(कुछ कवि खामोशी से अपना काम करते हैं, जैसे राजकिशोर राजन। यह खामोशी अक्सर गंभीरता में बदल जाती है, जैसे राजकिशोर राजन की कविताएँ। राजकिशोर राजन पचास के आसपास के कवि हैं, अपने समय के कवियों में एक जरूरी खामोश धुन की तरह की तरह मौजूद हैं। राजन कविता की चौपाल में बैठकर वक्त गँवाने वाले कवि नहीं हैं। एक समर्थ कवि अपने लिखने की मेज के आसपास नितांत अकेला होता है। कह सकते हैं कि कवि मेज के बिना भी कविताएँ लिख रहा होता है, मैं कहूँगा कि हाँ, लेकिन वह जहाँ वह खड़े-खड़े कविता लिख रहा होता है, वह खड़े होने की मुद्रा ही मेज हो जाती है। बात तो उस जगह और वक्त की है, जहाँ वह रच रहा होता हैं। राजन वयस्क कवि हैं। कविता में कवि की वयस्कता का प्रमाण उम्र कतई नहीं है। साठ के आसपास के कवि भी अपरिपक्व हो सकते हैं और पचास के पास का कवि बहुत परिपक्व। मैं इधर तरह-तरह के अनुभवों से गुजर रहा हूँ।
अनुभव करता हूँ कि राजन अपनी कविताओं के प्रति बेहद संजीदा हैं। एक-एक शब्द उनके लिए कीमती है। उन्हें पता है कि कब कहाँ क्या करना है। किस शब्द को किस जगह पर रखना हैं। कईबार यह सब अनुभव और दूयसरे कवियों के अनुभव को जानने से भी आ जाता है। राजन के व्यक्तित्व की शालीनता और सहजता और विनम्रता उनकी कविताओं में चरितार्थ होते देखता हूँ। उनकी एक छोटी कविता ‘‘राग’’ देखें,-
‘‘अकस्मात् ही हुआ होगा
कभी दबे पैर आया होगा
ईर्ष्या-द्वेष
घृणा-बैर आदि के साथ
जीवन में राग
फिर न पूछिए !
क्या हुआ ...................
कुछ भी नहीं बचा
बेदाग ।’’
राजन की पारदर्शी कविताओं में भी जीवन के गूढ़ प्रश्न बुद्ध की रोशनी में सुलझे हुए मिलते हैं। राजन को बुद्ध प्रिय हैं। बुद्ध के विचार प्रिय हैं-
‘‘पृथ्वी से ऊपर नहीं
पृथ्वी पर ही
है संभावना
मुक्ति, आनंद की
प्रेय और श्रेय की ’’
राजन जीवन के असंख्य दुख और बाधाओं सें मुक्ति और जीवन के सच्चे आनंद की खोज इसी पृथ्वी पर करते हैं। सबके दुख में झाँकते हैं, सबके दुख को छूते हैं। अपने गाँच-जवार के दुख के पास पहुँचते हैं। जीवन की हजार मुश्किलें हैं, हजार दुख। अकेलापन का दंश भी भी एक दुख है। राजन को भी बुद्ध की तरह एक वृद्धा का दुख व्यथित करता है-
‘‘उस औरत को कोई समझाये नहीं
इस क्रूर, निर्मोही समय के बारे में
कि हर घर, शहर और देश
अब बूढ़ों के लिए है परदेश’’
राजन को दुख की पहचान है तो उससे मुक्ति का मार्ग भी पता है-
‘‘उस वृठ्ठा से कोई मिले तो इतना जान लेगा
कि जीवन विविधताओं से भरा अनथक युठ्ठ है
और जो जीवन भर लड़ेगा, वही जीवन को जियेगा’’
राजन अपने समय के यथार्थ से उपजे दुख को, प्रकृति की मार से उपजे दुख को और शासन की उपेक्षा से उपजे दुख को एक में मिलाकर अपने समय को देखते हैं, अपने परिवेश की मुश्किलों को देखते हैं-
‘‘उस इलाके में सड़क का पता नहीं
कब बनी और कहाँ गुम हो गयी
जैसे कि सड़क को भी मालुम
न ये, कहीं जाने वाले
न यहाँ, कोई आने वाला ।’’
