-आनन्द पाण्डेय
धर्म, क्षेत्र, जाति, लिंग, राष्ट्र, राज्य आदि की तरह ही भाषा भी किसी व्यक्ति अथवा समुदाय की अस्मिता का एक आधार होती है। भाषा किसी समुदाय और जाति की पहचान का सबसे प्रखर माध्यम और भेदक लक्षण है। दुनिया भर में विभिन्न अस्मिताओं ने अपनी भाषाओं को अपने से जोड़कर देखा है क्योंकि विभिन्न संस्कृतियों और समाजों का निर्माण भाषा के आधार पर हुआ है। संस्कृति की पहचान भाषा के आधार पर होती है। तमिल संस्कृति, मराठी संस्कृति, बांग्ला संस्कृति आदि नाम इसी बात को साबित करते हैं।
भाषा अगर मनुष्य को सभ्य और न्यायप्रिय बनाती है, उसमें समता का भाव जगाती है तो वही शोषण और उत्पीड़न का माध्यम भी है। एक भाषा ने दूसरी भाषा पर वर्चस्व बनाया और विजित जातियों के लोगों के बारे में अपने पूर्वग्रहों और भेदभावों को व्यक्त किया तथा उनके बारे में झूठे प्रचार किये और उनको हीन साबित किया। उनकी मानसिकता को जीतने और उनको हतोत्साहित करने के लिए उनके बारे में गलत और आपत्तिजनक विचारों को स्थापित और प्रचारित किया। अगर उत्पीड़ित और उत्पीड़क की भाषा अलग-अलग हो तब उतनी समस्या नहीं होती, लेकिन जब दोनों एक ही भाषा का व्यवहार बहुत लंबे समय से करते आ रहे हों तब उत्पीड़ित अस्मिताओं को अपने साथ हुए अन्याय का बोध भाषा करा देती है, तब यह भाषा उनकी अनुभूतियों और विचारों को अभिव्यक्ति देने में अक्षम साबित होती है। उत्पीड़ित लेखकों को ऐसी भाषा अधूरा और अन्यायपूर्ण आत्मबोध और जगद्बोध देती है। ऐसी स्थिति में लेखकों को भाषा के लिए संघर्ष करना पड़ता है और अपनी भाषा विकसित करनी पड़ती है।
हिन्दी एक ऐसी ही भाषा है जिसमें वर्णव्यवस्थावादी व पितृसत्तावादी विचारधारा और उससे उपजे संस्कार रचे-बसे हुए हैं। भवदेव पाण्डेय ने स्त्री और दलित-अस्मिता-विमर्श के तर्कों के आधार पर हिन्दी भाषा और उसके लेखकों के सवर्णवादी और पुरूषवादी चरित्र को रेखांकित करते हुए लिखा है, ‘‘इतिहास साक्षी है कि संस्कृत और हिन्दी के कोशकारों ने दलित और स्त्री-वाचक शब्दों के साथ भारी छल किया है. एक तो ये सभी कोशकार पुरूष-दंभ से आक्रांत थे, दूसरे सवर्णवादी संकीर्ण मानसिकता के भी शिकार थे। यह इनका दोष नहीं था क्योंकि दूसरे शास्त्रवादियों की तरह ये रूढ़िगत और अलगाववादी सामाजिक संरचना के ही उत्पाद थे। इन लोगों ने साहित्य, धर्म, दर्शन और अध्यात्म पर तो हजार-हजार वितंडाएं खड़ी कीं, लेकिन दलितों और स्त्रियों से सम्बद्ध शब्दार्थों में न कोई मौलिक कल्पना की, न ही समाज के मनोवैज्ञानिक परिवर्तन को दृष्टि में रखकर नव अर्थांतरण ही किया। सवर्णवादियों के लिए शूद्र केवल शूद्र थे और पुरूषों के लिए और औरत महज औरत थी। शूद्रों को अपमान और स्त्रियों को संभोग के खूंटे से बांधकर रखने के सांस्कृतिक अधिकार इनके पास सुरक्षित थे।’’
बीसवीं सदी के अंतिम दशक में जब स्त्री और दलित अस्मिताओं ने अपना आत्मरेखांकन आरंभ किया और उसके लिए साहित्यिक और सामाजिक विमर्श चलाया तब उन्हें इस बात का एहसास हुआ कि जिस भाषा में वे अपने अनुभवों और विचारों को व्यक्त करने की कोशिश कर रहे हैं, वह उनके लिए पर्याप्त साबित नहीं हो पा रही है। इसलिए नब्बे के दशक में स्त्री और दलित-अस्मिता-विमर्श और साहित्य और आलोचना के उभार के साथ-साथ हिन्दी में भाषा और अस्मिता के प्रश्न सतह पर आए गये। तमिल, तेलुगु और मराठी आदि की तरह दलित और स्त्री भाषाई अस्मिता नहीं हैं। उनके विमर्श भी वैसे नहीं हैं जैसे भाषाई अस्मिताओं के होते हैं। जिसके तहत एक भाषा-भाषी समुदाय दूसरे भाषा-भाषी समुदाय के वर्चस्व या उसके साथ अपने हितों के टकराव के कारण अपनी भाषा की अस्मिता को दूसरी भाषा के विरोध के माध्यम से रेखांकित करता है। जैसे दक्षिण भारत के राज्यों में हिन्दी विरोध के आधार पर तमिल इत्यादि भाषाई अस्मिताओं ने अपने को रेखांकित किया। भाषाई अस्मिता-विमर्श और किसी अस्मिता के भाषा संबंधी विमर्श अलग-अलग हैं। भाषाई विमर्श अस्मिता-विमर्श का एक रूप है। भाषाई अस्मिता-विमर्श के आधार पर ही भारत में केवल हिन्दी को लेकर ही अन्य भाषा-भाषियों में असुरक्षा और गुस्सा का भाव नहीं है बल्कि सभी भाषाएं एक दूसरी से असुरक्षित महसूस करती हैं। इस बात को रामविलास शर्मा ने स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘‘भय केवल हिन्दी से अहिन्दी भाषियों को नहीं रहा; भय है बंगालियों को असमिया से, मराठी भाषियों को गुजराती, तेलुगुभाषियों को तमिल से इत्यादि। और अंग्रेजी को गले लगाये रखने के लिए सब तैयार हैं!’’
