सोमवार, 23 दिसंबर 2013

महात्मा गांधी का ‘हिंद स्वराज’

 -विपिन कुमार शर्मा
          ‘हिंद स्वराज्य’ महात्मा गाँधी के विचारों का सार माना जाता है। इसे गाँधी ने सन् 1909 में लंदन से लौटते हुए जहाज पर लिखा था। मूल किताब गुजराती मंे लिखी गई थी जिसका बाद में गाँधी ने स्वयं अंग्रेजी में अनुवाद किया था। मूल पुस्तक प्रकाशन के तुरंत बाद ही भारत की अंग्रेजी सरकार के द्वारा जब्त कर ली गई थी। इसके बाद गाँधी ने अंग्रेजी अनुवाद को यथाशीघ्र प्रकाशित करना आवश्यक समझा।1 गाँधी इस पुस्तक के जब्त होने से आश्चर्यचकित थे। उनकी राय में तो यह किताब एक बालक के हाथ में भी दी जा सकती थी, क्योंकि वह द्वेष-धर्म की जगह प्रेम-धर्म सिखाती है; हिंसा की जगह आत्मबलिदान को रखती है, पशुबल से टक्कर लेने हेतु आत्मबल को खड़ा करती है।2 अंग्रेजी अनुवाद की भूमिका में गाँधी ने लिखा भी है कि ‘‘मुझे पता नहीं कि ‘हिंद स्वराज’ पुस्तक भारत में जब्त क्यों कर ली गई? मेरी दृष्टि में तो यह जब्ती ब्रिटिश सरकार जिस सभ्यता का प्रतिनिधित्व करती है उसके निन्द्य होने का अतिरिक्त प्रमाण है। इस पुस्तक में हिंसा का तनिक-सा भी समर्थन कहीं किसी रूप में नहीं है। हाँ, उसमें ब्रिटिश सरकार के तौर-तरीकों की जरूर कड़ी निंदा की गई है। अगर मैं यह न करता तो मैं सत्य का, भारत का और जिस साम्राज्य के प्रति वफादार हूँ उसका द्रोही बनता।’’3
       यह पुस्तक, जैसा कि उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है, प्रारंभ से लेकर आज तक इतिहासकारों और राजनीतिज्ञों के बीच वाद-विवाद के केन्द्र में रही है। कुछ विद्वानों ने इसे बहुत गंभीरता से लिया तो कुछ ने इसे गाँधीवादी सामाजिक कल्पनालोक, अयथार्थवादी पोंगापंथी तक कहा है।4 किन्तु आज भी जब एक वैकल्पिक व्यवस्था की बात की जाती है तो गाँधी के ‘स्वराज्य’ पर बहस जरूर होती है।
          यह पुस्तक पाठक और संपादक के बीच वार्तालाप की रोचक शैली में लिखी गई है। संपादक तो निस्संदेह महात्मा गाँधी हैं। पाठक कौन है इसकी पड़ताल गाँधी के इस कथन में की जा सकती है- ‘‘1909 में लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए जहाज पर हिंदुस्तानियों के हिंसावादी पंथ को और उसी विचारधारा वाले दक्षिण अफ्रीका के एक वर्ग को दिए ज़वाब के रूप में यह लिखी गई थी। लंदन में रहनेवाले एक नामी अराजकतावादी हिंदुस्तानी के संपर्क में मैं आया था। उनकी शूरवीरता का असर मेरे मन पर पड़ा था, लेकिन मुझे लगा कि उनके जोश ने उलटी राह पकड़ ली है।’’5 इस आधार पर कहा जा सकता है कि पाठक-संपादक वार्तालाप का अज्ञात पाठक ‘नामी अराजकतावादी हिंदुस्तानी शूरवीर’ वीर सावरकर थे जो उन दिनों लंदन में रह रहे थे, और जिन पर आगे चलकर ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध द्रोह के जुर्म में मुकदमा चलाया गया और उम्र कैद की सजा दी गई।6
        इस पुस्तक में कुल बीस अध्याय हैं जिसमें से महत्वपूर्ण बातों पर चर्चा करना उपयोगी होगा। ‘हिंद स्वराज्य’ में संकलित सन् 1921 ई. में लिखी गई भूमिका में गाँधी जी लिखते हैं कि ‘‘लेकिन मैं पाठकों को एक चेतावनी देना चाहता हूँ। वे ऐसा न मान लें कि इस किताब में जिस स्वराज्य की तस्वीर मैंने खड़ी की है, वैसा स्वराज्य कायम करने के लिए आज मेरी कोशिशें चल रही हैं। मैं जानता हूँ कि अभी हिंदुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है। ऐसा कहने में शायद ढिठाई का भास हो, लेकिन मुझे पक्का विश्वास है कि इसमें जिस स्वराज्य की तस्वीर मैंने खींची है, वैसा स्वराज्य पाने की मेरी निजी कोशिश जरूर चल रही है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आज मेरी सामूहिक प्रवृत्ति का ध्येय तो हिंदुस्तान की प्रजा की इच्छा के मुताबिक पार्लियामेंटरी ढंग का स्वराज्य पाना है।’’7
        तात्पर्य यह कि सन् 1921 में गाँधी भी अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज्य’ को राजनीतिक स्वराज्य के एक मॉडल के रूप में मानने से इंकार करते हैं। गाँधी के विचारों में लगातार परिवर्तन दिखाई देता है, क्योंकि वे ‘सत्य के साथ प्रयोग’ कर रहे थे, जड़ नहीं हो गए थे। बाद के वर्षों में गाँधी ने बार-बार दुहाराया है कि मेरी पिछली बातों पर हाल में कही बातों को तरजीह दी जाय। इस संदर्भ में कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं। गाँधी के आलोचकों ने जब उन पर अपने वैचारिक आग्रहों से विचलित होने का आरोप लगाया तो 1938 में उन्होंने कहा- ‘‘मेरे हाल के लेखनों को पहले कही बातों और किए गए कार्यों को निरस्त करता हुआ देखा जाना चाहिए। यद्यपि मेरे शरीर का आयु बढ़ने के साथ अपकर्ष हो रहा है, किन्तु मैं आशा करता हूँ कि अपकर्षण का कोई ऐसा नियम विवेक के विरूद्ध क्रियाशील नहीं है जिस पर मेरा विश्वास है कि उसका न केवल अपकर्षण होता है अपितु वह हमेशा बढ़ता रहता है।’’8
29 अप्रैल 1933 के ‘हरिजन’-3 में गाँधी ने लिखा था कि ‘‘सत्य की अपनी तलाश में मैंने बहुत से विचारों का त्याग किया है और कई चीजें सीखीं हैं....और इसीलिए यदि किसी को मेरे दो लेखनों मे विसंगति लगती है और उसे मेरे मानसिक संतुलन में विश्वास है तो वह उसी विषय पर मेरे बाद के लेखन को चुने।’’9
गाँधी की उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखें तो ‘हिंद स्वराज’ में जो स्वराज्य की अवधारणा है उसकी तलाश ‘हिंद स्वराज’ से बाहर जाकर करना आवश्यक हो जाता है।
