शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

विमलेश त्रिपाठी की कविता : इस तरह मैं

(पृथ्वी की सभी अच्छी कविताओं में अद्भुत सखियारा है। कहीं से भी कोई अच्छी या कम अच्छी कविता उठाओ, लगता है कि अरे इनमें बड़ा एका है। ये एक-दूसरे से हिंदी के खराब कवियों की तरह न बैरभाव रखती हैं, न पुरस्कार और प्रशंसा को लेकर ईर्ष्या। हिंदी की अच्छी या कम अच्छी कविताएँ भी एक-दूसरे को बड़ा बनाती हैं, उन्हें अर्थ देती हैं, उन्हें पूरा करती हैं। विमलेश त्रिपाठी की एक अच्छी कविता ‘ इस तरह मैं’ , ’यात्रा-7 से लेकर प्रस्तुत करते हुए इतना ही कहना चाहता हूँ कि जैसे हर कवि का अपना रंग होता है, हर कविता का अपना वैशिष्ट्य,, उसी तरह इस कविता में भी कुछ है, कविता के पाठक की शक्ति पर भरोसा है। -यात्रा संपादक।)

विमलेश त्रिपाठी की कविता : इस तरह मैं

1.
धरती के साथ घूमता चिड़िया के साथ उड़ता
उगता खूब हरी दूब के साथ
तैरता रंगीन मछलियों के साथ अतल गहराइयों में

उगता रोज सूरज के साथ पहुंचता तुम्हारे घर की देहरी पर
डूब जाता धीरे-धीरे तुम्हारी आंख की पुतलियों में
रात हो जाता भयानक कभी
धीरे-धीरे नींद बन जाता
फिर सपने

जब कभी पुकारता कोई शिद्दत से
दौड़ता मैं आदमी की तरह पहुंचता जहां पहुंचने की बेहद जरूरत

मर-मर जाता कई-कई बार जहां मर जाने की बेहद जरूरत

इस तरह मैं आदमी एक
इस कठिन समय का
जिंदा रहता अपने से इतर बहुत सारी चीजों के बीच ।

2.

दुनियादारी के नियमों से अनजान
एक खास किस्म की लापरवाही ओढे
लोगों की नजरों में कवि हूं एक सोझबक

मेरे आस-पास के आदमी सोच की जिन सीढियों को कर गए हैं पार
उनतक पहुंचना अब मेरे लिए लगभग नामुंकिन
एक बड़े कवि की भाषा में श्मिसफिटश् मैं
सोचता हूं कि कविता की दुनिया में ही कहां फिट हूं

कविता और कविता के बाहर एक गुमनाम कवि की तरह
लड़ता हुआ समय के तीखे पहाड़ों   गहरी अंधी खाइयों से
और इसी बीच कविताएं बनती जाती असंख्य
सफेद कागज पर काले-काले अक्षर दौड़ते निरूद्देश्य
सचमुच का कोई आदमी नहीं बनता दिखता

नहीं दिखता कुछ भी सफेद
रोशनी के सारे कतरे जा रहे रसातल में
चिडियों की आवाजें लुप्त होती जातीं
गायब हो रहे सरेह से गिद्ध

कविता में आदमी को आदमी कहने से
शब्द कर रहे इनकार
गिरती हैं सियाहियां काले हो रहे पदबंध
लय भूलकर रास्ता चले जा रहे रोशनी की एक चमकती नदी में

और मैं इस तरह चुपचाप खड़ा देखता
कविता से रिक्त होती यह धरती धीरे-धीरे
शब्दहीन इस समय में
गुमनाम एक कवि मैं ।

3.

हर खाली दोपहर में एक हवा का झोंका
ले जाता बहुत दूर एक गांव में
जहां पहुंचने के पहले एक नदी पार करनी होती
कई गांवों से पड़ता गुजरना
धूल मिट्टी के कई गह्वर पार करने होते

बहुत पहले जब आया था गांव छोड़ इस शहर कोलकाता में
छूट गया आम का बगीचा
पानी से भरी नहर
खेत खूब लहलहाते
गीत-गवनई हंसी-ठिठोली
भगुआ-चौता कजरी - जंतसार
सिनरैनी-मेहीनी
और वह बेपरवाही जिसे याद कर कोई और रोता है कि नहीं
कह नहीं सकता
लेकिन मेरे बस्ते में रखी वह धूल रोती है हर दो पहर
जिसे लेकर आया था चलते-चलते