इस तरह के विमर्श राजनीतिक धरातल पर अधिक खुले और बड़े मुद्दे के रूप में सामने आते हैं। इसके पीछे अपनी भाषा में निहित वर्चस्व की प्रवृत्ति नहीं होती है। जबकि हिन्दी के संदर्भ में दलित और स्त्री अस्मिताओं की भाषा वही है जो सवर्ण पुरूष की है। यहां मुद्दा किसी दूसरी भाषा के विरोध का नहीं है, बल्कि भाषाई चरित्र का है। इस अर्थ में हिन्दी के ये स्त्री और दलित-विमर्श हिन्दी भाषा के स्त्री-विरोधी पुरूषवादी और दलित-विरोधी सवर्णवादी चरित्र के विरोध और उससे निजात पाने के तरीकों पर केन्द्रित हैं। यहां प्रश्न एक भाषा के भीतर जमे बैठे स्त्री और दलित-विरोधी संस्कारों और पुरूषवादी-सवर्णवादी विचारों से मुक्ति का है। एक तरह से ये हिन्दी भाषा की मुक्ति के विमर्श हैं। यह अलग बात है कि कुछ विचारक इन संस्कारों और विचारों के विरोध की बजाय हिन्दी भाषा का ही विरोध करने लगते हैं। ऐसे लोगों के यहां भाषा की मुक्ति की नहीं बल्कि भाषा से मुक्ति की प्रवृत्ति मिलती है।
चंद्रभान प्रसाद हिन्दी समेत समस्त भारतीय भाषाओं को वर्ण-व्यवस्थावादी चरित्र, सवर्णवादी मानसिकता की वाहिका और भेदभाव की समर्थक मानते हैं। इसी लिए वे भारतीय भाषाओं की जगह अंग्रेजी को दलितों की मुक्ति के लिए अधिक उपयोगी मानते हैं। उन्होंने हाल ही में अंग्रेजी माता के मंदिर की स्थापना का आन्दोलन शुरू किया है। उनकी रणनीति यह है कि दलितों की धार्मिक भावना से जोड़कर अंग्रेजी को उनके बीच शीघ्रता और आसानी से लोकप्रिय बनाया जा सकता है। उनके अस्मितावादी भाषा-विमर्श के प्रमुख बिन्दुओं को वीर भारत तलवार ने व्यवस्थित रूप में इस प्रकार रखा है, ‘‘अब मैं चंद्रभान के इस पक्ष का जिक्र करना चाहता हूं कि हिन्दी एक भाषिक बुराई है। चंद्रभान का यह तर्क है कि कोई भी भाषा अपने समाज के इतिहास, संस्कृति परंपराओं और मूल्यों की भी वाहक होती है। इस दृष्टि से हिन्दी और सभी भारतीय भाषाएं लंबे समय से भारतीय वर्ण-व्यवस्था और जातिप्रथा की संस्कृति और उसके दलित-शूद्र विरोधी मूल्यों से इतनी दूषित हो चुकी हैं कि दलित उन्हें नहीं अपना सकते। इसलिए बेहतर होगा कि ये भाषाएं जल्द से जल्द भारत से गायब हो जाएं। इनकी जगह दलितों को अंग्रेजी भाषा को अपनाना चाहिए जो उन्हें एक ज़्यादा लोकतांत्रिक, आधुनिक और व्यापक अंतर्राष्ट्रीय समाज से जोड़ती है और उनके लिए बौद्धिक विकास का ज़्यादा बड़ा रास्ता खोलती हैं।’’
दलित अस्मिता की भाषा संबंधी समस्याओं पर चंद्रभान प्रसाद की मान्यताएं भाषा वैज्ञानिक, ऐतिहासिक और जनवादी न होकर प्रतिक्रियावादी, मध्यवर्गीय मानसिकता की उपज और अव्यावहारिक हैं। यह सही है कि भाषा एक ऐसी प्रौद्योगिकी है जो व्यक्ति को समर्थ और सशक्त बनाती है। इससे संपन्न होने से वह न केवल रोजगार प्राप्त कर अपनी आर्थिक और सामाजिक हैसियत बढ़ा सकता है बल्कि इसके माध्यम से सौंदर्य और विचारों का भी सृजन कर सकता है। वह भाषा अगर बाजार, राजनीति और अभिजात्य वर्ग में सम्मानित हो तब यह बात और अधिक लागू होती है। कहने की जरूरत नहीं कि अंग्रेजी भाषा ऐसी ही भाषा है जिसके माध्यम से न केवल आज का करोबार चलता है बल्कि राजनीति और सांस्कृतिक गतिविधियां भी चलती हैं। देश का संभ्रांत तबका इसे अपनी शिक्षा और जीवन व्यवहार का माध्यम बनाकर चल रहा है इसलिए यह भाषा आज उन्नति और इज्जत के जरूरतमंद आदमी या समुदाय के लिए अभिप्रेत है। आज का हर भारतीय अंग्रेजी बोलना और समझना चाहता है। ऐसे में दलित अस्मिता के लिए तो यह वरदान हो सकती है जो पहले से ही उन भाषाओं के जातिवादी और सवर्णवादी चरित्र का शिकार हैं, जिनके माध्यम से उनका काम-काज चलता है। लेकिन, हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं को त्याग देने, अपनी जिन्दगी और मानसिकता से निकाल देने की बात जितनी आकर्षक और मुक्तिदायिनी लगती हैै, उतनी आसान, व्यावहारिक और कल्याणकारी नहीं है।
दलित अस्मिता की मुक्ति और सर्वांगीण उन्नति के लिए अंग्रेजी की उपयोगिता को खारिज करते हुए और मातृभाषाओं के महत्व को रेखांकित करते हुए तुलसीराम ने यह प्रतिपादित किया है कि अंग्रेजी दलितों के विकास और उनकी शिक्षा में एक बड़ी बाधा है। उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में चंद्रभान प्रसाद की मान्यता का विरोध करते हुए कहा है, ‘‘भविष्य के नष्टकर्ता के रूप में अंग्रेजी का एक रोल है। वो कैरियर नहीं बनाती, बल्कि उसको बिगाड़ देती है: इसीलिए सिक्सटीज के दशक में अंग्रेजी विरोधी आन्दोलन चला। 1966 के आस-पास बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय ने उसे लीड किया था। हम लोग वहां छात्र थे और सभी उसमें शमिल थे। एक वातावरण बना था अंग्रेजी के खिलाफ और कई बोर्ड्स ने अंग्रेजी की शिक्षा को कंपल्सरी के बदले ऑप्सनल कर दिया था। अन्यथा जिस समय अंग्रेजी अनिवार्य होती थी, उत्तर प्रदेश और बिहार मंे हाईस्कूल और इंटरमीडिएट का पासिंग रिजल्ट 30-35 प्रतिशत से अधिक नहीं होता था। इस तरह से देखा जाय तो अंग्रेजी ने लाखों बच्चों का भविष्य अंधकार में डाल दिया। एक पूरी की पूरी पीढ़ी को अंग्रेजी ने बरबाद कर दिया। अगर आजादी के बाद अंग्रेजी के एकूमुलेटेड प्रभाव का अध्ययन किया जाए, तो उजागर होगा कि लाखों-लाख बच्चों का भविष्य आजादी के बाद से अब तक अंग्रेजी ने बरबाद किया है, क्योंकि उसमें फेल हो जाने के बाद बच्चे आगे नहीं पढ़ पाए। यह संख्या करोड़ों तक पहुंचेगी।’’