        गाँधी बार-बार इस बात पर जोर देते हैं कि भारत से अंग्रेजों का चला जाना स्वराज्य मिलना नहीं है बल्कि भारत से अंग्रेजी व्यवस्था और सभ्यता को खत्म करके स्वराज्य प्राप्त किया जा सकता है। वार्तालाप के क्रम में स्वराज्य की रूपरेखा बताते हुए ‘पाठक’ कहता है कि ‘‘उन लोगों के जितनी (कैनेडा और बोअर लोगों को जो राजसत्ता मिली है) सत्ता जब अंग्रेज हमें देंगे तब हम अपना ही झंडा रखेंगे। जैसा जापान वैसा हिंदुस्तान। अपना जंगी बेड़ा, अपनी फौज और अपनी जाहोजलाली होगी। और तभी हिंदुस्तान का सारी दुनिया में बोलबाला होगा।’’10 इसके उत्तर में संपादक (गाँधी) कहता है- ‘‘इसका अर्थ तो यह हुआ कि हमें अंग्रेजी राज्य तो चाहिए, पर अंग्रेज (शासक) नहीं चाहिए। आप बाघ का स्वभाव तो चाहते हैं, लेकिन बाघ नहीं चाहते। मतलब यह हुआ कि आप हिंदुस्तान को अंग्रेज बनाना चाहते हैं। और हिंदुस्तान जब अंग्रेज बन जायगा तब वह हिंदुस्तान नहीं कहा जायेगा, लेकिन सच्चा इंग्लिस्तान कहा जायगा। यह मेरी कल्पना का स्वराज्य नहीं है।’’11
        गाँधी की कल्पना का स्वराज्य क्या है, इसे समझने से पहले ध्यान रखना होगा कि गाँधी दो स्तरों पर स्वराज्य की बात करते हैं- प्रथम तो आध्यात्मिक स्वराज्य की बात और दूसरे राजनीतिक स्वराज्य की बात। गाँधी के आध्यात्मिक स्वराज्य का अर्थ है व्यक्ति का स्वयं पर अर्थात् अपने मन पर नियंत्रण रखना। दूसरे शब्दों में कहें तो आत्मिक उन्नति प्राप्त करना। पश्चिमी सभ्यता के भारत में प्रसार की वजह से भारत की सभ्यता और संस्कृति दूषित हो गई थी, यहाँ के नागरिक सुविधाआंे के वश में हो गए थे और भोग-विलास तथा आनंद की प्राप्ति ही जीवन का प्रमुख लक्ष्य हो गया था। अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से अंग्रेजी संस्कृति हमारे मन को गुलाम बनाती जा रही थी और गाँधी इसे ही परतंत्रता का प्रमुख कारक मानते थे। उन्होंने लिखा है कि- ‘‘...सारा हिंदुस्तान उसमें (गुलामी में) घिरा हुआ नहीं है। जिन्होंने पश्चिम की शिक्षा पाई है और जो उसके पाश में फंस गए हैं, वे ही गुलामी में घिरे हुए हैं। हम जगत को अपनी दमड़ी के नाप से नापते हैं। अगर हम गुलाम हैं, तो जगत को भी गुलाम मान लेते हैं। ....हम अपने ऊपर राज करें वही स्वराज्य है; और वह स्वराज्य हमारी हथेली में है।’’12
         एक ओर तो गाँधी स्वराज्य की अवधारणा को अध्यात्म से जोड़कर अमूर्त कर देते हैं तथा दूसरी ओर उसे धर्म अथवा ‘रामराज्य’ से जोड़कर भी विवादस्पद बना देते हैं। इसी ‘रामराज्य’ की अवधारणा के कारण गाँधी को बार-बार बताना भी पड़ा था कि रामराज्य से उनका तात्पर्य क्या है। फिर भी मुस्लिम जनता का रामराज्य से तादात्म्य बिठा पाना मुमकिन नहीं हो सका। गाँधी ‘हिन्दी नवजीवन’ के 20 मार्च 1930 के ‘स्वराज्य और रामराज्य’ शीर्षक लेख में लिखते हैं कि ‘‘स्वराज्य के कितने ही अर्थ क्यों न किए जाएँ, मैं भी उसके कितने ही अर्थ क्यों न बताता रहा हूँ, तो भी मेरे नजदीक तो उसका त्रिकाल-सत्य एक ही अर्थ है, और वह है रामराज्य। यदि किसी को रामराज्य शब्द बुरा लगे तो मैं उसे धर्मराज्य कहूँगा। रामराज्य शब्द का भावार्थ यह है कि उसमें गरीबों की संपूर्ण रक्षा होगाी, सब कार्य धर्मपूर्वक किए जायेंगे और लोकमत का हमेशा आदर किया जाएगा।”13
        इसी प्रकार स्वराज्य की परिभाषा के अंतर्गत व्यावहारिक नीति-शास्त्र को समेटते हुए गाँधी कहते हैं कि ‘‘स्वराज्य का वास्तविक अर्थ है- अपने ऊपर काबू रख सकना। यह वही मनुष्य कर सकता है जो स्वयं नीति का पालन करता है, दूसरों को धोखा नहीं देता, माता-पिता, स्त्री-बच्चे, नौकर-चाकर, पड़ोसी सबके प्रति अपने कर्तव्य का पालन करता है। ऐसा मनुष्य चाहे जिस देश में हो फिर भी स्वराज्य ही भोग रहा है। जिस राष्ट्र में ऐसे मनुष्यों की संख्या अधिक हो उसे स्वराज्य मिला हुआ ही समझना चाहिए।’’14
      गाँधी ने हमेशा ही त्याग और आत्मबलिदान पर बल दिया। वे हिंसा का रास्ता अपनाकर आजादी नहीं प्राप्त करना चाहते थे। साधन की शुद्धता पर वे बहुत जोर देते थे। उन्हें पूरा विश्वास था कि शस्त्र-बल से मिली आजादी आम जनता के हित में कतई नहीं होगी। जो शस्त्र के बूते पर आजादी हासिल करेगा वह अपनी बात मनवाने के लिए जनता के ऊपर भी उसी शस्त्र का प्रयोग करेगा।15 गाँधी ने लिखा है कि ‘‘मैं जिस स्वराज्य की कल्पना करता हूँ वह दूसरों की हत्या और रक्तपात का परिणाम नहीं, बल्कि अनवरत आत्म-बलिदान के स्वेच्छा-प्रेरित कार्य का ही परिणाम होगा। वह रक्तपात करके अधिकारों को बलात् छीन लेने का परिणाम नहीं होगा, वह तो ठीक ढंग से और सच्चे अर्थों में कर्तव्य के पालन का स्वाभाविक सुफल होगा। इसलिए ऐसे स्वराज्य को पाने के प्रयत्न में नीरो के ढंग का नहीं, बल्कि चैतन्य महाप्रभु के ढंग का पर्याप्त रस भी मिलेगा।” 16 इसके साथ-साथ गाँधी का ध्यान इस ओर भी था कि ‘‘हिंदुस्तान ने शस्त्र युद्ध द्वारा अगर स्वतंत्रता प्राप्त की तो दुनिया में सच्ची शांति की स्थापना का दिन अनिश्चित काल तक के लिए टल जाएगा।’’17 ‘पूर्ण स्वराज्य क्यों’ शीर्षक अपने छोटे से लेख में गाँधी ने लिखा है कि ”...स्वराज्य प्राप्ति का अर्थ है सब कठिनाइयों पर विजय पाना।’’18
       गाँधी के स्वराज्य की व्याख्या महज राजनीतिक स्वाधीनता तक ही सीमित नहीं थी बल्कि उसके दायरे में जीवन का हर क्षेत्र आता था। गाँधी ’हिंद स्वराज’ में ही एक जगह लिखते हैं कि ‘‘स्वराज्य तो सबको अपने लिए पाना चाहिए- और सबको उसे अपना बनाना चाहिए। दूसरे लोग जो स्वराज्य दिला दें वह स्वराज्य नहीं है, बल्कि परराज्य है। इसलिए सिर्फ अंग्रेजों को बाहर निकाला कि आपने स्वराज्य पा लिया, ऐसा अगर आप मानते हैं तो वह ठीक नहीं है।’’19