ऊपर-ऊपर से अभिधा में कही जाने वाली बात दरअसल सिर्फ अभिधा में नहीं हैं। पंक्तियों के बीच में और उनके पार्श्व में अर्थ की जो धुन बजती है, वह यह कि सड़क का गुम हो जाना साधारण बात नहीं है, आदमी का गुम हो जाना तो हम जानते हैं, लेकिन सड़क का गुम हो जाना, व्यवस्था का गुम हो जाना है, शासन का गुम हो जाना हैं, गाँव और जवार के लोगों के जीवन में आने वाली खुशहाली की डोली का गुम हो जाना है, अच्छे दिन के संग सड़क का भाग जाना है। ‘‘न ये कहीं जाने वाले हैं और न यहाँ कोई आने वाला है’’ के पीछे की गूँज यह कि ये अपने किसी प्रिय से मिलने या अपनी जरूरतों की फरियाद लेकर किसी हाकिम के पास जाने वाले हैं या इनके पास क्या है कि जिसे लेकर बाजार जाएँ कुछ खरीदने के लिए। न कोई उधर से दनकी सुध लेने के लिए आने वाला है। कोई हाकिम, कोई मंत्री कोई जनप्रतिनिधि, कोई ऐसा जो इनकी बात ऊपर पहुँचाये और इनके जीवन का अँधेरा दूर करे, उजाला लाए, दुख से मुक्ति दिलाए। यह सब कहने की जरूरत नहीं थी, इसलिए कहा कि राजन की बहुत साधारण पंक्ति को अदेख करना कविता की संभावना को अदेख करना है।
राजन को अपने समय की कविता का बुद्ध समझ लेना जल्दबाजी होगी। राजन को कवि समझें जरूरी यह है। राजन जीवन और समाज के दर्द के कवि ही नहीं है, प्र्रेम के भी कवि हैं। प्रेंम और करुणा कविता के दो पाट हैं, जिनके बीच अक्सर अच्छी कविता की आवाजाही होती रहती है। हाँ, बड़ी कविता में जीवन के गहरे संदर्भों के साथ प्रेम और करुणा के साथ ओज तथा अविस्मरणीय चरित्र का तत्व भी जुड़ जाता है। मैं बड़ी कविता की कोई परिभाषा नहीं दे रहा हूँ, सिर्फ अपना अनुभव साझा कर रहा हूँं। - गणेश पाण्डेय)
कविताएं/
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कला और बुद्ध
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सौन्दर्य तो पात-पात में
क्या देखना पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण
ऊपर-नीचे
वह नित परिवर्तित सौन्दर्य
है कण-कण में विद्यमान
वही सत्य का आधार
जिसका, न आर - न पार
जो कर लेता
अपने हृदय में
उस अप्रतिम सौन्दर्य का संधान
कला करती उसी का अभिषेक
करती उसी का सम्मान
जब तक, इसका नहीं ज्ञान
तब तक, सकल मान-अभिमान ।
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दंगश्री
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पृथ्वी से ऊपर नहीं
पृथ्वी पर ही
है संभावना
मुक्ति, आनंद की
प्रेय और श्रेय की
दंगश्री पर्वत की ओर
उँगली उठा
बुद्ध ने कहा था
आकाश को
और सदा से
आकाश की ओर टकटकी लगाए
मनुष्य को कहा
लौटने को पृथ्वी पर
दंगश्री, दंग है
अब तक ।
नोट- दंगश्री एक पर्वत का नाम है ।
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कविता का स्वाद
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आम में नहीं हो
आम का स्वाद
अमरूद में नहीं हो
अमरूद का स्वाद
और न इमली में हो
इमली का स्वाद
ठीक उसी तरह
कविता में हो
सबकुछ इफरात
मगर नहीं हो
कविता का स्वाद
तो सब छूँछा !
मजा तो देखिये !
पोपले मुँह वालों के ऊपर है
कि बतायें हमें
कविता का स्वाद !