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने बहुत पहले अपनी एक कविता में कहा था, ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।’ भारतेंदु की इस मान्यता के आलोक में देखें तो चंद्रभान प्रसाद द्वारा सुझाया गया समाधान दलितों के लिए कल्याणकारी होने से अधिक विनाशकारी साबित हो सकता है। आज अंग्रेजी भारतीय समाज की सबसे बड़ी आकांक्षा है, बिना इस बात की ंिचंता किए कि यह आकांक्षा पालना कितना फायदेमंद और कितना नुकसानदेह हो सकता है। आज सभी, सवर्ण, स्त्रियां, आदिवासी, दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक अंग्रेजी की ओर भाग रहे हैं। भारतेंदु की उक्त सलाह को ध्यान में रखे बिना। यह सलाह केवल दलितों को या किसी एक समुदाय विशेष को नहीं दी जा सकती कि वे अंग्रेजी न सीखें, आज उनके लिए भी अंग्रेजी वैसी ही आकर्षक और जरूरी है, जैसी सवर्णों के लिए। लेकिन चाहे सवर्ण हों या दलित, किसी को भी अपनी मातृभाषा छोड़ने और कोई परायी भाषा के नियम या विचार से बांधना खतरनाक और अस्वाभाविक है। भाषा संस्कृति और परंपरा का पर्याय है। मातृभाषा त्यागने का अर्थ है सामूहिक रूप से अपनी संस्कृति और हजारों साल के अनुभव, स्मृतियांे और इतिहास से विच्छेद। हर तरीके से अपनी जड़ों से कटकर दुनिया की एक दिशाहीन और दोयम दर्जे की नागरिकता पा लेना, जो किसी भी कौम के लिए बहुत खतरनाक बात है, लगभग सामूहिक आत्महत्या करने जैसी खतरनाक बात। दुनिया भर के भाषावैज्ञानिकों और संस्कृति के अध्येताओं ने मातृभाषा को किसी मनुष्य या समुदाय के लिए सबसे उपयुक्त और लाभकारी भाषा माना है। उसके माध्यम से ज्ञान-विज्ञान और साहित्य तथा कला में जैसी उन्नति की जा सकती है वैसी किसी परायी भाषा में नहीं। आज भी अंग्रेजी की शिक्षा और जानकारी प्राप्त करना आर्थिक रूप से सक्षम और सामाजिक रूप से उच्चतर तबके की पहंुच में है। स्कूलों के माध्यम से जो थोड़ी-बहुत अंग्रेजी की जानकारी ग्रामीण किसानों, मजदूरों, दलितों और आदिवासियों को मिल पाती है उससे वे उसमें काम-काज या अभिव्यक्ति करने के काबिल नहीं हो पाते। यही बात अधिकांश छोटे शहरों के बारे में भी सही है। इसके अलावा जिनकी अंग्रेजी अच्छी समझी जाती है उनमें से भी अधिकांश लोग उसमें न कुछ गंभीर चीज लिख सकते हैं और न ही केवल उससे उनका जीवन और शिक्षा का काम पूरा हो सकता है। अंग्रेजी सीखने की और उसमें अपना जीवन चलाने की सुविधा केवल मुट्ठीभर उच्च वर्ग को प्राप्त है। ये भी अपने समग्र सांस्कृतिक विकास के लिए अपनी-अपनी मातृभाषाओं का सहारा लेते हैं। मातृभाषाओं से कट कर वे भी अधूरे रह जाएंगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि अंग्रेजी आज भी सांस्कृतिक रूप से परायी भाषा है। ऐसी परायी भाषा के माध्यम से कोई भी व्यक्ति या समुदाय अपना समग्र विकास नहीं कर सकता है- ऐसा प्रकृति और संस्कृति का नियम है; अगर वह अपनी मातृभाषा का पूर्णतः बहिष्कार कर देता है।
जिस तरह की बात चंद्रभान प्रसाद ने सुझायी है उस तरह की बात दुनिया के किसी समाज के बारे में लागू हुई है, कह पाना बहुत मुश्किल है। कोई व्यक्ति अपनी भाषा, जिसने उसे बोलना, सोचना और समझना सिखाया, जिसने उसे दुनिया की समझ दी, को अचानक छोड़कर दूसरी भाषा को अपना ले और अपना पूरा जीवन उसी में जीने लगे; यह बात काल्पनिक है। व्यावहारिक स्तर पर यह संभव नहीं है। वीर भारत तलवार ने ठीक ही लिखा है, ‘‘भाषाओं को उस तरह से छोड़ा या अपनाया नहीं जा सकता जिसकी मांग चंद्रभान प्रसाद करते हैं। भाषाओं पर इतिहास, संस्कृति और परंपराओं की छाप जरूर होती है लेकिन इनमें होने वाले विकास और बदलावों के साथ-साथ भाषा का स्वरूप और चरित्र भी बदलता जाता है। इसलिए सवाल इन भाषाओं को छोड़ देने का नहीं है, बल्कि समाज में उस संस्कृति और उन प्रथाओं के खि़लाफ़ लड़ने का है जो इन भाषाओं के स्वरूप पर अपनी छाप छोड़ती हैं।’’ कहने की जरूरत नहीं कि आज भी दलितों की मुक्ति और उनके सशक्तीकरण का माध्यम उनकी मातृभाषाएं हैं। उनकी सामूहिक मुक्ति के लिए मातृभाषाओं और भारतीय प्रांतीय भाषाओं को समृद्ध किया जाना सबसे आवश्यक और स्वाभाविक है। यही सबसे व्यावहारिक भी है। इन भाषाओं के माध्यम से जब वे अपना थोड़ा विकास कर लेंगे, तब वैसे ही स्वाभाविक रूप से अंग्रेजी सीख लेंगे जैसे कि अन्य समुदायों का विकसित और विकासशील व्यक्ति कर लेता है।
हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं का जातिवादी चरित्र और सवर्णवादी मानसिकता तथा शब्दावली जगजाहिर है। भाषा की यह समस्या आम तौर पर उन लेखकों के साथ है जो सवर्णवादी मानसिकता के लेखक हैं। ऐसे लेखक या तो जानबूझकर ऐसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं या फिर अनजाने ही उनके जातिवादी-सवर्णवादी-पुरूषवादी संस्कार भाषा में आ जाते हैं। इसके अतिरिक्त लोक-जीवन में भी भाषा का जातिवादी चरित्र सामने आता है। यह समस्या भी सवर्ण या गैर दलित लोक के साथ है। भाषा की ये समस्याएं धीरे-धीरे दूर हो रही हैं और जो बची हुई हैं, उन्हें आसानी से दूर किया जा सकता है- आन्दोलन और जागरूकता फैलाकर। लेकिन, दलित अस्मिता की भाषा समस्या पर विचार करते हुए इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि दलितों की अभिव्यक्ति और रचना की लम्बी और सबल-समृद्ध परंपरा रही है। उन सब में जहां-जहां दलित-अस्मिता की चेतना है वहां-वहां भाषा का चरित्र दलित विरोधी न होकर जातिवाद विरोधी अथवा वर्णव्यवस्था विरोधी है। उदाहरण के लिए कबीर की भाषा को लिया जा सकता है। उसमें उन शब्दों और अवधारणाओं का प्रयोग मिलता है जो ब्राम्हणवादी लगती हैं, लेकिन उन्होंने उनका अर्थ बदल दिया है और वे पूरी तरह से जातिनिरपेक्ष हो गयी हैं। इसका एक रोचक उदाहरण है- ‘राम’ शब्द या संज्ञा, जो कबीर के यहां वही नहीं है जो सगुण कवियों के यहां हैं। इससे यह पता चलता है कि जब सामाजिक संरचना बदल जाएगी तो भाषा का चरित्र और अर्थ भी बदल जाएगा, क्योंकि शब्दों का अर्थ बहुत कुछ संदर्भ पर निर्भर करता है कि उनका प्रयोग किस संदर्भ में किया गया है।
यह बात भी ध्यान में रखने लायक है कि दलितों की अपनी लम्बी भाषा-परंपरा है। लोक-भाषाओं में अभिव्यक्ति की यह परंपरा पुराने जमाने से चली आ रही है जिसे दलितों की भाषा कह सकते हैं। ये अभिव्यक्तियां मोटे तौर पर दलित-चेतना की अभिव्यक्तियां हैं इसलिए इसमें सवर्णों की भाषा की बुराइयां नहीं के बराबर हैं। दलित अस्मिता भाषा की अपनी समस्या का समाधान अभिव्यक्ति की इन पुरानी परंपराओं से अपने को जोड़कर कर सकती है। जब हम विभिन्न भारतीय भाषाओं में दलित साहित्य के उभार और उसकी परंपरा को देखते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि दलितों ने अपनी अस्मिता की भाषा समस्या को काफी हद तक सुलझा लिया है। आज दलित लेखकों और आलोचकों की भाषा ने हिन्दी को एक जातिनिरपेक्ष भाषा बनने में काफी मदद की है। डॉ0 धर्मवीर की आलोचना पुस्तक ‘हिन्दी की आत्मा’ ने भाषावैज्ञानिक स्तर पर दलित-दृष्टिकोण से हिन्दी भाषा के विकास में सराहनीय योगदान दिया है। इसके बाद भी अगर दलितों को उनकी अपनी मातृभाषा को छोड़कर अंग्रेजी को अपनाने के लिए आन्दोलित किया जा रहा है, तो इसे पोली दीवार पर पलस्तर लगाने से अधिक कुछ नहीं माना जा सकता है। रामविलास शर्मा के शब्दों में, ‘‘अंग्रेजी अवश्य एक समृद्ध भाषा है। शेक्सपियर, मिल्टन और डार्विन जैसे मनीषियों ने उसमें अपनी रचनाएं की हैं। यही भाषा इंगलैंड में बोली जाती है, संयुक्त राष्ट्र अमरीका, कनाडा, और दक्षिण अफ्रीका में, न्यूजीलैंड और आस्टेªलिया में और भारत जैसे ब्रिटेन के भूतपूर्व उपनिवेशों में- कुछ शिक्षित जनों द्वारा- बोली जाती है। इन सब देशों की औद्योगिक और वैज्ञानिक प्रगति एक सी नहीं है। मुख्य बात है सामाजिक संगठन, सामाजिक विकास की मंजिल। नीचे से दीवाल पोली हो तो अंग्रेजी का पलस्तर लगाने से दीवाल इमारत मजबूत थोड़ी ही हो जाती है।’’