     जिस प्रकार मानव की मुक्ति के लिए भगवान बुद्ध ने तीन सूत्र दिए थे (संसार में दुख है, दुख का कारण है, निवारण हेतु आष्टांगिक मार्ग....); ठीक उसी शैली में महात्मा गाँधी तीन सूत्र देते हैं-
1. अपने मन का राज्य स्वराज्य है।   
2. उसकी कुंजी सत्याग्रह, आत्मबल या करुणा-बल है।
3. उस बल को आजमाने के लिए स्वदेशी को पूरी तरह अपनाने की जरूरत है।20
इस प्रकार देखा जा सकता है कि गाँधी दो अलग-अलग स्वराज्य की बात करते हैं- आध्यात्मिक स्वराज्य और राजनीतिक स्वराज्य। आध्यात्मिक स्वराज्य की बात जब गाँधी करते हैं तो ज्यादातर उसमें नीति और व्यवहार की बातें आ जाती हैं, कुछ आत्मसंयम और आत्मोन्नति की बातें होती हैं तथा कुछ वे बातें भी आ जाती हैं जिसकी चर्चा वे राजनीतिक स्वराज्य के अंतर्गत भी करते हैं। जैसे पश्चिमी सभ्यता और पश्चिमी शिक्षा को वे सभ्यता और संस्कृति से भी जोड़ते हैं तथा राजनीतिक परतंत्रता से भी। किन्तु जब राजनीतिक स्वराज्य की बात वे करते हैं तो बातें ठोस धरातल पर होती हैं, हालाँकि बाद की बातों से जोड़ने पर उनमें अंतर्विरोध दिख जाता है।
        राजनीतिक स्वतंत्रता के अर्थ में स्वराज्य गाँधी की कोई अमूर्त कल्पना नहीं थी बल्कि वह यथार्थ की सख़्त जमीन पर सोची-समझी नीति थी। ‘‘स्वराज्य की व्याख्या’’ शीर्षक लेख में सन् 1921 में गाँधी लिखते हैं- ‘‘...स्वराज्य का अर्थ है- देश के आयात और निर्यात पर, सेना और अदालतों पर जनता का पूरा नियंत्रण। ...स्वराज्य का अर्थ है अन्न-वस्त्र की बहुतायत। परंतु वह इतनी होनी चाहिए कि किसी को भी उसके बिना भूखा और नंगा न रहना पड़े। ...स्वराज्य का अर्थ है- ऐसी स्थिति जिसमें एक बालिका भी घोर अंधकार में निर्भयता के साथ घूम-फिर सके। ...स्वराज्य का अर्थ होगा अन्त्यजों के प्रति अस्पृश्यता की भावना का सर्वथा लोप, ब्राह्मणों और अब्राह्मणों के झगड़े की समाप्ति तथा हिंदू-मुसलमान के मनोमालिन्य का सर्वथा नाश। ...स्वराज्य का अर्थ है- हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी, यहूदी सभी धर्मों के लोग अपने-अपने धर्म का पालन कर सकें और ऐसा करते हुए एक-दूसरे की रक्षा और एक-दूसरे के धर्म का आदर करें। स्वराज्य का अर्थ है प्रत्येक ग्राम चोरों और डाकुओं के भय से अपनी रक्षा करने में समर्थ हो जाये और प्रत्येक ग्राम अपने लिए आवश्यक अन्न-वस्त्र पैदा करे। स्वराज्य का अर्थ है- देशी राज्यों, जमींदारों और प्रजा में मित्र भाव रहे, देशी राज्य अथवा जमींदार प्रजा को परेशान न करे और रियाया राजा, अथवा जमींदार को तंग न करे। धनवान और श्रमजीवियों में परस्पर मित्रता। स्वराज्य वह है जिसमें स्त्रियाँ माता और बहनें समझी जायें और उनका मान-आदर हो तथा ऊँच-नीच का भेद-भाव दूर होकर सब परस्पर भाई-बहन की भावना से बरताव करें। स्वराज्य में राज्यसत्ता मादक पदार्थों का व्यापार न करे, अनाज और रूई का सट्टा न हो, कोई कानून भंग न करे। स्वराज्य में स्वेच्छाचार के लिए बिल्कुल स्थान न रहे, जिससे कोई अपने ही खिलाफ की गई शिकायत का फैसला खुद ही काजी बनकर न करे बल्कि देश की बनाई अदालत में अपने खिलाफ की गई फरियाद का फैसला होने दे।21
           इस आधार पर कहा जा सकता है कि गाँधी के स्वराज्य संबंधी विचार कल्पना पर आधारित नहीं हैं बल्कि उसका एक ठोस वैचारिक जमीन है। गाँधी कुछ सीमित लोगांे के लिए आजादी नहीं चाहते थे। उनकी नजर करोड़ों आम भारतीयों पर थी जिन्हें वे अपने आंदोलन में सहयोगी बनाना चाहते थे। गाँधी की राजनीति की यह एक अपूर्व विशेषता थी। इससे पहले नेताओं ने शोषितों-पीड़ितों के हक में आवाज ज़रूर उठाई किन्तु उन्हें अपने साथ लेने का प्रयास नहीं किया। जबकि गाँधी का इस मुद्दे पर साफ तौर पर मानना था कि ‘‘एक ही जाति अथवा एक ही वर्ग के प्रयत्नांे से मिलने वाला स्वराज्य, स्वराज्य नहंी बल्कि उस जाति अथवा वर्ग का राज्य होगा।’’22 इसलिए सबों की राष्ट्रीय आंदोलन में भागीदारी ज़रूरी थी। गाँधी भली-भाँति जान रहे थे कि ‘‘स्वराज्य कुछ आसमान से तो नहंी टपक पड़ेगा। इसके लिए धैर्य, कठिनाइयों को झेलते हुए अडिग रहने, अथक परिश्रम और साहस तथा परिस्थितियों और परिवेश की सही पहचान तथा पकड़ की आवश्यकता होगी।’’23 परिस्थितियों और परिवेश को सही तौर पर समझने के क्रम में ही गाँधी ने जाना कि अंग्रेजी पढ़े-लिखे मुट्ठी भर लोग संपूर्ण हिंदुस्तान नहीं हैं। आम लोगों की समझ में आने लायक शब्द, जो सबों की स्वतंत्रता को द्योतित करता हो, चुनने की कश्मकश में गाँधी ने ‘स्वराज्य’ शब्द का इस्तेमाल करना सबसे अधिक पसंद किया। ‘स्वराज्य’ शब्द का पहली बार प्रयोग दादा भाई नौरोजी ने 1906 ई. की कलकत्ता कांग्रेस के अपने अध्यक्षीय भाषण में स्वशासन के अर्थ में किया था।24
           गाँधी जी इस विषय पर थोड़ी-सी भी दुविधा में नहीं हैं कि केवल अंग्रेजों के भारत छोड़ देने से भारत को स्वराज्य नहीं मिल जाएगा। उसके लिए देश को अंग्रेजी सभ्यता से भी छुटकारा पाना होगा। महात्मा गाँधी लिखते हैं कि- ‘‘हिंदुस्तान की आजादी से मतलब है सारे हिंदुस्तान की आजादी। आजादी नीचे से शुरू होनी चाहिए। हर एक गाँव में जम्हूरी सभ्यता का या पंचायत का राज होगा। उसके पास पूरी सत्ता और ताकत होगी। ...जो आदमी अपनी जमीन में से पैदा करता है और खाता है जो जनरल बने, प्रधान बने तो हिंदुस्तान की शक्ल बदल जाएगी। आज जो सड़ा पड़ा है वह नहीं रहेगा।’’25 अन्यत्र भी गाँधी लिखते हैं कि ‘‘आप हिंदुस्तान का अर्थ मुट्ठी भर राजा करते हैं। मेरे मन में तो हिंदुस्तान का अर्थ वे करोड़ों किसान हैं जिनके सहारे राजा और हम सब जी रहे हैं।’’26 ‘‘हम किसी का भी जुल्म या दबाव नहीं चाहते- चाहे वो गोरा हो या हिंदुस्तानी।’’27
