्ष में खड़ा है। वे लिखते हैं कि ‘‘कारखानों से बर्बाद हुए कारीगर, किसान, जिनके लिए न्यायालय खतरनाक फंदे थे और शहरी अस्पतालों में जाना प्रायः महंगा मृत्युदंड होता था, साथ ही ग्रामीण एवं कस्बाती बुद्धिजीवी जिन्हंे शिक्षा से कोई लाभ नहीं मिला था- इन सबके लिए कुछ समय के लिए ही सही, उद्योग-विरोधी विचार वस्तुतः आकर्षक थे।’’47
        शिक्षा के संदर्भ में बात करें तो गाँधी पाश्चात्य शिक्षा के हिमायती नहीं हैं। वे किसी को शिक्षा देने से पहले यह तय कर लेना चाहते हैं कि उसे इस शिक्षा से क्या मिल सकता है और उसका उपयोग उसके जीवन में हो सकता है या नहीं। महज अक्षरज्ञान को गाँधी बहुत बढ़ा-चढ़ाकर नहीं देखते, हालाँकि उसकी बुराई भी नहीं करते। गाँधी की दृष्टि मंे अंग्रेजी की शिक्षा देना गुलामी में डालने जैसा है।48 वे कहते हैं कि ‘‘यह कितने दःुख की बात है कि हम स्वराज्य की बात भी पराई भाषा में करते हैं? ...आपको समझना चाहिए कि अंग्रेजी शिक्षा लेकर हमने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैरह बढ़े हैं। ...यह क्या कम जुल्म की बात है कि अपने देश में अगर इंसाफ पाना हो, तो मुझे अंग्रेजी भाषा का उपयोग करना चाहिए। बैरिस्टर होने पर मैं अपनी स्वभाषा में बोल ही नहीं सकता!’’49
         हालाँकि गाँधी जी यह भी स्वीकार करते हैं कि ‘‘हम सभ्यता के रोग में ऐसे फंस गये हैं कि अंग्रेजी शिक्षा बिल्कुल लिये बिना अपना काम चला सकें ऐसा समय अब नहीं रहा। जिसने वह शिक्षा पाई है, वह उसका अच्छा उपयोग करे।’’50 गाँधी सभी भारतीय भाषाओं के विकास और प्रसार का प्रबल समर्थन करते हैं। इसी के साथ-साथ वे शिक्षा मंे धर्म की शिक्षा अथवा नीति की शिक्षा भी जोड़ने की बात करते हैं।51
उपर्युक्त विष्लेषण में गाँधी के ‘हिंद-स्वराज’ को केन्द्र में रखकर उनकी स्वराज्य की अवधारणा को समझा जा सकता है। गाँधी आध्यात्मिक-स्वराज्य और राजनीतिक-स्वराज्य में फर्क करके देखते थे, जबकि आमतौर पर इस फर्क को दरकिनार करके दोनांे को एक साथ जोड़कर उनकी आलोचना की जाती रही है। गाँधी क्रांति की अवधारणा को मानवीय मूल्यों से जोड़कर रखने के लिए चरखा, खादी और स्वदेशी का प्रचार करते थे। इसके जरिए आम आदमी को भी स्वतंत्रता आंदोलन मंे भागीदार बनाना संभव हो सका, दूसरे, इससे आम लोगों की समस्याआंे को भी समझने तथा उसे दूर करने का अवसर मिला।
संदर्भ:
1. ‘हिंद स्वराज’ के अनुवाद की भूमिका में गाँधी ने लिखा है कि ‘‘कुछ अंग्रेज मित्रों ने इसे पढ़ लिया है और जब रायें माँगी जा रही थीं कि पुस्तक प्रकाशित करना ठीक है या नहीं, तभी समाचार मिला कि मूल पुस्तक भारत में जब्त कर ली गई है। इस समाचार के कारण तुरंत निर्णय लेना पड़ा कि इसका अनुवाद प्रकाशित करने में एक क्षण भी देर नहीं की जानी चाहिए।.....उपर्युक्त परिस्थितियों में इस पुस्तक के प्रकाशन को टालना मेरे लिए कायरता होती।’’- (संपूर्ण गाँधी वाड.मय, खंड-10, पृष्ठ 203-205)
2. ‘हिंद स्वराज’-गाँधी जी, अनुवादक: अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद-14, संस्करण-2001 के हिंदी अनुवाद में गाँधी जी की भूमिका देखें।
3. संपूर्ण गाँधी वाड.मय, खंड-10, पृष्ठ-204
4. आधुनिक भारत (1885-1947)-सुमित सरकार, राजकमल प्रकाशन (प्रा.) लिमिटेड नई दिल्ली-02, संस्करण: आठवां छात्र सं.-2001 पृष्ठ-200
5. ‘हिंद स्वराज’ में गाँधी जी की भूमिका, पृष्ठ-25
6. गाँधी: एक पुनर्विचार - सहमत, रफी मार्ग, नई दिल्ली-01, संस्करण: प्रथम, 2004 में सुकुमार मुरलीधरन का लेख देखें।
7. ‘हिंद स्वराज’, पृष्ठ-26
8. भारतीय राष्ट्रवाद: कुछ निबंध -बिपन चन्द्र, जवाहर पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, बेर सराय, नई दिल्ली-16, प्रथम संस्करण-1996 में प्रस्तावना देखें।
9. गाँधी: एक पुनर्विचार में बिपन चन्द्र का लेख देखें। पृष्ठ-46
10. हिन्द स्वराज, पृष्ठ-12
11. वही, पृष्ठ-12
12. वही, पृष्ठ-42
13. संपूर्ण गाँधी वाड.मय, भाग-43, पृष्ठ- 117
14. गाँधी विचार यात्रा-राम नारायण उपाध्याय (संकलन-संपादन), कामता सेवा केन्द्र कामतानगर, औरंगाबाद (बिहार), संस्करण: प्रथम, 1995 पृष्ठ-131
15. हिंद स्वराज, पृष्ठ- 64
16. संपूर्ण गाँधी वाड.मय- खण्ड-अट्ठाइस, पृष्ठ-124
17. गाँधी विचार-यात्रा, पृष्ठ-131
18. हिंद स्वराज, पृष्ठ-80
19. वही, पृष्ठ-80
20. वही, पृष्ठ-87
21. संपूर्ण गाँधी वाड.मय-खण्ड बीस, पृष्ठ-527
22. वही, खण्ड-अटठ्ाइस, पृष्ठ-54
23. वही, पृष्ठ-123
24. वही, खण्ड-पैंतीस, पृष्ठ-473
25. गाँधी विचार-यात्रा, पृष्ठ-133-134
26. हिंद स्वराज, पृष्ठ-65
27. वही, पृष्ठ-81
28. भारतीय राष्ट्रवाद: कुछ निबंध, पृष्ठ-70
29. संपूर्ण गाँधी वाड.मय, खण्ड-छियालिस, पृष्ठ-385-386
30. हिंद स्वराज, पृष्ठ-14-15
31. वही, पृष्ठ-20
32. वही, पृष्ठ-24
33. वही, पृष्ठ-48
34. वही, पृष्ठ-27
35. वही, पृष्ठ-69-72
36. वही, पृष्ठ-72-73
37. वही, पृष्ठ-73
38. वही, पृष्ठ-70-71
39. वही, गाँधी जी की भूमिका से
40. वही, पृष्ठ-76
41. वही, पृष्ठ-76-77
42. वही, पृष्ठ-78
43. वही, पृष्ठ-88 (परिशिष्ट-1)
44. भारतीय राष्ट्रवाद: कुछ निबंध, पृष्ठ-69-70
45. हिंद स्वराज में महादेव देसाई लिखित ‘प्रस्तावना’ से
46. वही
47. आधुनिक भारत, पृष्ठ-200
48. हिंद स्वराज, पृष्ठ-69-72
49. वही, पृष्ठ-72-73
50. वही, पृष्ठ-73
51. वही, पृष्ठ-74