जिस प्रकार दलित अस्मिता-विमर्श ने हिन्दी भाषा के दलित-विरोधी और सवर्णवादी चरित्र की पहचान की और विरोध किया है, उसी प्रकार स्त्रीवादी अस्मिता-विमर्श ने भी हिन्दी के पुरूषवादी और स्त्री-विरोधी चरित्र की पहचान और उसका विरोध किया है। जैसे दलित-अस्मिता के विमर्शकारों की चिंता अपनी अभिव्यक्ति और आत्म-बोध को संपूर्ण बनाने वाली भाषा की तलाश है वैसे ही स्त्रीवादी विमर्शकारों को भी है। एक जातिनिरपेक्ष भाषा के बिना जैसे दलित-मुक्ति संभव नहीं है वैसे ही लिंगनिरपेक्ष भाषा के बिना स्त्री-मुक्ति संभव नहीं है क्योंकि भाषा ही किसी व्यक्ति या समुदाय की अस्मिता की सबसे बड़ी पहचान है। ऐसे में अगर वही उसकी पहचान को अधूरी और अपमानित रूप में पेश करती है तो भेद-भावों से उसकी मुक्ति आवश्यक हो जाती है। इसी आवश्यकता को महसूस करते हुए स्त्रीवाद ने स्त्री-भाषा की अवधारणा पेश की है।
मैनेजर पाण्डेय ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है, ‘‘सारी दुनिया में भाषाओं के निर्माण, विकास और संरक्षण का काम सबसे ज्यादा स्त्रियों ने किया है। ... यह अकारण नहीं है कि दुनिया में भाषाओं को केवल मातृभाषा कहा जाता है, कहीं पितृभाषा नहीं कहा जाता है।’’ यह बिडम्बना ही है कि मातृभाषाओं में पितृसत्ता की राजनीति हावी रही। नाम तो उसका मातृभाषा है, लेकिन सेवा वे पितृसत्ता की करती रहीं। मातृभाषा में पितृसत्ता की राजनीति कब और किस प्रकार आई; इस बात की पहचान और खोज स्त्री अस्मितावादी भाषा-विमर्श का प्रमुख विषय है। इसी लिए स्त्री-विमर्श जिन विषयों पर ध्यान केंद्रित करता है, उनमें भाषा प्रमुख है। स्त्री-अस्मिता भाषा के प्रश्न को लेकर जिस प्रकार गंभीर और सजग है, उससे अस्मिता-विमर्श और भाषा के संबंध का पता चलता है। अनामिका स्त्री-भाषा के स्वरूप और पुरूष-भाषा से उसकी भिन्नता को रेखांकित करती हुई लिखती हैं, ‘‘औरतों की भाषा का एक अलग मिजाज है जिसे कैनन में प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए। कैथरीन आर. सिम्पसन इसे बड़े कायदे से ‘भाषा की उछाल और उल्लास’ कहती हैं। पुरूष की ‘लिबिडल इकोनॉमी’ का बीज-शब्द है ‘संपत्ति’ और स्त्री की ‘लिबिडल इकोनॉमी’ का बीज-शब्द ‘उपहार’, एक ऐसा अवदान जिसका दाम वसूलने की कोशिश कभी की ही न जाए, इसलिए उसमें ऐसा बहुत कुछ वंचित रह जाता है जिसे उच्छल अभिव्यक्ति की आवश्यकता होती है।’’
स्त्रीवादी भाषा विमर्श ने इस बात को रेखांकित किया है कि, दुनिया की सभी भाषाएं पुरूषवादी हैं। ये पुरूषवादी भाषाएं स्त्रियों के आत्मबोध और जगद्बोध को खंडित और अधूरा बनाती हैं। इनके प्रयोग से कभी वे अपनी अस्मिता और अस्तित्व की खोज नहीं कर सकती हैं। स्त्रीवादियों ने इस बात को स्थापित किया है कि पुरूषों की भाषाओं ने स्त्रियों की अपनी भाषिक विशेषताओं का जान-बूझ कर दमन किया है। पुरूषों की भाषा स्त्रियों की भाषा की विशिष्टता और भिन्नता को खारिज करती है और उनके साथ भाषिक न्याय करने की बजाय अपने वर्चस्व को स्थापित करती हैं। इसलिए पुरूष-भाषा स्त्रियों के लिए समग्र और सामान्य भाषा नहीं हो सकती है। पश्चिमी स्त्रीवादी इरीगैरी के हवाले से अर्चना वर्मा इस तथ्य को रेखांकित करती हुई लिखती हैं, ‘‘इरीगैरी का मानना है कि मर्दानी भाषा का इस्तेमाल करती हुई स्त्री आत्मबोध में अधूरी और खंडित रह जाती है। मर्दानी भाषा की जो एकरूपता, एकोन्मुखता, समरूपता है वह भिन्नता के दमन से निकली है अतः वह समानता और समग्रता की पर्यायवाची नहीं हैं।’’
इरीगैरी के हवाले से पुरूष-भाषा के लैंगिक भेदभाव तथा स्त्री और पुरूष भाषाओं के अंतरों को रेखांकित करती हुई अर्चना वर्मा ने लिखा है, ‘‘इरीगरी के अनुसार स्त्री की कामना अभाव से नहीं, अतिशय से फूटती है। पुरूष की भाषा उसकी यौनिकता का सदृश बुद्धिप्रधान, प्रत्यक्ष, रैखिक और ऐकिक है। वह व्याकरण के साफ-सुथरे चौखटों में बंधी, स्पष्ट और एकायामी है, प्रत्यक्षतः सुव्यवस्थित किंतु दमनशील सांस्थानिकता के स्वभाव की तरह। स्त्री की यौनिकता पुरूष के लिंगाधारित एकोन्मुखी विस्फोट से भिन्न; स्पर्शजन्य और बहुकेन्द्रिक है। भिन्नताओं की स्वीकृति और समायोजन में समर्थ बहुन्मुखता स्त्री-स्वभाव का मूल है। स्त्री और स्त्रीत्व की भाषा का स्वभाव भी यही है। वह व्याकरण का उल्लंघन और संप्रेषण के नियमों का अतिक्रमण करके अपनी अंतरंग लय खोजती है। वह अर्थ की अनेक दिशाओं में एक साथ प्रस्थान करती है। पुरूष के लिए अर्थ के विषय मे वह प्रायः अस्पष्ट और अनिश्चित साबित होती है। यह भाषा ‘निर्बुद्धि’ नहीं, लेकिन एक भिन्न प्रकार से बौद्धिक या फिर बौद्धिकता से परे है; तर्कहीन नहीं, किंतु परिचित अर्थों से अवश्य तर्कातीत; पदानुक्रम-प्रतिरोधी और वृत्तात्मक होती है।‘‘
हिन्दी के भाषाशास्त्रीय चिंतन में स्त्रियोें की भाषिक समस्याओं को महत्व नहीं दिया गया है। इसलिए आज भी स्त्रियों की भाषा का मूल्यांकन पुरूषों के भाषिक मानदंडों के आधार पर होता है। जब स्त्री लेखन की भाषा पुरूषों से भिन्न है तब उसके अध्ययन के लिए भी पुरूषवादी भाषिक मानदंड बेकार साबित हो जाते हैं। इसलिए पुरूषों को स्त्री साहित्य का अध्ययन करने के लिए अपने भाषिक मानदंडों को बदलना पडे़गा। स्त्रियों की भाषा की पुरूषों की भाषा से भिन्नता को रेखांकित करते हुए और स्त्री-पुरूष भाषाओं के लिए अलग-अलग मानदंडों की बात को उठाते हुए जगदीश्वर चतुर्वेदी ने ठीक ही लिखा है, ‘‘स्त्रियों की कृतियों को पढ़ते समय भिन्न किस्म की भाषिक संरचना और पठन शैली की जरूरत होती है। स्त्री भाषा को आमतौर पर पुरूष भाषा के मानदंडों से ही देखा गया है। दूसरी महत्पूर्ण बात यह है कि हमने कभी महसूस ही नहीं किया कि हमारी भाषाशास्त्रीय सैद्धांतिकी लिंगभेदीय पूर्वग्रहों से ग्रस्त है। फलतः पुरूष की भाषा को स्त्री भाषा का आदर्श बताया गया। स्त्री की भाषा पुरूष की भाषा से भिन्न हो सकती है? या है? यह प्रश्न आज साहित्य समीक्षा में सबसे ज्यादा विवादास्पद है। स्त्री की भाषा पुरूष की भाषा से एकदम भिन्न होती है अतः उसके मानदंड भी भिन्न होंगे स्त्री भाषा को निर्धारित करने वाले तत्व सिर्फ ‘‘पाठ’’ में ही नहीं होते बल्कि ‘‘पाठ’’ से बाहर भी होते हैं।’’