            उपर्युक्त उद्धरणों से यह लग सकता है कि गाँधी भी भगतसिंह की भाँति ही किसानों-मजदूरों का राज चाहते थे। सवाल अगर सिर्फ चाहने का है तो बेशक गाँधी ऐसा चाहते थे, किन्तु व्यवहार के स्तर पर गाँधी इस निर्धारित लक्ष्य की ओर बढ़ते नहीं दिखाई देते। किसानों-मजदूरों के राज्य का रास्ता उनके जमींदारों और पूँजीपतियों से समन्वय की नीति और ट्रस्टीशिप के रास्ते से बहुत दूर था। इस फर्क को गाँधी षायद नहीं समझ पा रहे थे।
सन् 1942 में लुइस फिशर से बातचीत के क्रम में गाँधी कहते हैं- ‘‘गाँवों में किसान कर देना बंद कर देंगे। अगला कदम जमीन पर कब्जा करना होगा।’’28 और इसके लिए वे हिंसा की आशंका से इंकार नहंी करते। तो क्या यह मान लिया जाय कि गाँधी भी धीरेे-धीरे उसी दिशा में बढ़ रहे थे जहाँ क्रांति के लिए हिंसा प्राथमिक उपाय न भी हो तो अंतिम उपाय हो सकती थी? लेकिन  गाँधी के विचारों के परिवर्तन की दिशा पकड़कर अनुमान लगाने से मनमाने निष्कर्ष भी निकाले जा सकते हैं, इसलिए यह सही नहीं है।
         गाँधी बार-बार अपने स्वराज्य को स्पष्ट करते हैं और उसे सबके हित में साबित करने का प्रयास करते हैं। 11 जून 1931 के यंग इंडिया में उन्होंने एक लेख लिखा ‘जब स्वराज्य होगा’। इसमें वे लिखते हैं कि ‘‘...धार्मिक निष्पक्षता का मतलब यह है कि सरकार का कोई भी राजधर्म नहीं होगा, न कोई विशेष पक्षपात का तरीका ही होगा। अस्पृश्यता मिट जाएगी। ‘अस्पृश्यों’ को किसी भी दूसरे मनुष्य के बराबर ही हक मिलेंगे। परंतु ब्राह्मण को इस बात के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा कि वह किसी दूसरे को छुए ही। उसे स्वयं अस्पृश्य बनने, अपने कुएँ, अपने मंदिर, अपनी शाला और दूसरी तमाम चीजें जो वह रख सकता हो, तब तक रखने की छूट होगी, जब तक वह उनका उपयोग पड़ोसियों के मार्ग में बाधा डाले बिना करेगा। परंतु जैसा कि कुछ लोग आजकल करते हैं, अन्त्यजों को सार्वजनिक रास्तों पर चलने की, सार्वजनिक कुओं का उपयोग करने की हिम्मत करने के लिए सजा नहीं दी जा सकेगी। सार्वजनिक मंदिरों में जाने की छूट दूसरे सब हिंदुओं को हो, और अन्त्यजों को नहंीं, ऐसे अत्याचार स्वराज्य में नहीं टिक सकेंगे। वेदों और दूसरे शास्त्रों की प्रामाणिकता अस्वीकार नहीं की जाएगी परंतु जिस हद तक इन धर्म ग्रंथों का उपयोग जनता को आचार-विचार का नियमन करने में होगा, उस हद तक उनका अर्थ करने का काम व्यक्तियों का नहीं बल्कि अदालतों के जिम्मे रहेगा। धर्म बुद्धि के विधि-निषेधों की कद्र की जाएगी, परंतु इसके लिए सार्वजनिक सदाचार या दूसरे अधिकारों को हानि पहुँचाकर नहीं। जो असाधारण विधि-निषेधों को अपनायेंगे, उन्हें स्वयं अड़चन उठानी पड़ेगी और अपनी इस सुविधा का दाम चुकाना होगा। रूढ़ि या धर्म के नाम पर कोई भी व्यक्ति या वर्ग अपने को उच्च मान ले, तो कानून उसे सहन नहीं करेगा।’’29
             यह सही है कि गाँधी ने भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करने से पहले भारत के गाँवांे का भ्रमण किया और उसे बहुत निकट से देखा और समझा, किन्तु उपर्युक्त उद्धरण से ऐसा लगता है कि वे लोगांे की प्रवृत्ति से बिल्कुल अनजान हैं। वे पृथकता कायम रखते हुए अस्पृश्यता मिटाने की बात करते हैं। यह अजीब विरोधाभास है। वैसे ही वेदों और धर्मगं्रथों की सत्ता बनाये रखते हुए धर्मनिरपेक्षता की भी बात करते हैं। इसके अलावा उल्लेखनीय बात यह भी है कि गाँधी ‘संसद’ का विरोध करते हैं। इंगलैंड की पार्लियामेंट के बारे में गाँधी की राय गौर करने लायक है। वे लिखते हैं कि- ‘‘जितना समय और पैसा पार्लियामंेट खर्च करती है उतना समय और पैसा अगर अच्छे लोगों को मिले तो प्रजा का उद्धार हो जाय। ब्रिटिश पार्लियामेंट महज प्रजा का खिलौना है और वह खिलौना प्रजा को भारी खर्च में डालता है। ...प्रधानमंत्री को पार्लियामेंट की थोड़ी ही परवाह रहती है। वह तो अपनी सत्ता के मद में मस्त रहता है। अपना दल कैसे जीते इसी की लगन उसे रहती है। पार्लियामेंट सही काम कैसे करे, इसका वह बहुत कम विचार करता है अपने दल को बलवान बनाने के लिए प्रधानमंत्री पार्लियामेंट से कैसे-कैसे काम करवाता है इसकी मिसालें जितनी चाहिए उतनी मिल सकती हैं।’’30 किन्तु ‘हिंद स्वराज’ की सन् 1921 में लिखी भूमिका में ही गाँधी ने कहा है कि ‘‘आज मेरी सामूहिक प्रवृत्ति का ध्येय तो हिंदुस्तान की प्रजा की इच्छा के मुताबिक पार्लियामेंटरी ढंग का स्वराज्य पाना है।’’ इस अंतर्विरोध में फंसकर कोई दिशा तय कर पाना बहुत कठिन लगता है। अगर गाँधी की इच्छा के मुताबिक भारत का प्रत्येक गाँव अपने आप में आत्मनिर्भर हो जाता तो भारत का एक राष्ट्र के रूप में संगठित होना संभव नहीं होता। आत्मनिर्भरता से एकता नहीं हो सकती, एक-दूसरे पर निर्भर होने से ही एकता संभव हो सकती है। अगर भारत एक संगठित राष्ट्र नहीं बन पाता, सभी गाँव अपने-अपने घेरे में आत्मनिर्भर और आनंदित रहते तो गाँधी के जनांदोलन का क्या होता! गाँव आत्मनिर्भर हों या न हों, अंग्रेज तो कायम रहते ही, लेकिन स्वाबलंबी गाँवों की वजह से उन अंग्रेेजों को भगा पाना मुश्किल होता। व्यक्ति के स्वावलंबन को भी गाँधी जितना महत्व देते हैं, अगर कोई उसी तरह बनने का प्रयास करे तो उसका सारा दिन अनुत्पादक कामों में ही व्यतीत हो जाएगा। पार्लियामंेट का विरोध करते हुए गाँधी कोई ऐसी वैकल्पिक व्यवस्था नहीं सुझाते जो भारत जैसे बड़े देश को संगठित और सुशासित रख सके।