(यात्रा-7 से)

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

अत्तिला इल्हान की कविताएँ

(अत्तिला इल्हान (15 जून 1925 -10 अक्टुबर 2005) आधुनिक तुर्की साहित्य का एक प्रमुख नाम है। उनकी ख्याति एक कवि, उपन्यासकार , पटकथा लेखक, संपादक और निबंध लेखक के रूप में रही है।)


                    अत्तिला इल्हान की कविताएँ
                          अनुवाद: सिद्धेश्वर सिंह




प्रतीक्षा

वह बोली प्रतीक्षा करो, मैं आऊँगी
मैंने नहीं की प्रतीक्षा , वह आयी भी नहीं
यह सब कुछ था मृत्यु की मानिन्द
लेकिन नहीं आयी किसी को मौत।

कौन है वह

दरवाजे की बजती घंटी के साथ
मैं दौड़ पडा़
मैंने खोला द्वार और झाँका
नहीं, कोई नहीं यहाँ।
मैंने निश्चित रूप से
सुनी थी घंटी की आवाज
जरूर किसी ने बजाया था उसे
क्या यह मैं हूँ
चालीस साल छोटा
जिसे छोड़ा गया था गिरफ्त से।

मेरा नाम पतझड़

यह कैसे हुआ पता नहीं
चारों ओर झड़ने लगे
रोशनी में तैरते
प्लम की गाछ के पत्ते
तुम जिधर भी देखते हो
धुंधलाई हैं तुम्हारी आंखें
फिर भी
मैं परिवर्तित हो गया शाम में
धीरे - धीरे हौले - हौले
झड़ रहे हैं मेरे पत्ते
मेरा नाम है शरद
मेरा नाम पतझड़।

तुम अनुपस्थित हो

तुम अनुपस्थित हो
यहाँ नहीं है कोई समुद्र
सितारे हैं मेरे मीत
आज की रात कुछ घटित होगा चमत्कार की तरह
या बम की तरह तड़क जाएगा मेरा माथा
कुछ पुरानी कविताएँ कंठ में धारण किए, मैं हूँ यहाँ
इस्तांबुल की मीनारें मेरे कमरे में हैं विद्यमान
आकाश है खुला और चमकीला
देखो, हमारे अच्छे दिनों ने आपस में कस ली हैं भुजाएँ
एक विपरीत हवा बह रही है
एक दूजे से विलग समुद्र तटों पर
फास्फोरस से भरी है रोशनी
आकाश एक समुद्र है
हवा में हैं पंखों की आवाजें
और अबूझ वनैली गंध
यहाँ कोई समुद्र नहीं
सितारे होते जा रहे हैं धूमिल
फिर - फिर मैं अकेला हूँ यहाँ
इस्तांबुल... मीनारें ...सब गुम हो गई हैं कहीं
तुम हो अनुपस्थित
अब अनुपस्थित हो तुम।

जैसे मैं हूँ अपने नाम के साथ

स्मृतियों की जरूरत नहीं तुम्हें याद करने के लिए
तुम एक क्षण के लिए भी अलग नहीं हो सकतीं मेरे मस्तिष्क से
तुम्हारा चलना, जैसे तेज दौड़
तुम्हारी चमकदार मुस्कान जैसे अँधियारे में रोशन।
स्मृतियों की जरूरत नहीं तुम्हें याद करने के लिए
सुदूरवर्ती सितारों में लिपटा है ब्रह्मांड
जबकि समय बीत रहा है उनकी शून्यता में।
जैसे मैं हूँ अपने नाम के साथ वैसे ही हम दोनो एक संग
तुम्हारे साथ है हर घंटा , हर मिनट, हर सेकेन्ड
हमारे हृदय प्रसन्नता के यकीन में कर रहे हैं विश्राम
हमारे सिर जैसे काँख में दबाये हुए डायनामाइट्स
और यह भी कि इस प्रारब्ध के उजाले में दिपदिपा रहा है हमारा सच
ऐसा किसी सूरत में , किसी भी स्थिति में
किसी और नश्वर जीवन को उपलब्ध।
स्मृतियों की जरूरत नहीं तुम्हें याद करने के लिए
तुम तुम उतना ही करीब हो मेरे
जितना कि मेरा हृदय , जितना कि मेरे एक जोड़ी हाथ।
(यात्रा-7 से)