बीसवीं सदी के अंतिम दशक में दलित और स्त्री अस्मितावादी विमर्शों के अलावा हिन्दू अस्मिता-विमर्श और उसकी राजनीति काफी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराती है। दलित और स्त्री अस्मितावादी विमर्श ने जहां हिन्दी भाषा से जातिवादी-लिंगवादी भेदभावों और सवर्णवादी-पितृसत्तावादी विचारों और संस्कारों को समाप्त करने का काम करता है वहीं हिन्दूवादी अस्मिता-विमर्श भाषा की चेतना और उसकी सार्थकता को नष्ट करने का काम करता है। हिन्दूवादी अस्मिता के भाषा-विमर्श को यों तो ‘हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान’ के पुराने नारे से जोड़ कर समझा जा सकता है, लेकिन बीसवीं सदी के अंतिम दशक में हिन्दूवादी अस्मिता-विमर्श और उसकी राजनीति ने भाषा का वैसा विमर्श कभी प्रस्तुत ही नहीं किया जैसा दलित और स्त्री अस्मिताओं ने किया। हिन्दूवादी अस्मिता की राजनीति ने धर्म, धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता, धार्मिक सहिष्णुता, परंपरा, संस्कृति, हिन्दू जैसे शब्दों के अर्थ को या तो नष्ट करने किया या फिर अस्थिर कर दिया। हिन्दूवादी राजनीति के भाषाई व्यवहार ने यह दिखा दिया है कि अस्मिता-विमर्श हरहाल में भाषा से जुड़े होते हैं और उनको प्रभावित करते हैं।
धर्म, क्षेत्र, जाति, लिंग, राष्ट्र, राज्य आदि की तरह ही भाषा भी किसी व्यक्ति अथवा समुदाय की अस्मिता का एक आधार होती है। भाषा किसी समुदाय और जाति की पहचान का सबसे प्रखर माध्यम और भेदक लक्षण है। दुनिया भर में विभिन्न अस्मिताओं ने अपनी भाषाओं को अपने से जोड़कर देखा है क्योंकि विभिन्न संस्कृतियों और समाजों का निर्माण भाषा के आधार पर हुआ है। संस्कृति की पहचान भाषा के आधार पर होती है। तमिल संस्कृति, मराठी संस्कृति, बांग्ला संस्कृति आदि नाम इसी बात को साबित करते हैं।
भाषा अगर मनुष्य को सभ्य और न्यायप्रिय बनाती है, उसमें समता का भाव जगाती है तो वही शोषण और उत्पीड़न का माध्यम भी है। एक भाषा ने दूसरी भाषा पर वर्चस्व बनाया और विजित जातियों के लोगों के बारे में अपने पूर्वग्रहों और भेदभावों को व्यक्त किया तथा उनके बारे में झूठे प्रचार किये और उनको हीन साबित किया। उनकी मानसिकता को जीतने और उनको हतोत्साहित करने के लिए उनके बारे में गलत और आपत्तिजनक विचारों को स्थापित और प्रचारित किया। अगर उत्पीड़ित और उत्पीड़क की भाषा अलग-अलग हो तब उतनी समस्या नहीं होती, लेकिन जब दोनों एक ही भाषा का व्यवहार बहुत लंबे समय से करते आ रहे हों तब उत्पीड़ित अस्मिताओं को अपने साथ हुए अन्याय का बोध भाषा करा देती है, तब यह भाषा उनकी अनुभूतियों और विचारों को अभिव्यक्ति देने में अक्षम साबित होती है। उत्पीड़ित लेखकों को ऐसी भाषा अधूरा और अन्यायपूर्ण आत्मबोध और जगद्बोध देती है। ऐसी स्थिति में लेखकों को भाषा के लिए संघर्ष करना पड़ता है और अपनी भाषा विकसित करनी पड़ती है।
हिन्दी एक ऐसी ही भाषा है जिसमें वर्णव्यवस्थावादी व पितृसत्तावादी विचारधारा और उससे उपजे संस्कार रचे-बसे हुए हैं। भवदेव पाण्डेय ने स्त्री और दलित-अस्मिता-विमर्श के तर्कों के आधार पर हिन्दी भाषा और उसके लेखकों के सवर्णवादी और पुरूषवादी चरित्र को रेखांकित करते हुए लिखा है, ‘‘इतिहास साक्षी है कि संस्कृत और हिन्दी के कोशकारों ने दलित और स्त्री-वाचक शब्दों के साथ भारी छल किया है. एक तो ये सभी कोशकार पुरूष-दंभ से आक्रांत थे, दूसरे सवर्णवादी संकीर्ण मानसिकता के भी शिकार थे। यह इनका दोष नहीं था क्योंकि दूसरे शास्त्रवादियों की तरह ये रूढ़िगत और अलगाववादी सामाजिक संरचना के ही उत्पाद थे। इन लोगों ने साहित्य, धर्म, दर्शन और अध्यात्म पर तो हजार-हजार वितंडाएं खड़ी कीं, लेकिन दलितों और स्त्रियों से सम्बद्ध शब्दार्थों में न कोई मौलिक कल्पना की, न ही समाज के मनोवैज्ञानिक परिवर्तन को दृष्टि में रखकर नव अर्थांतरण ही किया। सवर्णवादियों के लिए शूद्र केवल शूद्र थे और पुरूषों के लिए और औरत महज औरत थी। शूद्रों को अपमान और स्त्रियों को संभोग के खूंटे से बांधकर रखने के सांस्कृतिक अधिकार इनके पास सुरक्षित थे।’’
बीसवीं सदी के अंतिम दशक में जब स्त्री और दलित अस्मिताओं ने अपना आत्मरेखांकन आरंभ किया और उसके लिए साहित्यिक और सामाजिक विमर्श चलाया तब उन्हें इस बात का एहसास हुआ कि जिस भाषा में वे अपने अनुभवों और विचारों को व्यक्त करने की कोशिश कर रहे हैं, वह उनके लिए पर्याप्त साबित नहीं हो पा रही है। इसलिए नब्बे के दशक में स्त्री और दलित-अस्मिता-विमर्श और साहित्य और आलोचना के उभार के साथ-साथ हिन्दी में भाषा और अस्मिता के प्रश्न सतह पर आए गये। तमिल, तेलुगु और मराठी आदि की तरह दलित और स्त्री भाषाई अस्मिता नहीं हैं। उनके विमर्श भी वैसे नहीं हैं जैसे भाषाई अस्मिताओं के होते हैं। जिसके तहत एक भाषा-भाषी समुदाय दूसरे भाषा-भाषी समुदाय के वर्चस्व या उसके साथ अपने हितों के टकराव के कारण अपनी भाषा की अस्मिता को दूसरी भाषा के विरोध के माध्यम से रेखांकित करता है। जैसे दक्षिण भारत के राज्यों में हिन्दी विरोध के आधार पर तमिल इत्यादि भाषाई अस्मिताओं ने अपने को रेखांकित किया। भाषाई अस्मिता-विमर्श और किसी अस्मिता के भाषा संबंधी विमर्श अलग-अलग हैं। भाषाई विमर्श अस्मिता-विमर्श का एक रूप है। भाषाई अस्मिता-विमर्श के आधार पर ही भारत में केवल हिन्दी को लेकर ही अन्य भाषा-भाषियों में असुरक्षा और गुस्सा का भाव नहीं है बल्कि सभी भाषाएं एक दूसरी से असुरक्षित महसूस करती हैं। इस बात को रामविलास शर्मा ने स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘‘भय केवल हिन्दी से अहिन्दी भाषियों को नहीं रहा; भय है बंगालियों को असमिया से, मराठी भाषियों को गुजराती, तेलुगुभाषियों को तमिल से इत्यादि। और अंग्रेजी को गले लगाये रखने के लिए सब तैयार हैं!’’