        गाँधी बार-बार यह दुहराते हैं कि हमारी लड़ाई अंग्रेजों से नहीं बल्कि अंग्रेजी सभ्यता से है क्योंकि वह सभ्यता ‘‘दूसरों का नाश करनेवाली और खुद नाशवान है।’’31 भारत की परतंत्रता की प्रमुख वजह वे इसी सभ्यता को मानते हैं। उनकी ‘‘पक्की राय है कि हिंदुस्तान अंग्रेजों से नहीं बल्कि आजकल की सभ्यता से कुचला जा रहा है।’’32 उन्हें लगता है कि अगर हम अंग्रेजी संस्कृति और अंग्रेजी वस्तुआंे को दृढ़तापूर्वक अपने जीवन से खारिज कर दें तो अंग्रेज मजबूरन भारत छोड़ देंगे अथवा वे भी भारतीय सभ्यता को ही अपना लेंगे। वे लिखते हैं कि ‘‘अंग्रेजों को यहाँ लाने वाले हम हैं और वे हमारी बदौलत ही यहाँ रहते हैं। आप यह कैसे भूल जाते हैं कि हमने उनकी सभ्यता अपनायी है, इसलिए वे यहाँ रह सकते हैं? आप उनसे जो नफरत करते हैं वह नफरत आपको उनकी सभ्यता से करनी चाहिए।’’33
पश्चिमी सभ्यता के संवाहक के तौर पर ही गाँधी रेल, वकील और डॉक्टर को देखते हैं और इसीलिए इन तीनों का पुरजोर विरोध करते हैं। वे यह तक कहते हैं कि ‘‘हिंदुस्तान को रेलों, वकीलों और डॉक्टरों ने कंगाल बना दिया है।”34
       शिक्षा के संदर्भ में बात करें तो गाँधी पाश्चात्य शिक्षा के हिमायती नहीं हैं। वे किसी को शिक्षा देने से पहले यह तय कर लेना चाहते हैं कि उसे इस शिक्षा से क्या मिल सकता है और उस शिक्षा का उपयोग उसके जीवन में हो सकता है या नहीं! साक्षरता को गाँधी बहुत महत्व नहीं देते। गाँधी की दृष्टि में अंग्र्रेजी की शिक्षा देना गुलामी में डालने जैसा है।35 इसके अलावा गाँधी निज भाषा पर काफी बल देते हैं।36
किन्तु ‘हिंद-स्वराज’ में इसी प्रसंग मंे गाँधी स्वीकार करते हैं कि ‘‘हम सभ्यता के रोग में ऐसे फंस गए हैं कि अंग्रेजी शिक्षा बिल्कुल लिए बिना अपना काम चला सकें ऐसा समय अब नहीं रहा। जिसने वह शिक्षा पाई है, वह उसका अच्छा उपयोग करे।’’37
          इससे किसे इंकार हो सकता है कि ज्ञान का सही इस्तेमाल हो, किन्तु गलत इस्तेमाल की आशंका में हम ज्ञान से ही मुँह मोड़ लें, यह किसी भी दृष्टिकोण से सही नहंी हो सकता। एक अंग्रेज विद्वान को उद्धृत करते हुए वे लिखते है।  ‘‘...उसने सच्ची शिक्षा पाई है, जिसकी बुद्धि शुद्ध, शांत और न्यायदर्शी है। उसने सच्ची शिक्षा पायी है, जिसका मन कुदरती कानूनों से भरा है और जिसकी इन्द्रियाँ उसके बस में हैं, जिसके मन की भावनायें बिल्कुल शुद्ध हैं, जिसे नीच कामों से नफरत है और जो दूसरों को अपने जैसा मानता है।’’38 लेकिन इस शिक्षा से किसी व्यक्ति अथवा देश का विकास नहीं हो सकता, भले ही गाँधी की राय में वह शिक्षा बहुत मूल्यवान ठहरती हो। हिंदुस्तान के हजारों वर्षों के इतिहास को पलटकर देख लें, सारे ग्रंथ ब्राह्मणों या सवर्णों ने लिखे हैं, सारे धर्मों का प्रवर्तन भी इन्हीं लोगों के द्वारा हुआ। भीमराव अम्बेडकर जैसा विद्वान व्यक्ति पश्चिमी शिक्षा के द्वारा ही संभव हो सका। गाँधी की शिक्षा अथवा सभ्यता नीति अन्त्यजों और शूद्रों को मंदिर में पूजा करने का अधिकार भले ही दिलवा देती किन्तु धर्म-ग्रंथ रचने की अवस्था तक नहीं पहंुचा सकती थी।
       गाँधी शिक्षा में धर्म को भी जोड़ने की बात करते हैं। वे धर्म की भले ही चाहे जितनी उदार और सार्वभौम व्याख्या प्रस्तुत करें किन्तु हर जगह धर्म का घालमेल धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के लिए रूकावट ही बनेगा, यह भी तय है। लेकिन गाँधी इन बातों में दूरदर्शिता से काम नहीं लेते, वे सभी को अपनी तरह ही मान लेते हैं। चाहे राजनीति हो, चाहे समाजनीति हो, चाहे अर्थनीति हो या चाहे शिक्षानीति हो- हर प्रसंग में किसी न किसी तरह गाँधी धर्म को जोड़ ही देते हैं। इससे सांप्रदायिक तत्वों को खाद-पानी मिलता रहा है। जिन्ना अंत-अंत तक गाँधी को एक हिंदू नेता ही मानते रहे, भले ही गाँधी ने इसी सांप्रदायिक सद्भाव के कारण अपने को बलिदान कर दिया।
        रेलों और डॉक्टरों तथा वकीलों के संदर्भ में भी गाँधी के विचार देख लें जो उन्होंने सन् 1921 में ‘हिंद स्वराज’ की भूमिका मंे व्यक्त किया है- ‘‘रेलों या अस्पतालों का नाश करने का ध्येय मेरे मन में नहीं है, अगरचे उनका कुदरती नाश हो तो मैं जरूर स्वागत करूंगा। ...ज्यादा से ज्यादा यही कह सकते हैं कि यह एक ऐसी बुराई है, जो टाली नहीं जा सकती। ...उसी तरह मैं अदालतों के स्थायी नाश का ध्येय मन में नहीं रखता, हालाँकि ऐसा नतीजा आये तो मुझे अवश्य बहुत अच्छा लगेगा। यंत्रों और मिलों के नाश के लिए तो मैं उससे भी कम कोशिश करता हूँ।’’39
       डॉक्टरों और पश्चिमी चिकित्सा विज्ञान से पहले भारत में प्रति हजार व्यक्ति मृत्यु दर क्या थी और उसके बाद क्या हो गई, गाँधी इस तथ्य से आंख मूंद लेते हैं। जो विज्ञान एक भी व्यक्ति का जीवन बचा सकने में कामयाब हो वह क्योंकर त्याज्य हो सकता है? यहाँ तक कि पश्चिमी चिकित्सा शास्त्र के कारण भारतीय लोगों की औसत उम्र में भी लगातार वृद्धि हुई है। यह सही है कि डॉक्टरों का पेशा लोगों के स्वास्थ्य पर नहीं बल्कि अस्वास्थ्य पर टिका होता है, किन्तु इससे हम डॉक्टरों के महत्व को कैसे नकार सकते हैं! हरेक पहलू के दोनों पक्ष होते हैं, यह स्वयंसिद्ध है।