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

लू शुन की गद्य कविताएँ

[हाँ, लो फिर कहता हूँ कि पृथ्वी की सभी अच्छी कविताओं में अद्भुत सखियारा है। लू शुन की ये गद्य कविताएँ निश्चय ही शानदार हैं। इधर की हिंदी की गद्य कविताओं को लेकर अक्सर नाराजगी रही है तो उसकी वजह कविता की भाषा के प्रति भयंकर लापरवाही है। पहले और सबसे पहले उसका कविता होना जरूरी है। याद रखना चाहिए कि काव्यभाषा कविता की जननी है। तनिक पहले की हिंदी कविता में गद्यकाव्य एक काव्यरूप रहा है, वियोगी हरि के गद्यकाव्य ने ध्यान खींचा था। हालांकि वियोगी हरि के गद्यकाव्य की भाषा में कविताई कम है और देख लें, लू शुन में बहुत ज्यादा। वस्तु और रूप का भी अंतर है। लू शुन का समय भी तनिक कुछ और पहले का है। सुखद यह कि लू शुन की इन गद्य कविताओं में कोई बहुत मजबूत चुंबक है, जो वहाँ से, यहाँ से क्षणभर में खींच लेता है । दिगम्बर को अच्छे अनुवाद के लिए बधाई के साथ यात्रा-7 से फिर कुछ कविताएँ।-संपादक,यात्रा।]


                 लू शुन की गद्य कविताएँ
                     
                         अनुवाद: दिगम्बर

(विश्व साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर लू शुन ने सृजानात्मक लेखन की तुलना में ज़नोन्मुख लेखकों की नयी पीढ़ी तैयार करने और सांस्कृतिक आन्दोलन खड़ा करने की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी को अधिक महत्त्व दिया. पिछड़े हुए चीनी समाज के लिए यह ऐतिहासिक दायित्व स्वतंत्र लेखन से कहीं अधिक महत्व रखता था. इस कलम के सिपाही ने साहित्यिक लेख, व्यंग्य, लघु कथाएँ, कहानियाँ, समीक्षात्मक लेख और ऐतिहासिक उपन्यास के साथ-साथ गद्य कवितायेँ भी लिखीं. उनकी गद्य कविताओं का संकलन ‘वाइल्ड ग्रास’ नाम से प्रकाशित हुआ है. 1924 से 1926 लिखी गयी इन गद्य कविताओं साम्राज्यवाद और उत्तरी युद्ध सरदारों के खिलाफ प्रतिरोध और दमन की अभिव्यन्ज़ना सांकेतिक और अमूर्त शैली में की गयी है. इसका कारण शायद यह रहा हो कि उस समय साहित्य को कठोर सेंसर से गुज़ारना होता था.
     इन गद्य कविताओं में ऊपर-ऊपर देखने पर निराशा और भयावहता की झलक मिल सकती है, लेकिन इन प्रतीकात्मक कविताओं के विविध रंग हैं. इनमें स्वप्न का सृज़न है जिनमें दुःस्वप्न भी शामिल हैं. यहाँ कुत्ते से वार्तालाप है, कीड़ों कि भिनभिनाहट है और इंसानों की नज़र से खुद को छिपाने की कोशिश करता आकाश है. समाज के ढोंग-पाखंड, निष्क्रियता, हताशा और ठहराव पर विक्षुब्ध टिप्पणी है जो मुखर नहीं है.
‘वाइल्ड ग्रास’ की भूमिका में लू शुन ने लिखा है- “धरती के भीतर तीव्र वेग से जो अग्नि-मंथन हो रहा है, उस का लावा जब सतह पर आएगा, तो वह सभी जंगली घासों और गहराई से धंसे विष-वृक्षों को जला कर खाक कर देगा, ताकि सडान्ध पैदा करनेवाली कोई चीज़ न रह जाय.”-दिगम्बर)


बर्फ

दक्षिण की बारिस कभी भी जमकर ठण्डे चमकदार बर्फ के फाहों में नहीं बदलती। जिन लोगों ने दुनिया देखी है वे इसे नीरस मानते हैं, क्या बारिस भी इसे दुर्भाग्य समझती है? चांगजियांग (यांग्त्से) नदी से दक्षिण का इलाका बहुत ही तर और मनोहर है, जैसे वसन्त का पहला अकथ संकेत या तंदुरुस्ती से दीप्त किसी लड़की का खिला यौवन। उलाड़ बर्फीले इलाके में कमेलिया के रक्ताभ फूल हरे और सुनहरे रंगों के साथ घुलीमिली आलूचे के फूलों की सफेद मंजरी, शीतकालीन आलूचे के घण्टीनुमा फूल और बर्फ के नीचे छिपे हुए ठंडे हरे बीज। तितलियाँ वहाँ बिल्कुल नहीं हैं और मुझे ठीक से याद नहीं कि मधुमक्खियाँ कमेलिया के फूलों और आलूचे की मंजरी से शहद इकट्ठा करने आती भी हैं या नहीं। लेकिन अपनी आँखों के आगे मैं देख सकता हँू बर्फीले उजाड़ में शीतकालन फूलों पर मंडराती मधुमक्खियाँ - मैं सुन सकता हूँ उनकी भनभनाहट और उनकी गुँजन।
बर्फ का बुद्ध बनाने के लिए इकट्ठा हुए सात या आठ बच्चे, अदरख के कोंपलों-जैसी अपनी छोटी-छोटी लाल उँगलियों को अपनी साँसों से सेंक रहे हैं। जब वे सफल नहीं हुए, तो उनमें से किसी के पिता उनकी मदद करने आये। बुद्ध की ऊँचाई बच्चों से अधिक है और हालाँकि यह सेब के आकार का एक ढेर है जो कद्दू भी हो सकता है या बुद्ध भी, लेकिन यह सफेद और चमकदार सुन्दरता लिये हुए है। अपनी नमी से गुँथी यह पूरी छवि चमक और टिमटिमा रही है। बच्चे फल की गुठली से उसकी आँख और अपनी माँ के सिंगारदान के टूटे हुए हिस्से से होंठ बनाते हैं। तो इस तरह बन गये आदर योग्य बुद्ध। चमकदार आँखों और लाल होंठों वाले बुद्ध बर्फ के मैदान में खड़े हैं।
अगले दिन कुछ बच्चे उसे देखने आये। उसके आगे ताली बजाते हुए वे अपना सिर हिलाते और हँसते हैं। बुद्ध वहाँ अकेले बैठे हैं। धूप भरा दिन उनकी चमड़ी पिघला देता है। लेकिन ठंडी रात उस पर एक नयी परत चढ़ा देता है। और यह अपारदर्शी स्फाटिक में बदल जाता है। कुछ दिन और धूप खिलने पर इसको पहचान पाना मुश्किल हो जाता है और उसके चेहरे पर चिपका सिंगारदान को टुकड़ा गायब हो जाता है।
लेकिन उत्तर में गिरने वाले बर्फ के फाहे अन्तिम समय तक रेत या चूरा जैसे ही रहते हैं और जमते नहीं, चाहे वे छत पर बिखरे हों, या जमीन पर या घास पर। घर में जलते चूल्हे की गर्मी ने बर्फ को पिघला दिया। जो बाकी बचे रहे वे खुले आकाश से उठने वाले बवंडर के साथ बेतहाशा ऊपर उठते हैं और सूरज की धूप में ऐसे चमकते हैं जैसे लपट के इर्दगिर्द घना कोहरा। वे तब तक चक्कर खाते और ऊपर उठते रहते हैं, जब तक कि सारा आकाश ढक नहीं जाता और जब वे चक्कर लगाते ऊपर उठते हैं तो पूरा आकाश टिमटिमाने लगता है।
असीम उजाड़ में स्वर्ग के शीतल मेहराब के नीचे यह चमचमाती, सर्पिल गति से नाचती प्रेतात्मा बारिश का भूत है।
18 जनवरी 1925