इस तरह के विमर्श राजनीतिक धरातल पर अधिक खुले और बड़े मुद्दे के रूप में सामने आते हैं। इसके पीछे अपनी भाषा में निहित वर्चस्व की प्रवृत्ति नहीं होती है। जबकि हिन्दी के संदर्भ में दलित और स्त्री अस्मिताओं की भाषा वही है जो सवर्ण पुरूष की है। यहां मुद्दा किसी दूसरी भाषा के विरोध का नहीं है, बल्कि भाषाई चरित्र का है। इस अर्थ में हिन्दी के ये स्त्री और दलित-विमर्श हिन्दी भाषा के स्त्री-विरोधी पुरूषवादी और दलित-विरोधी सवर्णवादी चरित्र के विरोध और उससे निजात पाने के तरीकों पर केन्द्रित हैं। यहां प्रश्न एक भाषा के भीतर जमे बैठे स्त्री और दलित-विरोधी संस्कारों और पुरूषवादी-सवर्णवादी विचारों से मुक्ति का है। एक तरह से ये हिन्दी भाषा की मुक्ति के विमर्श हैं। यह अलग बात है कि कुछ विचारक इन संस्कारों और विचारों के विरोध की बजाय हिन्दी भाषा का ही विरोध करने लगते हैं। ऐसे लोगों के यहां भाषा की मुक्ति की नहीं बल्कि भाषा से मुक्ति की प्रवृत्ति मिलती है।
चंद्रभान प्रसाद हिन्दी समेत समस्त भारतीय भाषाओं को वर्ण-व्यवस्थावादी चरित्र, सवर्णवादी मानसिकता की वाहिका और भेदभाव की समर्थक मानते हैं। इसी लिए वे भारतीय भाषाओं की जगह अंग्रेजी को दलितों की मुक्ति के लिए अधिक उपयोगी मानते हैं। उन्होंने हाल ही में अंग्रेजी माता के मंदिर की स्थापना का आन्दोलन शुरू किया है। उनकी रणनीति यह है कि दलितों की धार्मिक भावना से जोड़कर अंग्रेजी को उनके बीच शीघ्रता और आसानी से लोकप्रिय बनाया जा सकता है। उनके अस्मितावादी भाषा-विमर्श के प्रमुख बिन्दुओं को वीर भारत तलवार ने व्यवस्थित रूप में इस प्रकार रखा है, ‘‘अब मैं चंद्रभान के इस पक्ष का जिक्र करना चाहता हूं कि हिन्दी एक भाषिक बुराई है। चंद्रभान का यह तर्क है कि कोई भी भाषा अपने समाज के इतिहास, संस्कृति परंपराओं और मूल्यों की भी वाहक होती है। इस दृष्टि से हिन्दी और सभी भारतीय भाषाएं लंबे समय से भारतीय वर्ण-व्यवस्था और जातिप्रथा की संस्कृति और उसके दलित-शूद्र विरोधी मूल्यों से इतनी दूषित हो चुकी हैं कि दलित उन्हें नहीं अपना सकते। इसलिए बेहतर होगा कि ये भाषाएं जल्द से जल्द भारत से गायब हो जाएं। इनकी जगह दलितों को अंग्रेजी भाषा को अपनाना चाहिए जो उन्हें एक ज़्यादा लोकतांत्रिक, आधुनिक और व्यापक अंतर्राष्ट्रीय समाज से जोड़ती है और उनके लिए बौद्धिक विकास का ज़्यादा बड़ा रास्ता खोलती हैं।’’
दलित अस्मिता की भाषा संबंधी समस्याओं पर चंद्रभान प्रसाद की मान्यताएं भाषा वैज्ञानिक, ऐतिहासिक और जनवादी न होकर प्रतिक्रियावादी, मध्यवर्गीय मानसिकता की उपज और अव्यावहारिक हैं। यह सही है कि भाषा एक ऐसी प्रौद्योगिकी है जो व्यक्ति को समर्थ और सशक्त बनाती है। इससे संपन्न होने से वह न केवल रोजगार प्राप्त कर अपनी आर्थिक और सामाजिक हैसियत बढ़ा सकता है बल्कि इसके माध्यम से सौंदर्य और विचारों का भी सृजन कर सकता है। वह भाषा अगर बाजार, राजनीति और अभिजात्य वर्ग में सम्मानित हो तब यह बात और अधिक लागू होती है। कहने की जरूरत नहीं कि अंग्रेजी भाषा ऐसी ही भाषा है जिसके माध्यम से न केवल आज का करोबार चलता है बल्कि राजनीति और सांस्कृतिक गतिविधियां भी चलती हैं। देश का संभ्रांत तबका इसे अपनी शिक्षा और जीवन व्यवहार का माध्यम बनाकर चल रहा है इसलिए यह भाषा आज उन्नति और इज्जत के जरूरतमंद आदमी या समुदाय के लिए अभिप्रेत है। आज का हर भारतीय अंग्रेजी बोलना और समझना चाहता है। ऐसे में दलित अस्मिता के लिए तो यह वरदान हो सकती है जो पहले से ही उन भाषाओं के जातिवादी और सवर्णवादी चरित्र का शिकार हैं, जिनके माध्यम से उनका काम-काज चलता है। लेकिन, हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं को त्याग देने, अपनी जिन्दगी और मानसिकता से निकाल देने की बात जितनी आकर्षक और मुक्तिदायिनी लगती हैै, उतनी आसान, व्यावहारिक और कल्याणकारी नहीं है।
दलित अस्मिता की मुक्ति और सर्वांगीण उन्नति के लिए अंग्रेजी की उपयोगिता को खारिज करते हुए और मातृभाषाओं के महत्व को रेखांकित करते हुए तुलसीराम ने यह प्रतिपादित किया है कि अंग्रेजी दलितों के विकास और उनकी शिक्षा में एक बड़ी बाधा है। उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में चंद्रभान प्रसाद की मान्यता का विरोध करते हुए कहा है, ‘‘भविष्य के नष्टकर्ता के रूप में अंग्रेजी का एक रोल है। वो कैरियर नहीं बनाती, बल्कि उसको बिगाड़ देती है: इसीलिए सिक्सटीज के दशक में अंग्रेजी विरोधी आन्दोलन चला। 1966 के आस-पास बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय ने उसे लीड किया था। हम लोग वहां छात्र थे और सभी उसमें शमिल थे। एक वातावरण बना था अंग्रेजी के खिलाफ और कई बोर्ड्स ने अंग्रेजी की शिक्षा को कंपल्सरी के बदले ऑप्सनल कर दिया था। अन्यथा जिस समय अंग्रेजी अनिवार्य होती थी, उत्तर प्रदेश और बिहार मंे हाईस्कूल और इंटरमीडिएट का पासिंग रिजल्ट 30-35 प्रतिशत से अधिक नहीं होता था। इस तरह से देखा जाय तो अंग्रेजी ने लाखों बच्चों का भविष्य अंधकार में डाल दिया। एक पूरी की पूरी पीढ़ी को अंग्रेजी ने बरबाद कर दिया। अगर आजादी के बाद अंग्रेजी के एकूमुलेटेड प्रभाव का अध्ययन किया जाए, तो उजागर होगा कि लाखों-लाख बच्चों का भविष्य आजादी के बाद से अब तक अंग्रेजी ने बरबाद किया है, क्योंकि उसमें फेल हो जाने के बाद बच्चे आगे नहीं पढ़ पाए। यह संख्या करोड़ों तक पहुंचेगी।’’
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने बहुत पहले अपनी एक कविता में कहा था, ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।’ भारतेंदु की इस मान्यता के आलोक में देखें तो चंद्रभान प्रसाद द्वारा सुझाया गया समाधान दलितों के लिए कल्याणकारी होने से अधिक विनाशकारी साबित हो सकता है। आज अंग्रेजी भारतीय समाज की सबसे बड़ी आकांक्षा है, बिना इस बात की ंिचंता किए कि यह आकांक्षा पालना कितना फायदेमंद और कितना नुकसानदेह हो सकता है। आज सभी, सवर्ण, स्त्रियां, आदिवासी, दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक अंग्रेजी की ओर भाग रहे हैं। भारतेंदु की उक्त सलाह को ध्यान में रखे बिना। यह सलाह केवल दलितों को या किसी एक समुदाय विशेष को नहीं दी जा सकती कि वे अंग्रेजी न सीखें, आज उनके लिए भी अंग्रेजी वैसी ही आकर्षक और जरूरी है, जैसी सवर्णों के लिए। लेकिन चाहे सवर्ण हों या दलित, किसी को भी अपनी मातृभाषा छोड़ने और कोई परायी भाषा के नियम या विचार से बांधना खतरनाक और अस्वाभाविक है। भाषा संस्कृति और परंपरा का पर्याय है। मातृभाषा त्यागने का अर्थ है सामूहिक रूप से अपनी संस्कृति और हजारों साल के अनुभव, स्मृतियांे और इतिहास से विच्छेद। हर तरीके से अपनी जड़ों से कटकर दुनिया की एक दिशाहीन और दोयम दर्जे की नागरिकता पा लेना, जो किसी भी कौम के लिए बहुत खतरनाक बात है, लगभग सामूहिक आत्महत्या करने जैसी खतरनाक बात। दुनिया भर के भाषावैज्ञानिकों और संस्कृति के अध्येताओं ने