        वकील भी निश्चित तौर पर पश्चिमी न्याय व्यवस्था के आधार हैं। परंतु गाँवों में पंचायत होने के बावजूद भी गरीबों को न्याय नहीं मिलता था, न ही सभी पंच ‘परमेश्वर’ होते हैं। गाँधी अगर ग्रामीण पंचों को पश्चिमी न्याय व्यवस्था का विकल्प मानते हैं तो भूल करते हैं। पश्चिमी न्याय-व्यवस्था कायम होने के बाद ही हिंदुस्तान के आम लोगों को मालूम हुआ कि गरीबों को भी न्याय मिल सकता है, साथ ही यह भी कि गरीब और अमीर कानून की नजर मे बराबर हैं। भले ही वकील अंग्रेजी भाषा में जिरह करें, लेकिन बिना जिरह किए न्याय नहीं होता था। भले ही चालाकी से गवाही दिलवाकर, वकीलों को पैसे देकर सामर्थ्यवान लोग इस व्यवस्था में भी अपने पक्ष में फैसला करवाते रहे, लेकिन वैसा तालमेल हमेशा संभव नहीं होता और कभी-कभी गरीबों को भी न्याय मिल जाता था।
        इसी प्रकार रेलों के आने से आम लोगों का भी दूर-दूर आना-जाना संभव हुआ और इतने ही परिवर्तन से देश का परिदृश्य बहुत हद तक बदल गया। किसान अपनी फसल को गाँवों की चौहद्दी तक ही बेचने को मजबूर नहीं रहा, वह रेलों में लादकर उसे शहर में भी ला सकता था। यही स्थिति बुनकरों और शिल्पकारों की भी रही। यह सही है कि अंग्र्रेजी सरकार ने भारतीयों के फायदे को ध्यान में रखकर रेलें नहीं चलाई, किन्तु यह भी सही है कि रेल आम लोगों के लिए कई संदर्भों में फायदेमंद भी रही।
           ब्रिटिश सत्ता केवल ताकत पर ही नहीं बल्कि एक खास तरह की विचारधारा पर भी टिकी थी और गाँधी देख रहे थे कि वह विचारधारा लोगों के दिलो-दिमाग में घर करती जा रही है। अंग्रेज सरकार एक ओर तो भारतीय सभ्यता को सामंती और रूढ़िवादी तथा जड़ साबित करने का प्रयास कर रही थी और इसी के आधार पर यहाँ के निवासियों को भी असभ्य बता रही थी, वहीं दूसरी ओर अपनी सभ्यता को अत्यंत ही उदार, न्यायप्रिय और लोकतांत्रिक बता रही थी। उसके ऐसा करने के पीछे यह तर्क था कि वे भारत का शोषण करने के लिए इस पर शासन नहीं कर रहे हैं बल्कि इस देश को सभ्य और सुसंस्कृत बनाने के लिए ऐसा कर रहे हैं। चूंकि वे विश्व के सर्वाधिक सभ्य और विकसित नागरिक हैं, अतः असभ्य देशों को सभ्य बनाना उनका मानवीय कर्तव्य बनता है। धीरे-धीरे भारत की जनता भी यह मानने लग गई थी कि हम असभ्य हैं तथा अंग्रेज सभ्य हैं और यह भी कि अंग्रेज सरकार हमारी भलाई के लिए है।
            इन परिस्थितियों में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन अंग्रेजों के इस वैचारिक प्रभुत्व से टक्कर लिए बिना अपना वर्चस्व कायम नहीं कर सकता था। यह वैचारिक-राजनीतिक संघर्ष राष्ट्रवादी नीति का सबसे महत्वपूर्ण पहलू था जिसका प्रारंभ नवजागरण काल में ही हो गया था। एक ओर राष्ट्रवादी नेताओं ने भारतीय गौरव को प्रचारित करके लोगों के च्युत आत्मसम्मान को फिर से स्थापित किया, दूसरी ओर अंग्रेजी सरकार की शोषणपरक आर्थिक-राजनीतिक नीतियों का पर्दाफाश करके उसके चेहरे पर सजे सभ्यता के आवरण को उखाड़ फेंका। महात्मा गाँधी के ‘हिंद स्वराज’ का महत्व अगर इस दृष्टिकोण से देखें तो समझ में आ सकता है। इस पुस्तक में गाँधी ने ढूंढ़-ढूंढ़कर अंग्रेजी सभ्यता की आलोचना की है। लोगों में इस सभ्यता को लेकर पर्याप्त सम्मान का भाव था, जाहिर है कि इस स्थिति में उससे लोहा लेना नामुमकिन था। खादी और स्वदेशी की प्रतिज्ञा इसी दिशा में बढ़ता हुआ कदम था। किन्तु गाँधी अंग्रेजी सभ्यता से नफरत करते हुए अंग्रेजों से प्रेम करने की बात कहकर इस अवधारणा को दुरूह बना देते हैं। अंग्रेजी सभ्यता अंग्रेजों से किसी भी अर्थ मंे अलग नहीं थी, वह अंग्रेजों के साथ ही भारत मंे आई थी, यह दुखद विडम्बना है कि अंग्रेजों के साथ वह सभ्यता गई नहीं। ऐसा करना गाँधी के लिए संभव होता भी हो तो आमजन के लिए संभव नहीं था, बल्कि आम लोगों के लिए तो अंग्रेजों से अलग करके अंग्रेजी सभ्यता को समझ भी पाना मुश्किल था। किसी भी विचार अथवा आविष्कार के दोनों पहलू होते हैं और उसके प्रयोग से होने वाली भलाई या बुराई व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है। किन्तु इस भय से ज्ञान और विवेक को कुंद कर देना किसी भी दशा में सही नहीं समझा जा सकता। गाँधी इस तथ्य को नजरअंदाज कर रहे थे कि राष्ट्रीय आंदोलन या नवजागरण काल के अधिकांश नेता उसी शिक्षा और सभ्यता के जरिए आए हैं। स्वयं गाँधी भी उसी शिक्षा और सभ्यता से उस सभ्यता के प्रबल विरोध तक पहुँचे थे। कहने का यह आशय नहीं है कि उस शिक्षा के बिना स्वतंत्रता की चेतना पैदा नहीं होती, किन्तु उस शिक्षा के बिना स्वतंत्रता की चेतना को सुविचारित-सुनियोजित रूप देना संभव नहंी होता, यह माना जा सकता है।
इसी तरह आधुनिकता को अपनाना अंग्रेजी सभ्यता का अंधानुकरण नही है। आधुनिकीकरण और पाश्चात्यीकरण दो अलग-अलग चीजें हैं। अगर एक के साथ दूसरा लगा-बंधा आ जाए तो दूसरे की निंदा उचित हो सकती है किन्तु समग्र ज्ञान और विचार की निंदा करना बेमानी है। यह भी सोचना होगा कि आधुनिकता का न होना मध्यकालीन मूल्यों के लिए जगह तैयार करता है।
         यंत्रों के संबंध में ‘हिंद स्वराज्य’ में गाँधी लिखते हैं कि ‘‘मशीनें यूरोप को उजाड़ने लगी हैं और वहाँ की हवा अब हिंदुस्तान में चल रही है। यंत्र आज की सभ्यता की मुख्य निशानी है और वह महापाप है।’’40 वे यहाँ तक लिखते हैं कि ‘‘हम हिंदुस्तान में मिलें कायम करें, उसके बजाय हमारा भला इसी में है कि हम मैनचेस्टर को और भी रुपये भेजकर उसका सड़ा हुआ कपड़ा काम में ले लें, क्योंकि उसका कपड़ा काम में लेने से सिर्फ हमारे पैसे ही जायेंगे। हिंदुस्तान में अगर हम मैनचेस्टर कायम करेंगे तो पैसा हिंदुस्तान में ही रहेगा, लेकिन वह पैसा हमारा खून चूसेगा; क्योंकि वह हमारी नीति को बिल्कुल खतम कर देगा। ...गरीब हिंदुस्तान तो गुलामी से छूट सकता है लेकिन अनीति से पैसे वाला बना हुआ हिंदुस्तान गुलामी से कभी नहीं छूटेगा। ...अंग्रेजी राज को यहाँ टिकाए रखनेवाले धनवान लोग ही हैं।’’41