पतझड़ की रात

मेरे घर के पिछवाड़े की दीवार के उस पार आपको दो पेड़ दिखाई देंगे: एक खजूर का पेड़ है और दूसरा भी खजूर का पेड़ है। उनके ऊपर अनूठा और ऊँचा रात्रिकालीन आकाश है। मैंने पहले कभी ऐसा अनुपम और उत्तुंग आकाश नहीं देखा। लगता है कि वह आदमियों की दुनिया छोड़ देना चाहता है, ताकि जब लोग सिर उठायें तो उसे देख ही न पायें। हालाँकि इस क्षण यह पूरी तरह नीला है और इसकी सितारेनुमा आँखें भावशून्य टिमटिमा रही हैं। एक बुझी-बुझी सी हँसी इसके होंठों के इर्दगिर्द खेल रही है, एक ऐसी हँसी जो काफी अर्थपूर्ण लगती है और पाले की मोटी परत से हमारे अहाते के जंगली पौधों को ढँक रही है।
मुझे पता नहीं कि इन पौधों को क्या कहते हैं, अमूमन किन नामों से ये जाने जाते हैं। मुझे याद है कि उनमें से एक पर छोटे-छोटे गुलाबी फूल खिलते हैं और ये फूल अभी भी कायम हैं, हालाँकि ये पहले से कहीं ज्यादा छोटे हैं। जाड़े की रात की ठंडी हवा में काँपते हुए ये सपना देख रहे हैं- वसन्त आने का सपना, पतझड़ आने का सपना, जब कोई दुबला पतला कवि उनकी अन्तिम पंखुरियों पर अपने आँसू ढलकाएगा जो कहता है कि पतझड़ आएगा, जाड़ा आएगा, लेकिन वसंत भी आयेगा जरूर जब तितलियाँ इधर उधर मंडराएंगी और समस्त मधुमक्खियाँ वसंत के गीत गुनगुनायेंगी। तब छोटे गुलाबी फूल मुस्कुराते हैं, हालाँकि ठण्ड से उनमें विषादमय लाली आ गयी है और वे अभी भी काँप रहे हैं।
जहाँ तक खजूर के पेड़ों की बात है, उनकी सारी पत्तियाँ झड़ गयी हैं। पहले एक या दो लड़के खजूर तोड़कर गिराने के लिए आये, जबकि बाकी लोग चूक गये। लेकिन अब एक भी खजूर नहीं बचा और पेड़ की पत्तियाँ भी गायब हो गयीं। गुलाबी फूलों ने पतझड़ के बाद वसंत आने का जो सपना देखा है, उसके बारे में इन्हें मालूम है और ये इस सपने से भी वाकिफ हैं कि पतझड़ में जो पत्तियाँ गिर गयी हैं, वे वसंत में फिर उग आयेंगी। भले ही उन्होंने सारी पत्तियाँ गिरा दी और अब केवल शाखाएं ही बची हुई हैं, लेकिन अब वे फलों और पल्लवों के बोझ से झुकी नहीं हैं। तभी तो वे आराम लहरा रहीं हैं। हालाँकि अभी भी कुछ टहनियाँ मुरझा कर लटक रही हैं और खजूर तोड़ने के दौरान छड़ी से उनकी छाल पर जो घाव लगे हैं वे धीरे-धीरे मर रहे हैं, जबकि जो टहनियाँ लोहे की छड़ की तरह सीधी और लंबी हैं वे आकाश की ओर तनी उसमें छेद करती महसूस हो रही है, तभी तो वह व्याकुल होकर आँखें मटमटा रहा है। वे पूर्णिमा के चाँद को भी बेध रही हैं जिससे वह बुझी-बुझी और बेचैन लग रहा है।
कातर भाव से आँखें मटमटाते हुए आकाश और नीला, और नीला होता जा रहा है, मानो वह चाँद को पीछे छोड़ते हुए आदमियों की दुनिया से भागना चाहता है और खजूर के पेड़ों से आँख चुराना चाहता है। लेकिन चाँद भी पूरब में खुद को छुपाये हुए है, जबकि अभी तक मौन और लोहे के छड़ की तरह दृढ नंगी टहनियाँ अनूठे और उतुंग आकाश में छेद कर के उस पर जान लेवा घाव करने पर आमादा हैं, चाहे वह अपनी सारी सम्मोहक आँखों से जितने ही तरीके से आँखे झपका ले।
एक खूंखार निशाचर पंछी चीखता हुआ गुजरा. अचानक मैंने आधी रात का ठहाका सुना. आवाज घुटी-घुटी थी, मानो सोये हुए लोगों को जगाना नहीं हो. हालाँकि हवा में वह आवाज अभी भी गूँज रही हैं. आधी रात का समय और आस पास कोई नहीं . एकाएक मुझे लगा कि हँसने वाला मैं ही हो सकता हूँ और एकाएक इस हँसी के मारे मैं अपने कमरे में वापस चला आया . एकाएक मैंने लैम्प की बत्ती उकसा कर तेज की .
पिछली खिड़की के शीशे से धक्-धक् की आवाज हुई जहाँ कीड़ों का दल बदहवासी में खुद को खिड़की के शीशे से टकरा रहा था। अभी-अभी उनमें से कुछ कीड़े खिड़की की दरार से अंदर घुस आये। जैसे ही वे अन्दर आये, वे लैम्प की चिमनी से टकराकर धक-पक कि आवाज करने लगे। एक तो चिमनी के उपरी हिस्से से लहराते हुए लैम्प की लौ पर जा गिरा और मुझे भ्रम हुआ कि यह लौ असली है या नहीं। दो या तीन कीड़े हाँफते हुए जाकर पेपर शेड पर बैठ गये। पेपर शेड अभी नया ही है, कल रात ही लगाया
था. झक्क सफेद कागज को लहरदार मोड़ कर बनाये नये इस शेड के एक कोने में छींटे मार कर खूनी-लाल गारडेनिया बनाया हुआ था।
जब खूनी-लाल रंग के गारडेनिया खिलेंगे तब छोटे गुलाबी फूलों के सपने की तरह ही खजूर के पेड़ भी अपनी टहनियों पर चमकीले पल्लव का सपना देखेंगे... और मैं फिर से आधी रात की हँसी सुनूँगा। मैं झटके से इन विचारों के श्रृंखलाभंग करता हूँ और पेपर शेड पर बैठे छोटे से हरे कीड़े की ओर देखता हूँ। सूरजमुखी के बीज की तरह उनका सिर बड़ा और पूँछ छोटी है। वे गेंहू के एक दाने से आधे आकार के हैं और वे सब के सब मोहक, भावपूर्ण हरे रंग के हैं।
मैं जम्हाई लेता हूँ, एक सिगरेट जलाता हूँ और लैम्प के आगे इन हरे और सूक्ष्म नायकों को मौन श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए धुँआ छोड़ता हूँ।
15 सितम्बर 1924