कह नहीं सकता कि वह धूल नदी पार करती है
या खुद मैं


गांव में अब रह गए हैं सिरफ पागल और बूढे
स्त्रियां गांव के चौखट पर परदेशियों के आने का अंदेशा लिए
जवान सब चले गए दिल्ली सूरत मुंबई कोलकाता
जंतसार की जगह गूंजता है मोबाईल का रिंगटोन
बहुत अश्लील एक गीत किसी भोंपू से निकल कर आता
बहुत शोर उठता हवा में

सूखते जा रहे हैं पेड़
खेत परती में बदलते जा रहे
नदी में उठ रहे बालू के टीले
बहुत पुरानी एक ढोलक जिसे छोटका बाबा बजाते थे
वह नंगी पड़ी है उतर गया उसके देह का चमड़ा

एक गली थी जिसमें खेलते थे बच्चे लूक्काछिपी आइस-बाईस
जमा हो गया है उसमें नाले का पानी
हो रहे हैं पैदा मच्छर असंख्य
हर खाली दोपहर में हवा का एक झोंका खीचकर ले जाता मुझे उस गांव
जहां एक ठिठुरती रात में मैं पैदा हुआ

हर दोपहर होता जाता मैं कुछ इस तरह उदास
जैसे मर गया हो अपना कोई बेहद आत्मीय

इस तरह कविता के बाहर मैं खोजता हूं वह गांव
जिसे बहुत जमाने पहले छोड़कर आ गया था कोलकाता
कि जहां पैदा हुआ था मैं
एक ठिठुरती रात में ...।।

4.

इस तरह मैं कि छूट गई गाड़ी के पीछे हिलते रह गए हाथ
एक हाथ से पेट और दूसरे हाथ से चटकल चलाता मेरे गांव का सैफूदीन
मन के भीतर अनबोले रह गए अंउसाए हुए वे शब्द
जिनका बोला जाना हमारे मनुष्य बने रहने के लिए बेहद जरूरी था

वे अधूरी कविताएं नींद के बीच रात में चहलकदमी करतीं हिसाब मांगती हुईं
मेरा दोस्त जिसके पिता अस्पताल में हृदय गति रूक जाने से मरे
कारण उनकी सांसों के लिए जरूरी इंधन के नाम पर मेरे दोस्त के पास ,
सिर्फ नौकरी की अर्जियां थीं

कि स्टेशन से मेरे गांव तक गई वह सड़क
जिसकी मरम्मत हुई रहती तो बच जाते भगेलू यादव और उनके संबंधी
जो लौट रहे थे बारात से उसी सड़क की मार्फत

इस तरह मैं कि एक औरत के जज्बात जो औरत होने के अंधेरे में गुम गए
कि राग की उठान पर फंसी कोई आवाज
महफिल की जवानी पर वज्रपात की तरह उभरी कोई खांसी
कि उम्र की ढलान पर दिमाग में जिद की तरह अंकित रह गई समृतियों की चिंदी
कि गुमटी पर काम करने वाला वह बच्चा
और उसकी हसरत भरी आंखें देखती हर मुसाफिर को
जो ठहरता चाय पीने के नाम पर थोड़ी देर सुस्ताने के लिए
कि भीख मांगने के लिए फैले अस्सी बरस के सूखे हाथ
जो उठ सकते थे अपनों को अशीषने के लिए
लेकिन वे फैले बीच बाजार
क्योंकि समय खराब है
और यह इसलिए इस समय हम बहुत कम आदमी रह गए हैं

इस तरह मैं कि बिना किसी तर्क के बाजार में खड़ी वह लड़की
जिसके लिए पेट और पेट के नीचले हिस्से में फर्क नहीं कोई ।

5.

जहां चुप रहने की जरूरत
चुप रहूं
बोलने की जरूरत जहां
बोल सकूं बेधड़क

इस तरह मैं
सच को सच
और झूठ को झूठ
बोलूं

और इस तरह
बोलने और चुप रहने पर
कोई शर्म न हो ।


1 टिप्पणी:

  1. इस तरह मैं - 4 और 5 की कविताएं व्यक्तिगत रूप से मुझे अच्छी लगीं । बधाई ।

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