गाँधी यह समझते थे कि अंग्रेजी राज को यहाँ बनाये रखने वाले धनवान लोग हैं, किन्तु कांग्रेस में धनवानों को टिकाये रखने में गाँधी की भी भूमिका थी और यह विचित्र विरोधाभास था। ‘हिंद स्वराज’ में मशीन के विरोध में गाँधी और भी कई अव्यावहारिक बातें करते हैं, जिसकी चर्चा यहाँ अनावश्यक है। वे यहाँ तक कहते हैं कि ‘‘जब ये सब चीजें यंत्र से नहीं बनती थीं तब हिंदुस्तान क्या करता था? वैसा ही आज भी कर सकता है।’’42 किंतु सन् 1921 मंे ‘हिंद स्वराज्य’ की लिखी भूमिका में गाँधी यंत्र संबंधी अपने विचारों में  सुधार कर लेते हैं। वे लिखते हैं- ‘‘मिलों के संबंध में मेरे विचारों में इतना परिवर्तन हुआ है कि हिंदुस्तान की आज की हालत में मैनचेस्टर के कपड़े के बजाय हिंदुस्तान की मिलों को प्रोत्साहन देकर भी अपनी जरूरत का कपड़ा हमें अपने देश में ही पैदा कर लेना चाहिए।’’43
             लंदन में अपनी पढ़ाई करने के दौरान गाँधी ने ब्रिटेन के औद्योगीकरण को बहुत नजदीक से देखा था और साथ ही उससे पैदा हुई विषमता को भी देखा था। वहाँ के मजदूर नारकीय स्थितियों में जीने के लिए मजबूर थे। गाँधी को लगता था कि औद्योगीकरण के सिर्फ सकारात्मक प्रभावों को ग्रहण करना और नकारात्मक प्रभावों से बच निकलना संभव नहीं होगा। ‘हिंद स्वराज’ मंे गंाधी उपयुक्त तकनीकी और सुदृढ़ विकास जैसी अवधारणाओं पर विचार कर रहे थे। गाँधी भली-भाँति समझ रहे थे कि भारत में उपलब्ध संसाधनों तथा उनसे पाली जाने वाली बड़ी आबादी के बीच के संबंधों को देखते हुए यूरोपीय अनुभव का हू-ब-हू क्रियान्वयन जबर्दस्त रूप से विनाशकारी होगा। इसीलिए सन् 1934 तथा उसके बाद से गाँधीजी ने बार-बार कहा कि वे आधुनिक बड़े पैमाने के उद्योगों के विरूद्ध नहीं हैं जब तक कि ये वृद्धिकारी तथा मानव श्रम के बोझ को कम करने वाली हैं, न कि उसे समाप्त करने वाली, तथा जब तक इस पर निजी पूँजीपतियों का नहीं अपितु राज्य का स्वामित्व हो। 1934 में एक समीक्षा में उन्होंने कहा कि ‘‘मैं सबके हित के लिए किए गए किसी भी वैज्ञानिक आविष्कार का स्वागत करूंगा।’’ इसी तरह 1938 के अंत में तीस अर्थशास्त्रियों ने गाँधी जी के साथ उनके आर्थिक-दर्शन पर बातचीत की। उन्होंने प्रश्न किया कि ‘‘क्या आप बड़े पैमाने पर उत्पादन के विरूद्ध हैं?’’ गाँधी जी का जवाब था, ‘‘मैंने ऐसा कभी नहीं कहा। यह मेरे बारे में फैली अनेक भ्रामक धारणाओं में से एक है। मेरा आधा समय इसी प्रकार के प्रश्नों के उत्तर देने मंे चला जाता है।’’ अर्थशास्त्रियों को झिड़कते हुए उन्होने कहा ‘‘वैज्ञानिकों से मैं बेहतर ज्ञान की अपेक्षा करता हूँ। मैं उस तरह की वस्तुओं का बड़े पैमाने पर उत्पादन के विरूद्ध हूँ जिसे गाँव के लोग बिना किसी कठिनाई के उत्पन्न कर सकते हैं।’’ यह भी ध्यातव्य है कि राष्ट्रीय कांग्रेस के 1931 के कराची अधिवेशन में मूल अधिकारों और आर्थिक परिवर्तन संबंधी प्रसिद्ध प्रस्ताव गाँधी जी के द्वारा ही रखा गया था।44
          सन् 1924 में भी एक बातचीत में गाँधी ने स्पष्ट कहा था कि ‘‘मेरा विरोध यंत्रोें के लिए नहीं है, बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है, उसके लिए है। उनसे (यंत्रों से) मेहनत ज़रूर बचती है, लेकिन लाखों लोग बेकार होकर भूखों मरते हुए रास्तों पर भटकते हैं। समय और श्रम की बचत तो मैं भी चाहता हूँ, परंतु वह किसी खास वर्ग की नहीं, बल्कि सारी मानव जाति की होनी चाहिए। ...आज तो करोड़ों की गरदन पर कुछ लोगांे के सवार हो जाने में यंत्र मददगार हो रहे हैं। यंत्रों के उपयोग के पीछे जो प्रेरक कारण है वह श्रम की बचत नहीं है, बल्कि धन का लोभ है। आज की इस चालू अर्थव्यवस्था के खिलाफ मैं अपनी तमाम ताकत लगाकर युद्ध चला रहा हूँ।....मेरा उद्देश्य तमाम यंत्रों का नाश करने का नहीं है, बल्कि उनकी हद बांधने का है।’’45
गाँधी जी हर काम के पीछे मानव की भलाई की प्रेरणा को आवश्यक मानते थे। सिंगर की सिलाई मशीन के आविष्कार का उदाहरण देते हुए गाँधी जी बताते हैं कि वैज्ञानिक खोज की प्रेरणा लालच की जगह प्रेम बने तो वैसी खोज मनुष्य के लिए उपयोगी होगा। ऐसे यंत्र जिस कारखाने में तैयार हांे वह जनता की ओर से राष्ट्र के द्वारा चलाया जाना चाहिए। ऐसे कारखानों को चलाने के पीछे राष्ट्र का उद्देश्य लाभ कमाना नहीं बल्कि जनता की भलाई होनी चाहिए।46
       इस प्रकार से देखते हैं कि गाँधी ने दो कारणों से पश्चिमी सभ्यता को अस्वीकार किया, पहला इसका आधार असमानता पर टिका था और दूसरा, यह व्यक्ति को अमानवीय और गै़र-व्यक्तिवादी दृष्टि से देखता था। गाँधी जी कामकाजी वर्ग और गरीब का आजाद होना ज्यादा जरूरी समझते थे। पश्चिमी प्रौद्योगिकी और इसका अनुसरण करने वाली जीवन-शैली भारतीय परम्परा से अलग थी। साथ-ही साथ, गाँधी की राय में यह भारत की ज़रूरतों को पूरा करने में भी अपर्याप्त थी और व्यक्तिगत रूप से जनता के अर्थपूर्ण और वास्तविक विकास में बाधक थी। यही वजह है कि वे मशीनरी, आने-जाने के आधुनिक साधनों, आधुनिक चिकित्सा और मशीन से बने कपड़ों का इस्तेमाल नहंी करना चाहते थे। वे यही नहीं मान रहे थे कि हरेक अच्छाई के साथ बुराई चली आती है, इसलिए अच्छाई का इस्तेमाल करते हुए बुराई की उपेक्षा करनी चाहिए। मशीन के भी दोनों पक्ष हैं। हालाँकि बाद के वर्षों में गाँधी ने अपने विचारों का विकास किया।