चित्तीदार पत्ती

लैम्प की रोशनी में सातुला (13वीं सदी के युवान साम्राज्य का मंगोल कवि) की कविताएँ पड़ते हुए उस किताब में दबी, एक सूखी मैपल की पत्ती मिली।
इसने मुझे पिछले साल के गुजरे पतझड़ की याद दिला दी। एक रात घना कोहरा था और ज्यादातर पेड़ों की पत्तियाँ झड़ चुकी थीं, जबकि मेरे बागीचे का एक मैपल गहरे लाल रंग का हो गया था। मैंने पेड़ का चक्कर लगाया ताकि उन पत्तियों को अच्छी तरह देख सकूँ, जिन्हें मैं उस वक्त नहीं देख पाया था जब वे हरी थीं। सारी की सारी पत्तियाँ लाल नहीं हुई थीं, बल्कि अधिकतर हल्के बैंगनी रंग की थीं और कुछ पर तो अभी भी गाढ़े लाल रंग की पृष्ठभूमि पर गहरे हरे रंग के धब्बे थे। उनमें से एक पत्ती ऐसी थी
जिसमें किसी कीड़े ने छेद बना दिया था और ऐसा लगता था जैसे रंगबिरंगे लाल, पीले और हरे धब्बों के बीच काली किनारी वाली छेद से वह पत्ती आपको अपनी चमकीली आँखों से घूर रही हो।
“यह पत्ती चित्तीदार हो गयी है।” मैंने सोचा।
इसीलिए मैंने उसे तोड़कर उस किताब के भीतर रख दिया, जिसे उसी दिन खरीदी थी। मेरे ख्याल से मुझे उम्मीद थी कि टूट कर गिरने से पहले ही मैंने उसकी चित्तीदार बहुरंगी छटा को कुछ समय के लिए सुरक्षित रख लिया था, जिससे वह बाकी पत्तियों के साथ ही डाली से बिछड़ कर उड़ती हुई दूर न चली जाय। लेकिन आज की रात यह पीली और चिकनी होकर मेरी निगाहों के आगे पड़ी है, इसकी आँखों में पिछले साल जैसी चमक नहीं है. कुछ और साल बीतने पर, जब इसके पहलेवाले रंग मेरी यादों से मिट जाते तो शायद मैं यह भी भूल जाता कि मैंने इसे किताब में क्यों रखी थी। ऐसा लगता है कि चित्तीदार पत्तियाँ जो झड़ने-झड़ने को हों, उनकी रंग-बिरंगी आभा, हमारी देख-रेख में सिर्फ कुछ ही समय तक टिकी रह सकती है, हरियाली कायम रखने की तो बात ही छोड़िये।
मैं अपनी खिड़की से देख रहा हूँ कि जिन पेड़ों ने जाड़े को अच्छी तरह झेल लिया है वे अब तक अपनी पत्तियाँ गँवा कर नंगे हो चुके हैं, यही हाल मैपल का भी है। इस साल पतझड़ के अंत में भी शायद पिछले साल की तरह ही चित्तीदार पत्तियाँ रही होंगी, लेकिन अफसोस की बात यह कि इस साल पतझड़ की रंगत का मजा लेने के लिए मेरे पास समय नहीं था। 26 दिसम्बर 1925. 