मातृभाषा को किसी मनुष्य या समुदाय के लिए सबसे उपयुक्त और लाभकारी भाषा माना है। उसके माध्यम से ज्ञान-विज्ञान और साहित्य तथा कला में जैसी उन्नति की जा सकती है वैसी किसी परायी भाषा में नहीं। आज भी अंग्रेजी की शिक्षा और जानकारी प्राप्त करना आर्थिक रूप से सक्षम और सामाजिक रूप से उच्चतर तबके की पहंुच में है। स्कूलों के माध्यम से जो थोड़ी-बहुत अंग्रेजी की जानकारी ग्रामीण किसानों, मजदूरों, दलितों और आदिवासियों को मिल पाती है उससे वे उसमें काम-काज या अभिव्यक्ति करने के काबिल नहीं हो पाते। यही बात अधिकांश छोटे शहरों के बारे में भी सही है। इसके अलावा जिनकी अंग्रेजी अच्छी समझी जाती है उनमें से भी अधिकांश लोग उसमें न कुछ गंभीर चीज लिख सकते हैं और न ही केवल उससे उनका जीवन और शिक्षा का काम पूरा हो सकता है। अंग्रेजी सीखने की और उसमें अपना जीवन चलाने की सुविधा केवल मुट्ठीभर उच्च वर्ग को प्राप्त है। ये भी अपने समग्र सांस्कृतिक विकास के लिए अपनी-अपनी मातृभाषाओं का सहारा लेते हैं। मातृभाषाओं से कट कर वे भी अधूरे रह जाएंगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि अंग्रेजी आज भी सांस्कृतिक रूप से परायी भाषा है। ऐसी परायी भाषा के माध्यम से कोई भी व्यक्ति या समुदाय अपना समग्र विकास नहीं कर सकता है- ऐसा प्रकृति और संस्कृति का नियम है; अगर वह अपनी मातृभाषा का पूर्णतः बहिष्कार कर देता है।
जिस तरह की बात चंद्रभान प्रसाद ने सुझायी है उस तरह की बात दुनिया के किसी समाज के बारे में लागू हुई है, कह पाना बहुत मुश्किल है। कोई व्यक्ति अपनी भाषा, जिसने उसे बोलना, सोचना और समझना सिखाया, जिसने उसे दुनिया की समझ दी, को अचानक छोड़कर दूसरी भाषा को अपना ले और अपना पूरा जीवन उसी में जीने लगे; यह बात काल्पनिक है। व्यावहारिक स्तर पर यह संभव नहीं है। वीर भारत तलवार ने ठीक ही लिखा है, ‘‘भाषाओं को उस तरह से छोड़ा या अपनाया नहीं जा सकता जिसकी मांग चंद्रभान प्रसाद करते हैं। भाषाओं पर इतिहास, संस्कृति और परंपराओं की छाप जरूर होती है लेकिन इनमें होने वाले विकास और बदलावों के साथ-साथ भाषा का स्वरूप और चरित्र भी बदलता जाता है। इसलिए सवाल इन भाषाओं को छोड़ देने का नहीं है, बल्कि समाज में उस संस्कृति और उन प्रथाओं के खि़लाफ़ लड़ने का है जो इन भाषाओं के स्वरूप पर अपनी छाप छोड़ती हैं।’’ कहने की जरूरत नहीं कि आज भी दलितों की मुक्ति और उनके सशक्तीकरण का माध्यम उनकी मातृभाषाएं हैं। उनकी सामूहिक मुक्ति के लिए मातृभाषाओं और भारतीय प्रांतीय भाषाओं को समृद्ध किया जाना सबसे आवश्यक और स्वाभाविक है। यही सबसे व्यावहारिक भी है। इन भाषाओं के माध्यम से जब वे अपना थोड़ा विकास कर लेंगे, तब वैसे ही स्वाभाविक रूप से अंग्रेजी सीख लेंगे जैसे कि अन्य समुदायों का विकसित और विकासशील व्यक्ति कर लेता है।
हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं का जातिवादी चरित्र और सवर्णवादी मानसिकता तथा शब्दावली जगजाहिर है। भाषा की यह समस्या आम तौर पर उन लेखकों के साथ है जो सवर्णवादी मानसिकता के लेखक हैं। ऐसे लेखक या तो जानबूझकर ऐसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं या फिर अनजाने ही उनके जातिवादी-सवर्णवादी-पुरूषवादी संस्कार भाषा में आ जाते हैं। इसके अतिरिक्त लोक-जीवन में भी भाषा का जातिवादी चरित्र सामने आता है। यह समस्या भी सवर्ण या गैर दलित लोक के साथ है। भाषा की ये समस्याएं धीरे-धीरे दूर हो रही हैं और जो बची हुई हैं, उन्हें आसानी से दूर किया जा सकता है- आन्दोलन और जागरूकता फैलाकर। लेकिन, दलित अस्मिता की भाषा समस्या पर विचार करते हुए इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि दलितों की अभिव्यक्ति और रचना की लम्बी और सबल-समृद्ध परंपरा रही है। उन सब में जहां-जहां दलित-अस्मिता की चेतना है वहां-वहां भाषा का चरित्र दलित विरोधी न होकर जातिवाद विरोधी अथवा वर्णव्यवस्था विरोधी है। उदाहरण के लिए कबीर की भाषा को लिया जा सकता है। उसमें उन शब्दों और अवधारणाओं का प्रयोग मिलता है जो ब्राम्हणवादी लगती हैं, लेकिन उन्होंने उनका अर्थ बदल दिया है और वे पूरी तरह से जातिनिरपेक्ष हो गयी हैं। इसका एक रोचक उदाहरण है- ‘राम’ शब्द या संज्ञा, जो कबीर के यहां वही नहीं है जो सगुण कवियों के यहां हैं। इससे यह पता चलता है कि जब सामाजिक संरचना बदल जाएगी तो भाषा का चरित्र और अर्थ भी बदल जाएगा, क्योंकि शब्दों का अर्थ बहुत कुछ संदर्भ पर निर्भर करता है कि उनका प्रयोग किस संदर्भ में किया गया है।
यह बात भी ध्यान में रखने लायक है कि दलितों की अपनी लम्बी भाषा-परंपरा है। लोक-भाषाओं में अभिव्यक्ति की यह परंपरा पुराने जमाने से चली आ रही है जिसे दलितों की भाषा कह सकते हैं। ये अभिव्यक्तियां मोटे तौर पर दलित-चेतना की अभिव्यक्तियां हैं इसलिए इसमें सवर्णों की भाषा की बुराइयां नहीं के बराबर हैं। दलित अस्मिता भाषा की अपनी समस्या का समाधान अभिव्यक्ति की इन पुरानी परंपराओं से अपने को जोड़कर कर सकती है। जब हम विभिन्न भारतीय भाषाओं में दलित साहित्य के उभार और उसकी परंपरा को देखते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि दलितों ने अपनी अस्मिता की भाषा समस्या को काफी हद तक सुलझा लिया है। आज दलित लेखकों और आलोचकों की भाषा ने हिन्दी को एक जातिनिरपेक्ष भाषा बनने में काफी मदद की है। डॉ0 धर्मवीर की आलोचना पुस्तक ‘हिन्दी की आत्मा’ ने भाषावैज्ञानिक स्तर पर दलित-दृष्टिकोण से हिन्दी भाषा के विकास में सराहनीय योगदान दिया है। इसके बाद भी अगर दलितों को उनकी अपनी मातृभाषा को छोड़कर अंग्रेजी को अपनाने के लिए आन्दोलित किया जा रहा है, तो इसे पोली दीवार पर पलस्तर लगाने से अधिक कुछ नहीं माना जा सकता है। रामविलास शर्मा के शब्दों में, ‘‘अंग्रेजी अवश्य एक समृद्ध भाषा है। शेक्सपियर, मिल्टन और डार्विन जैसे मनीषियों ने उसमें अपनी रचनाएं की हैं। यही भाषा इंगलैंड में बोली जाती है, संयुक्त राष्ट्र अमरीका, कनाडा, और दक्षिण अफ्रीका में, न्यूजीलैंड और आस्टेªलिया में और भारत जैसे ब्रिटेन के भूतपूर्व उपनिवेशों में- कुछ शिक्षित जनों द्वारा- बोली जाती है। इन सब देशों की औद्योगिक और वैज्ञानिक प्रगति एक सी नहीं है। मुख्य बात है सामाजिक संगठन, सामाजिक विकास की मंजिल। नीचे से दीवाल पोली हो तो अंग्रेजी का पलस्तर लगाने से दीवाल इमारत मजबूत थोड़ी ही हो जाती है।’’
जिस प्रकार दलित अस्मिता-विमर्श ने हिन्दी भाषा के दलित-विरोधी और सवर्णवादी चरित्र की पहचान की और विरोध किया है, उसी प्रकार स्त्रीवादी अस्मिता-विमर्श ने भी हिन्दी के पुरूषवादी और स्त्री-विरोधी चरित्र की पहचान और उसका विरोध किया है। जैसे दलित-अस्मिता के विमर्शकारों की चिंता अपनी अभिव्यक्ति और आत्म-बोध को संपूर्ण बनाने वाली भाषा की तलाश है वैसे ही स्त्रीवादी विमर्शकारों को भी है। एक जातिनिरपेक्ष भाषा के बिना जैसे दलित-मुक्ति संभव नहीं है वैसे ही लिंगनिरपेक्ष भाषा के बिना स्त्री-मुक्ति संभव नहीं है क्योंकि भाषा ही किसी व्यक्ति या समुदाय की अस्मिता की सबसे बड़ी पहचान है। ऐसे में अगर वही उसकी पहचान को अधूरी और अपमानित रूप में पेश करती है तो भेद-भावों से उसकी मुक्ति आवश्यक हो जाती है। इसी आवश्यकता को महसूस करते हुए स्त्रीवाद ने स्त्री-भाषा की अवधारणा पेश की है।