इतिहासकार सुमित सरकार मानते हैं कि गाँधी जी का ‘हिंद स्वराज’ आधुनिकीकरण से आक्रांत और कुंठित लोगांे के पक्ष में खड़ा है। वे लिखते हैं कि ‘‘कारखानों से बर्बाद हुए कारीगर, किसान, जिनके लिए न्यायालय खतरनाक फंदे थे और शहरी अस्पतालों में जाना प्रायः महंगा मृत्युदंड होता था, साथ ही ग्रामीण एवं कस्बाती बुद्धिजीवी जिन्हंे शिक्षा से कोई लाभ नहीं मिला था- इन सबके लिए कुछ समय के लिए ही सही, उद्योग-विरोधी विचार वस्तुतः आकर्षक थे।’’47
        शिक्षा के संदर्भ में बात करें तो गाँधी पाश्चात्य शिक्षा के हिमायती नहीं हैं। वे किसी को शिक्षा देने से पहले यह तय कर लेना चाहते हैं कि उसे इस शिक्षा से क्या मिल सकता है और उसका उपयोग उसके जीवन में हो सकता है या नहीं। महज अक्षरज्ञान को गाँधी बहुत बढ़ा-चढ़ाकर नहीं देखते, हालाँकि उसकी बुराई भी नहीं करते। गाँधी की दृष्टि मंे अंग्रेजी की शिक्षा देना गुलामी में डालने जैसा है।48 वे कहते हैं कि ‘‘यह कितने दःुख की बात है कि हम स्वराज्य की बात भी पराई भाषा में करते हैं? ...आपको समझना चाहिए कि अंग्रेजी शिक्षा लेकर हमने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैरह बढ़े हैं। ...यह क्या कम जुल्म की बात है कि अपने देश में अगर इंसाफ पाना हो, तो मुझे अंग्रेजी भाषा का उपयोग करना चाहिए। बैरिस्टर होने पर मैं अपनी स्वभाषा में बोल ही नहीं सकता!’’49
         हालाँकि गाँधी जी यह भी स्वीकार करते हैं कि ‘‘हम सभ्यता के रोग में ऐसे फंस गये हैं कि अंग्रेजी शिक्षा बिल्कुल लिये बिना अपना काम चला सकें ऐसा समय अब नहीं रहा। जिसने वह शिक्षा पाई है, वह उसका अच्छा उपयोग करे।’’50 गाँधी सभी भारतीय भाषाओं के विकास और प्रसार का प्रबल समर्थन करते हैं। इसी के साथ-साथ वे शिक्षा मंे धर्म की शिक्षा अथवा नीति की शिक्षा भी जोड़ने की बात करते हैं।51
उपर्युक्त विष्लेषण में गाँधी के ‘हिंद-स्वराज’ को केन्द्र में रखकर उनकी स्वराज्य की अवधारणा को समझा जा सकता है। गाँधी आध्यात्मिक-स्वराज्य और राजनीतिक-स्वराज्य में फर्क करके देखते थे, जबकि आमतौर पर इस फर्क को दरकिनार करके दोनांे को एक साथ जोड़कर उनकी आलोचना की जाती रही है। गाँधी क्रांति की अवधारणा को मानवीय मूल्यों से जोड़कर रखने के लिए चरखा, खादी और स्वदेशी का प्रचार करते थे। इसके जरिए आम आदमी को भी स्वतंत्रता आंदोलन मंे भागीदार बनाना संभव हो सका, दूसरे, इससे आम लोगों की समस्याआंे को भी समझने तथा उसे दूर करने का अवसर मिला।
संदर्भ:
1. ‘हिंद स्वराज’ के अनुवाद की भूमिका में गाँधी ने लिखा है कि ‘‘कुछ अंग्रेज मित्रों ने इसे पढ़ लिया है और जब रायें माँगी जा रही थीं कि पुस्तक प्रकाशित करना ठीक है या नहीं, तभी समाचार मिला कि मूल पुस्तक भारत में जब्त कर ली गई है। इस समाचार के कारण तुरंत निर्णय लेना पड़ा कि इसका अनुवाद प्रकाशित करने में एक क्षण भी देर नहीं की जानी चाहिए।.....उपर्युक्त परिस्थितियों में इस पुस्तक के प्रकाशन को टालना मेरे लिए कायरता होती।’’- (संपूर्ण गाँधी वाड.मय, खंड-10, पृष्ठ 203-205)
2. ‘हिंद स्वराज’-गाँधी जी, अनुवादक: अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद-14, संस्करण-2001 के हिंदी अनुवाद में गाँधी जी की भूमिका देखें।
3. संपूर्ण गाँधी वाड.मय, खंड-10, पृष्ठ-204
4. आधुनिक भारत (1885-1947)-सुमित सरकार, राजकमल प्रकाशन (प्रा.) लिमिटेड नई दिल्ली-02, संस्करण: आठवां छात्र सं.-2001 पृष्ठ-200
5. ‘हिंद स्वराज’ में गाँधी जी की भूमिका, पृष्ठ-25
6. गाँधी: एक पुनर्विचार - सहमत, रफी मार्ग, नई दिल्ली-01, संस्करण: प्रथम, 2004 में सुकुमार मुरलीधरन का लेख देखें।
7. ‘हिंद स्वराज’, पृष्ठ-26
8. भारतीय राष्ट्रवाद: कुछ निबंध -बिपन चन्द्र, जवाहर पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, बेर सराय, नई दिल्ली-16, प्रथम संस्करण-1996 में प्रस्तावना देखें।
9. गाँधी: एक पुनर्विचार में बिपन चन्द्र का लेख देखें। पृष्ठ-46
10. हिन्द स्वराज, पृष्ठ-12
11. वही, पृष्ठ-12
12. वही, पृष्ठ-42
13. संपूर्ण गाँधी वाड.मय, भाग-43, पृष्ठ- 117
14. गाँधी विचार यात्रा-राम नारायण उपाध्याय (संकलन-संपादन), कामता सेवा केन्द्र कामतानगर, औरंगाबाद (बिहार), संस्करण: प्रथम, 1995 पृष्ठ-131
15. हिंद स्वराज, पृष्ठ- 64
16. संपूर्ण गाँधी वाड.मय- खण्ड-अट्ठाइस, पृष्ठ-124
17. गाँधी विचार-यात्रा, पृष्ठ-131
18. हिंद स्वराज, पृष्ठ-80
19. वही, पृष्ठ-80
20. वही, पृष्ठ-87
21. संपूर्ण गाँधी वाड.मय-खण्ड बीस, पृष्ठ-527
22. वही, खण्ड-अटठ्ाइस, पृष्ठ-54
23. वही, पृष्ठ-123
24. वही, खण्ड-पैंतीस, पृष्ठ-473
25. गाँधी विचार-यात्रा, पृष्ठ-133-134
26. हिंद स्वराज, पृष्ठ-65
27. वही, पृष्ठ-81
28. भारतीय राष्ट्रवाद: कुछ निबंध, पृष्ठ-70
29. संपूर्ण गाँधी वाड.मय, खण्ड-छियालिस, पृष्ठ-385-386
30. हिंद स्वराज, पृष्ठ-14-15
31. वही, पृष्ठ-20
32. वही, पृष्ठ-24
33. वही, पृष्ठ-48
34. वही, पृष्ठ-27
35. वही, पृष्ठ-69-72
36. वही, पृष्ठ-72-73
37. वही, पृष्ठ-73
38. वही, पृष्ठ-70-71
39. वही, गाँधी जी की भूमिका से
40. वही, पृष्ठ-76
41. वही, पृष्ठ-76-77
42. वही, पृष्ठ-78
43. वही, पृष्ठ-88 (परिशिष्ट-1)
44. भारतीय राष्ट्रवाद: कुछ निबंध, पृष्ठ-69-70
45. हिंद स्वराज में महादेव देसाई लिखित ‘प्रस्तावना’ से
46. वही
47. आधुनिक भारत, पृष्ठ-200
48. हिंद स्वराज, पृष्ठ-69-72
49. वही, पृष्ठ-72-73
50. वही, पृष्ठ-73
51. वही, पृष्ठ-74

(यात्रा-7 से)

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