(यात्रा-7 से)

विमलेश त्रिपाठी की कविता : इस तरह मैं

(पृथ्वी की सभी अच्छी कविताओं में अद्भुत सखियारा है। कहीं से भी कोई अच्छी या कम अच्छी कविता उठाओ, लगता है कि अरे इनमें बड़ा एका है। ये एक-दूसरे से हिंदी के खराब कवियों की तरह न बैरभाव रखती हैं, न पुरस्कार और प्रशंसा को लेकर ईर्ष्या। हिंदी की अच्छी या कम अच्छी कविताएँ भी एक-दूसरे को बड़ा बनाती हैं, उन्हें अर्थ देती हैं, उन्हें पूरा करती हैं। विमलेश त्रिपाठी की एक अच्छी कविता ‘ इस तरह मैं’ , ’यात्रा-7 से लेकर प्रस्तुत करते हुए इतना ही कहना चाहता हूँ कि जैसे हर कवि का अपना रंग होता है, हर कविता का अपना वैशिष्ट्य,, उसी तरह इस कविता में भी कुछ है, कविता के पाठक की शक्ति पर भरोसा है। -यात्रा संपादक।)

विमलेश त्रिपाठी की कविता : इस तरह मैं

1.
धरती के साथ घूमता चिड़िया के साथ उड़ता
उगता खूब हरी दूब के साथ
तैरता रंगीन मछलियों के साथ अतल गहराइयों में

उगता रोज सूरज के साथ पहुंचता तुम्हारे घर की देहरी पर
डूब जाता धीरे-धीरे तुम्हारी आंख की पुतलियों में
रात हो जाता भयानक कभी
धीरे-धीरे नींद बन जाता
फिर सपने

जब कभी पुकारता कोई शिद्दत से
दौड़ता मैं आदमी की तरह पहुंचता जहां पहुंचने की बेहद जरूरत

मर-मर जाता कई-कई बार जहां मर जाने की बेहद जरूरत

इस तरह मैं आदमी एक
इस कठिन समय का
जिंदा रहता अपने से इतर बहुत सारी चीजों के बीच ।

2.

दुनियादारी के नियमों से अनजान
एक खास किस्म की लापरवाही ओढे
लोगों की नजरों में कवि हूं एक सोझबक

मेरे आस-पास के आदमी सोच की जिन सीढियों को कर गए हैं पार
उनतक पहुंचना अब मेरे लिए लगभग नामुंकिन
एक बड़े कवि की भाषा में श्मिसफिटश् मैं
सोचता हूं कि कविता की दुनिया में ही कहां फिट हूं

कविता और कविता के बाहर एक गुमनाम कवि की तरह
लड़ता हुआ समय के तीखे पहाड़ों   गहरी अंधी खाइयों से
और इसी बीच कविताएं बनती जाती असंख्य
सफेद कागज पर काले-काले अक्षर दौड़ते निरूद्देश्य
सचमुच का कोई आदमी नहीं बनता दिखता

नहीं दिखता कुछ भी सफेद
रोशनी के सारे कतरे जा रहे रसातल में
चिडियों की आवाजें लुप्त होती जातीं
गायब हो रहे सरेह से गिद्ध

कविता में आदमी को आदमी कहने से
शब्द कर रहे इनकार
गिरती हैं सियाहियां काले हो रहे पदबंध
लय भूलकर रास्ता चले जा रहे रोशनी की एक चमकती नदी में

और मैं इस तरह चुपचाप खड़ा देखता
कविता से रिक्त होती यह धरती धीरे-धीरे
शब्दहीन इस समय में
गुमनाम एक कवि मैं ।

3.

हर खाली दोपहर में एक हवा का झोंका
ले जाता बहुत दूर एक गांव में
जहां पहुंचने के पहले एक नदी पार करनी होती
कई गांवों से पड़ता गुजरना
धूल मिट्टी के कई गह्वर पार करने होते

बहुत पहले जब आया था गांव छोड़ इस शहर कोलकाता में
छूट गया आम का बगीचा
पानी से भरी नहर
खेत खूब लहलहाते
गीत-गवनई हंसी-ठिठोली
भगुआ-चौता कजरी - जंतसार
सिनरैनी-मेहीनी
और वह बेपरवाही जिसे याद कर कोई और रोता है कि नहीं
कह नहीं सकता
लेकिन मेरे बस्ते में रखी वह धूल रोती है हर दो पहर
जिसे लेकर आया था चलते-चलते

कह नहीं सकता कि वह धूल नदी पार करती है
या खुद मैं


गांव में अब रह गए हैं सिरफ पागल और बूढे
स्त्रियां गांव के चौखट पर परदेशियों के आने का अंदेशा लिए
जवान सब चले गए दिल्ली सूरत मुंबई कोलकाता
जंतसार की जगह गूंजता है मोबाईल का रिंगटोन
बहुत अश्लील एक गीत किसी भोंपू से निकल कर आता
बहुत शोर उठता हवा में

सूखते जा रहे हैं पेड़
खेत परती में बदलते जा रहे
नदी में उठ रहे बालू के टीले
बहुत पुरानी एक ढोलक जिसे छोटका बाबा बजाते थे
वह नंगी पड़ी है उतर गया उसके देह का चमड़ा

एक गली थी जिसमें खेलते थे बच्चे लूक्काछिपी आइस-बाईस
जमा हो गया है उसमें नाले का पानी
हो रहे हैं पैदा मच्छर असंख्य
हर खाली दोपहर में हवा का एक झोंका खीचकर ले जाता मुझे उस गांव
जहां एक ठिठुरती रात में मैं पैदा हुआ

हर दोपहर होता जाता मैं कुछ इस तरह उदास
जैसे मर गया हो अपना कोई बेहद आत्मीय

इस तरह कविता के बाहर मैं खोजता हूं वह गांव
जिसे बहुत जमाने पहले छोड़कर आ गया था कोलकाता
कि जहां पैदा हुआ था मैं
एक ठिठुरती रात में ...।।

4.