मैनेजर पाण्डेय ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है, ‘‘सारी दुनिया में भाषाओं के निर्माण, विकास और संरक्षण का काम सबसे ज्यादा स्त्रियों ने किया है। ... यह अकारण नहीं है कि दुनिया में भाषाओं को केवल मातृभाषा कहा जाता है, कहीं पितृभाषा नहीं कहा जाता है।’’ यह बिडम्बना ही है कि मातृभाषाओं में पितृसत्ता की राजनीति हावी रही। नाम तो उसका मातृभाषा है, लेकिन सेवा वे पितृसत्ता की करती रहीं। मातृभाषा में पितृसत्ता की राजनीति कब और किस प्रकार आई; इस बात की पहचान और खोज स्त्री अस्मितावादी भाषा-विमर्श का प्रमुख विषय है। इसी लिए स्त्री-विमर्श जिन विषयों पर ध्यान केंद्रित करता है, उनमें भाषा प्रमुख है। स्त्री-अस्मिता भाषा के प्रश्न को लेकर जिस प्रकार गंभीर और सजग है, उससे अस्मिता-विमर्श और भाषा के संबंध का पता चलता है। अनामिका स्त्री-भाषा के स्वरूप और पुरूष-भाषा से उसकी भिन्नता को रेखांकित करती हुई लिखती हैं, ‘‘औरतों की भाषा का एक अलग मिजाज है जिसे कैनन में प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए। कैथरीन आर. सिम्पसन इसे बड़े कायदे से ‘भाषा की उछाल और उल्लास’ कहती हैं। पुरूष की ‘लिबिडल इकोनॉमी’ का बीज-शब्द है ‘संपत्ति’ और स्त्री की ‘लिबिडल इकोनॉमी’ का बीज-शब्द ‘उपहार’, एक ऐसा अवदान जिसका दाम वसूलने की कोशिश कभी की ही न जाए, इसलिए उसमें ऐसा बहुत कुछ वंचित रह जाता है जिसे उच्छल अभिव्यक्ति की आवश्यकता होती है।’’
स्त्रीवादी भाषा विमर्श ने इस बात को रेखांकित किया है कि, दुनिया की सभी भाषाएं पुरूषवादी हैं। ये पुरूषवादी भाषाएं स्त्रियों के आत्मबोध और जगद्बोध को खंडित और अधूरा बनाती हैं। इनके प्रयोग से कभी वे अपनी अस्मिता और अस्तित्व की खोज नहीं कर सकती हैं। स्त्रीवादियों ने इस बात को स्थापित किया है कि पुरूषों की भाषाओं ने स्त्रियों की अपनी भाषिक विशेषताओं का जान-बूझ कर दमन किया है। पुरूषों की भाषा स्त्रियों की भाषा की विशिष्टता और भिन्नता को खारिज करती है और उनके साथ भाषिक न्याय करने की बजाय अपने वर्चस्व को स्थापित करती हैं। इसलिए पुरूष-भाषा स्त्रियों के लिए समग्र और सामान्य भाषा नहीं हो सकती है। पश्चिमी स्त्रीवादी इरीगैरी के हवाले से अर्चना वर्मा इस तथ्य को रेखांकित करती हुई लिखती हैं, ‘‘इरीगैरी का मानना है कि मर्दानी भाषा का इस्तेमाल करती हुई स्त्री आत्मबोध में अधूरी और खंडित रह जाती है। मर्दानी भाषा की जो एकरूपता, एकोन्मुखता, समरूपता है वह भिन्नता के दमन से निकली है अतः वह समानता और समग्रता की पर्यायवाची नहीं हैं।’’
इरीगैरी के हवाले से पुरूष-भाषा के लैंगिक भेदभाव तथा स्त्री और पुरूष भाषाओं के अंतरों को रेखांकित करती हुई अर्चना वर्मा ने लिखा है, ‘‘इरीगरी के अनुसार स्त्री की कामना अभाव से नहीं, अतिशय से फूटती है। पुरूष की भाषा उसकी यौनिकता का सदृश बुद्धिप्रधान, प्रत्यक्ष, रैखिक और ऐकिक है। वह व्याकरण के साफ-सुथरे चौखटों में बंधी, स्पष्ट और एकायामी है, प्रत्यक्षतः सुव्यवस्थित किंतु दमनशील सांस्थानिकता के स्वभाव की तरह। स्त्री की यौनिकता पुरूष के लिंगाधारित एकोन्मुखी विस्फोट से भिन्न; स्पर्शजन्य और बहुकेन्द्रिक है। भिन्नताओं की स्वीकृति और समायोजन में समर्थ बहुन्मुखता स्त्री-स्वभाव का मूल है। स्त्री और स्त्रीत्व की भाषा का स्वभाव भी यही है। वह व्याकरण का उल्लंघन और संप्रेषण के नियमों का अतिक्रमण करके अपनी अंतरंग लय खोजती है। वह अर्थ की अनेक दिशाओं में एक साथ प्रस्थान करती है। पुरूष के लिए अर्थ के विषय मे वह प्रायः अस्पष्ट और अनिश्चित साबित होती है। यह भाषा ‘निर्बुद्धि’ नहीं, लेकिन एक भिन्न प्रकार से बौद्धिक या फिर बौद्धिकता से परे है; तर्कहीन नहीं, किंतु परिचित अर्थों से अवश्य तर्कातीत; पदानुक्रम-प्रतिरोधी और वृत्तात्मक होती है।‘‘
हिन्दी के भाषाशास्त्रीय चिंतन में स्त्रियोें की भाषिक समस्याओं को महत्व नहीं दिया गया है। इसलिए आज भी स्त्रियों की भाषा का मूल्यांकन पुरूषों के भाषिक मानदंडों के आधार पर होता है। जब स्त्री लेखन की भाषा पुरूषों से भिन्न है तब उसके अध्ययन के लिए भी पुरूषवादी भाषिक मानदंड बेकार साबित हो जाते हैं। इसलिए पुरूषों को स्त्री साहित्य का अध्ययन करने के लिए अपने भाषिक मानदंडों को बदलना पडे़गा। स्त्रियों की भाषा की पुरूषों की भाषा से भिन्नता को रेखांकित करते हुए और स्त्री-पुरूष भाषाओं के लिए अलग-अलग मानदंडों की बात को उठाते हुए जगदीश्वर चतुर्वेदी ने ठीक ही लिखा है, ‘‘स्त्रियों की कृतियों को पढ़ते समय भिन्न किस्म की भाषिक संरचना और पठन शैली की जरूरत होती है। स्त्री भाषा को आमतौर पर पुरूष भाषा के मानदंडों से ही देखा गया है। दूसरी महत्पूर्ण बात यह है कि हमने कभी महसूस ही नहीं किया कि हमारी भाषाशास्त्रीय सैद्धांतिकी लिंगभेदीय पूर्वग्रहों से ग्रस्त है। फलतः पुरूष की भाषा को स्त्री भाषा का आदर्श बताया गया। स्त्री की भाषा पुरूष की भाषा से भिन्न हो सकती है? या है? यह प्रश्न आज साहित्य समीक्षा में सबसे ज्यादा विवादास्पद है। स्त्री की भाषा पुरूष की भाषा से एकदम भिन्न होती है अतः उसके मानदंड भी भिन्न होंगे स्त्री भाषा को निर्धारित करने वाले तत्व सिर्फ ‘‘पाठ’’ में ही नहीं होते बल्कि ‘‘पाठ’’ से बाहर भी होते हैं।’’
बीसवीं सदी के अंतिम दशक में दलित और स्त्री अस्मितावादी विमर्शों के अलावा हिन्दू अस्मिता-विमर्श और उसकी राजनीति काफी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराती है। दलित और स्त्री अस्मितावादी विमर्श ने जहां हिन्दी भाषा से जातिवादी-लिंगवादी भेदभावों और सवर्णवादी-पितृसत्तावादी विचारों और संस्कारों को समाप्त करने का काम करता है वहीं हिन्दूवादी अस्मिता-विमर्श भाषा की चेतना और उसकी सार्थकता को नष्ट करने का काम करता है। हिन्दूवादी अस्मिता के भाषा-विमर्श को यों तो ‘हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान’ के पुराने नारे से जोड़ कर समझा जा सकता है, लेकिन बीसवीं सदी के अंतिम दशक में हिन्दूवादी अस्मिता-विमर्श और उसकी राजनीति ने भाषा का वैसा विमर्श कभी प्रस्तुत ही नहीं किया जैसा दलित और स्त्री अस्मिताओं ने किया। हिन्दूवादी अस्मिता की राजनीति ने धर्म, धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता, धार्मिक सहिष्णुता, परंपरा, संस्कृति, हिन्दू जैसे शब्दों के अर्थ को या तो नष्ट करने किया या फिर अस्थिर कर दिया। हिन्दूवादी राजनीति के भाषाई व्यवहार ने यह दिखा दिया है कि अस्मिता-विमर्श हरहाल में भाषा से जुड़े होते हैं और उनको प्रभावित करते हैं।
(यात्रा-7 से)