इस तरह मैं कि छूट गई गाड़ी के पीछे हिलते रह गए हाथ
एक हाथ से पेट और दूसरे हाथ से चटकल चलाता मेरे गांव का सैफूदीन
मन के भीतर अनबोले रह गए अंउसाए हुए वे शब्द
जिनका बोला जाना हमारे मनुष्य बने रहने के लिए बेहद जरूरी था

वे अधूरी कविताएं नींद के बीच रात में चहलकदमी करतीं हिसाब मांगती हुईं
मेरा दोस्त जिसके पिता अस्पताल में हृदय गति रूक जाने से मरे
कारण उनकी सांसों के लिए जरूरी इंधन के नाम पर मेरे दोस्त के पास ,
सिर्फ नौकरी की अर्जियां थीं

कि स्टेशन से मेरे गांव तक गई वह सड़क
जिसकी मरम्मत हुई रहती तो बच जाते भगेलू यादव और उनके संबंधी
जो लौट रहे थे बारात से उसी सड़क की मार्फत

इस तरह मैं कि एक औरत के जज्बात जो औरत होने के अंधेरे में गुम गए
कि राग की उठान पर फंसी कोई आवाज
महफिल की जवानी पर वज्रपात की तरह उभरी कोई खांसी
कि उम्र की ढलान पर दिमाग में जिद की तरह अंकित रह गई समृतियों की चिंदी
कि गुमटी पर काम करने वाला वह बच्चा
और उसकी हसरत भरी आंखें देखती हर मुसाफिर को
जो ठहरता चाय पीने के नाम पर थोड़ी देर सुस्ताने के लिए
कि भीख मांगने के लिए फैले अस्सी बरस के सूखे हाथ
जो उठ सकते थे अपनों को अशीषने के लिए
लेकिन वे फैले बीच बाजार
क्योंकि समय खराब है
और यह इसलिए इस समय हम बहुत कम आदमी रह गए हैं

इस तरह मैं कि बिना किसी तर्क के बाजार में खड़ी वह लड़की
जिसके लिए पेट और पेट के नीचले हिस्से में फर्क नहीं कोई ।

5.

जहां चुप रहने की जरूरत
चुप रहूं
बोलने की जरूरत जहां
बोल सकूं बेधड़क

इस तरह मैं
सच को सच
और झूठ को झूठ
बोलूं

और इस तरह
बोलने और चुप रहने पर
कोई शर्म न हो ।


बुधवार, 11 दिसंबर 2013

नील कमल की लंबी कविता: ककून

(किसी अच्छी कविता को प्रस्तुत करते हुए अलग से कवि या आलोचक या संपादक के वक्तव्य की जरूरत नहीं होती है। जरूरत होती है तो अच्छी कविता की आँख से कविता को देखने वाले पाठक की। किसी कविता का पाठक ही उसका सबकुछ है। कविता है तो उसके लिए और नहीं है तो उसके लिए। इससे अधिक एक शब्द नहीं नील कमल की इस यादगार लंबी कविता ‘ककून’ के बारे में। पाठक के अनुभव और स्मृति में कविता की आत्मा का वास होता है। आप खुद देखें और कविता को अनुभव करें। -यात्रा संपादक)


ककून



शहतूत के बगीचों से
वे उठा लाए हैं हमें अजन्मा
और उबाल रहे हैं हमारी ज़िन्दगियाँ

देखो देखो, वे हत्यारे

जिनके चेहरों पर चमक सिक्कों की
लकदक जिनकी पोशाकें नफासत वाली

देखो, वे हमें मारने आए हैं

आवाज़ जिनकी रेशमी मुलायम
शहद जैसी मीठी तासीर वाली

शहतूत के बगीचों में आओ, ओ कवियो

उठाओ हमें किसी एक पत्ती से
अपने कान तक ले जाओ, आहिस्ता
सुनो कभी न थमने वाला शोकगीत !

शहतूत के पेड़ ही थे हमारे घर

उन्होंने उगाए शहतूत के जंगल
हमारी भूख के हथियार से किया
हमारा ही शिकार, ओ सरकार
भूख ही रहा हमारा अपराध

उत्तर दिशा में, हिमालय पार

एक रानी पी रही थी चाय
अपने शाही बगीचे में
तभी एक गोल सी चीज़
आ गिरी चाय के कप में

रानी को आता गुस्सा

इससे पहले ही चाय के कप में
तैरने लगी कोई चमकदार सुनहरी चीज़
रेशा-रेशा हो फैल गई वह, चमक बन
रानी की आँखों में

जारी हुआ फरमान

पता करो कहाँ से आई
वह गोल सी चीज़, आखि़र कहाँ से
हाय, उसी दिन पहचान लिए गए
हमारे घर, जो थे वहीं
शहतूत के पेड़ों पर

हद तो यह कि एक खूबसूरत स्त्री ने

अपने बालों में छुपा ही लिया हमें
और निकल पड़ी वह सरहद पार
रानी के कप में गिरी गोल सी चीज़
जानी गई दुनिया भर में
“ककून” के नाम से

बीज के भीतर

जैसे सोता है वृक्ष
सोये थे हम ककून में
उसे फोड़कर निकलना था
हमें उड़ना था खुली हवा में
हाय, मारे गए हम अजन्मे !

रेशा-रेशा हुए हम, ओ सभ्य लोगों

और रेशम कहलाए, सुनहरे-चमकदार

शहतूत की पत्तियाँ खाईं हमने और

उन्हें बदल दिया इस धरती के
सबसे मुलायम धागों में

उन धागों से

बुने गए, ओ लोगों
दुनिया के सबसे गर्म और
आरामदायक स्कार्फ, कमीज़ें और साड़ियाँ

कितने ककून मारे गए

तब बना उसके गले का स्कार्फ

क्या वह लड़की जानती है

हमारी हत्याओं के बारे में  

क्या उसे पता भी है

शहतूत की पत्तियों के बारे में

किसी रईस आदमी के तन पर

सजी एक आधे बांह की कमीज़
जब हजारों की तादाद में मारे गए हम

किसी प्रेमिका को जन्मदिन पर

उसके प्रेमी ने उपहार में दी
जो बेशकीमती साड़ी उसके लिए
कई हज़ार ककून नहीं बढ़ा सके
अगला कदम ज़िन्दगी की ओर

टूटी हमारी साँसों की डोर

तो सबसे हल्की पतंगों ने
छुए नभ के छोर
सबसे हल्की डोर
हमारी साँसों से बनी है

पत्तियाँ शहतूत की

हरी-हरी पतंगें ही तो हैं,
हमारी देह में उड़ती हुई पतंगें !

क्या रेशम पहनने वालों ने

देखी होंगी पत्तियाँ शहतूत की,
क्या उन्हें मालूम है
अथाह रसीलापन है इसमें
यही पत्तियाँ रहीं आसरा
हमारे लिए, क्षुधा के निमित्त !

क्षुधार्त जीवन इस पृथ्वी पर

सबसे बड़ा अभिशाप
भूख नाम न सही किसी व्याधि का
शायद किसी दैत्य का ही नाम हो
हर युग में जिसे मारना रहा असंभव
वह  मर-मर कर अमर रहा
युगों-युगों तक अपराजेय इसी पृथ्वी पर

हत्यारों, क्या तुम बना सकते हो

चित्र शहतूत की एक पत्ती का ?

न सही रंग कोई रेखाचित्र ही आँक दो

और बाद इसके
आसमान के कैनवास पर उसे टाँक दो

अपने बच्चों से कहो

किसी दिन वे उठाएँ पेंसिल
और ड्राइंग की कॉपी में
बनाएँ पेड़ एक शहतूत का
एक-न-एक-दिन वे ज़रूर पढ़ेंगे
अपनी किताबों में, रेशम के कीड़ों के बारे में
तब वे बचाना चाहेंगे पेड़ शहतूत के

जिन बच्चों ने नहीं देखे

शहतूत के पेड़ों पर ककून
वे कैसे समझ पाएंगे
मिस शालिनी माथुर की
गुलाबी-नीली साड़ियाँ
किन धागों से बुनी गईं

पिछली सर्दियों में

क्लास के सबसे शर्मीले
लड़के जॉन कंचन टप्पो ने
बगल में बैठने वाली गुमसुम
लड़की साइकिया मोनांज़ा को
क्रिसमिस के दिन जो गुड़िया दी उपहार
उसकी  फ्रॉक भी निकली  रेशम की  !

इस रेशम-रेशम दुनिया की

खुरदुरी कहानी हैं हम, ओ प्रेमियों
हमारे जीवन-चक्र के साथ यह कैसा कुचक्र

जॉन कंचन टप्पो ने

पढ़ा है अपनी किताब में
पढ़ा है साइकिया मोनांज़ा ने
कि हुआ करता है कीड़ा एक
रेशम का, जो पाया जाता है
शहतूत के पेड़ों पर

शहतूत की डाल पर

चलती है लीला
रेशम कीट लार्वा की
जिसकी भूख है राक्षसी
चाट जाता है जो
शहतूत की पत्तियाँ
और अपनी देह से अब
तैयार करता है एक धागा
लपेटता चला जाता है खुद को
अपने ही धागों में

जुलाहों के इतिहास में

कहीं ज़िक्र तक नहीं उनका
जो खुद अपनी ही देह से
कातते सूत, सुनहरे-मुलायम
यह तसर
यह मूँगा
यह एरी
एक से बढ़कर एक
ये अद्भुत अनुपम धागे

यह देह-धरे का दण्ड ?

हाँ, देह-धरे का दण्ड ही तो
कि इस धागे के पीछे भागे
कितने ही आमिर-उमराव
भागे राजा-मंत्री-सैनिक
गंधर्व-किन्नर-अप्सराएँ सब
राजा-परजा सबके सपनों में
रहा चमकता धागा वह एक सुनहरा !

मरना होगा, मरना ही होगा

रेशमकीट उन लार्वों को
यही उनके देह-धरे का दण्ड
आखिर सुनहरे मृगछाल के लिए
भागे थे प्रभु स्वयं इसी धरा पर
यह तो मामूली कीट अतिसाधारण

खूब खाए पत्ते शहतूत के

छक कर चूसे रस और अब
कात रहे हैं पृथ्वी पर उपलब्ध
सबसे मुलायम-चमकदार सूत
कि बना रहे कब्र अपने ही लिए
कैसा अद्भुत यह घर रेशम का

इसी घर में बनने थे पंख

इसी घेरे में रची जानी थीं आँखें
इसी गोल रेशमी अंडे के भीतर से
फोड़कर कवच, तोड़कर धागे
संवरना था एक जीवन को
पूरा होना था एक चक्र
जीवन-चक्र एक रेशम कीट का !

जीवन-चक्र वह अंततः रहा अवरुद्ध

रहीं अवरुद्ध हमारी आवाज़ें
क्योंकि देश का अर्थ बाज़ार

लगता है कभी-कभी कि देश

बड़ी सी मण्डी है रेशमी इच्छाओं की
एक बहुत बड़ा पेड़ शहतूत का यह देश
जिसके नागरिक ककून करोड़ों में
उतना ही बढ़ने दिया जाएगा इन्हें
की मण्डी में आता रहे रेशम
प्रभुओं के लिए

कौन हैं, कौन हैं ये प्रभु

जिनके लिए बिना पूरा जीवन जिए
मर जाते हैं हम, कि मार दिए जाते हैं

मुट्ठी भर प्रभुओं के तन पर रेशम का मतलब

करोड़ों नागरिक ककूनों कि असमय मृत्यु
स्कूलों में मारे जाते शिशु-ककून
कॉलेजों में मारे जाते युवा-ककून
घरों में दम तोड़ती स्त्री-ककून
दफ्तरों कारखानों में
मृत्यु का वरण करते
मजदूर-ककून !

नियति उन सबकी एक

जीवन उन सबका एक
मृत्यु उन सबकी एक

मुट्ठी भर रेशमी ज़िंदगियों के लिए

करोड़ों के खिलाफ यह कैसा एका

नहीं नहीं यह नहीं चलेगा

प्रभुओं का यह दुर्ग ढहेगा
शहतूतों के पेड़ उगेंगे
रेशम वाले फूल खिलेंगे

लेकिन यह सब कौन करेगा ?


पीठ पर जमी

जिद्दी-मैल सी चिपकी
रेशमी इच्छाएँ मरेंगी
हाँ मरेंगी अंततः क्योंकि
धैर्य हमारा चुक रहा है
शहतूत के पेड़ों पर
काते जा रहे सूत से
इस बार नहीं बनेंगे
स्कार्फ, कमीज़ें और साड़ियाँ
करोड़ों ककून चटकेंगे एक साथ
बिखर जाएंगे रेशा-रेशा हवाओं में

रस्सियाँ बहुत मजबूत मोटी रेशम वाली

होंगी तैयार और निकल पड़ेंगी गर्दनों की तलाश में ...

- नील कमल

(यात्रा-7 से)