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बाढ़ में घिरे लोग
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उस इलाके में बाढ़ को लोग यही कहते हैं
कि बढ़ आया है पानी गंगा और गंडक का
बाढ़ से इनका पुराना हेलमेल
जैसे गरीबी हूक, अमीरी का अहंकार से
अगर इन्हें मैं दिखाऊँ कि
यहाँ की अंतहीन त्रासदी पर
लिखी है मैंने कविता
तो मेरी समझ पर वे ठठा कर हँसेंगे
और वह लड़की तो हँसते लोटपोट हो जायेगी
जो पढ़ती है कक्षा आठ में
जिसका सरकारी स्कूल
महीनों डूबा रहता, बाढ़ के पानी में तैरते
उसने पढ़ाई और स्कूल के बारे में सोचना
और अफसोस करना छोड़ दिया
और इन दिनों सीख रही है सिलाई-कढ़ाई
अपनी सखी-सलेहर की तरह वह भी
पास कर लेगी जैसे-तैसे
विवाह के पूर्व मैट्रिक की परीक्षा
वह लड़की मेरी कविता सुन
कहेगी जरूर
कि यह भी भला लिखने की चीज है
हो न हो, आप रहते हैं परदेश में
जिसे मालूम नहीं लोग कैसे रहते हैं देश में
उस इलाके में सड़क का पता नहीं
कब बनी और कहाँ गुम हो गयी
जैसे कि सड़क को भी मालुम
न ये, कहीं जाने वाले
न यहाँ, कोई आने वाला ।
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एक मरणासन्न वृद्धा के नाम
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उस औरत से पूछे मत कोई हालचाल
नहीं तो फिर कहीं फटेगा बादल
नदियों में आयेगी बाढ़
रोते-रोते उसका, होगा बुरा हाल
रोते-रोते सोना और सोते-सोते रोना
उसके लिए जिन्दगी को जीने का
दूसरा नाम है
और जब तक रहेगा पानी उसकी आँखों में
वह मरेगी नहीं इतना तय है
जो उससे मिलने जाता
चला जाता कथा-कहानियों के देश में
जहाँ वह बचपन में चराती थी बकरियाँ
और अकसर बैठ जाती महुआ के नीचे
लाल रिबन बाँधे, आँखों में काजल लगाये
खेलने लग जाती, कित्......कित्......कित्......कित्
छउरा में डेग रख, एक दिन उसे भी जाना पड़ा था
सास-ससुर, देवरानी-जेठानी से भरे-पूरे परिवार में
फिर कभी लाल साड़ी में बिहँसते
कभी रोत-सिसकते
कैसे कट गयी उम्र, पति को मनाते
बेटे-बेटियों को ढेबुआ (पैसा) का मर्म समझाते
कभी रोटी के साथ नून-तेल
भात के साथ आम के अचार का मसाला सान खाते
धीरे-धीरे साथ छोड़ते गये
पति से लेकर लरिकाई की सखि लालमुनी भी
बेटी रहती दिल्ली में यमुनापार
और बेटे आबाद हो गये अपनी पत्नियों संग
अलग-अलग शहरों में
पर उस वृठ्ठा का मानना है कि नहीं हो दुख तो
पहाड़ जैसी जिन्दगी कैसे लगेगी पार
उसने नहीं की कभी ईश्वर से शिकायत
नहीं की कभी पास-पड़ोस के लोगों से नालिश
हर दुपहरिया दुहकर बकरी का दूध
वे कभी पूछने भी नहीं आते
कि माँ, एक लोटा पी लो पानी
उस औरत को कोई समझाये नहीं
इस क्रूर, निर्मोही समय के बारे में
कि हर घर, शहर और देश
अब बूढ़ों के लिए है परदेश
नहीं तो भर-भर आँचर गाली देगी
और तुनककर कहेगी कि करने चले हो छाव
पसारते हो देह पर झूठ की चादर
उसको भरोसा है कि धरती पर अभी भी
है अच्छाई का राज
और सभी की होती है, उसकी तरह
गरीबी, लाचारी और अभाव से विवाह
जब वह पीती है चापाकल पर पानी
गीली हो जाती देह
ठठा कर हँसते बच्चे, उससे चुहलबाजी करते
पर वह कभी बुरा नहीं मानती, न देती गाली
उनसे बोलते-बतियाते आगे बढ़ जाती
उससे कोई मिले तो मेरे बारे में मत पूछे
चूँकि मेरे गाँव के सीवान पर है उसका घर
नहीं तो वह कहेगी
कि लिखते-लिखते फवित-फवित
मर, भस गया राधाकिसुन का बेटवा
रहता है छपरा-पटना, ऐन्ने-ओन्ने, केन्ने-केन्ने
मुँह दिखाने भर को आता है गाँव
उस वृद्धा से कोई मिले तो इतना जान लेगा
कि जीवन विविधताओं से भरा अनथक युद्ध है
और जो जीवन भर लड़ेगा, वही जीवन को जियेगा
और यह भी कि जो अपने समय से भागेगा
उसके लिए कभी समय नहीं बदलेगा ।
वक्त के शिलालेखों पर लिखी बेहतरीन कविताएँ।
जवाब देंहटाएंबड़ी अच्छी और सार्थक टिप्पणी है सर, मित्र की कविताएँ भी उतनी ही शानदार।
जवाब देंहटाएंसुंदर और प्रभावी कविताओं के लिए कवि को हार्दिक बधाई । सार्थक टिप्पणी के लिए सर को प्रणाम ।
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रभावी कविताएं और सार्थक टिप्पणी।
जवाब देंहटाएंयोगेंद्र कृष्णा
बहुत सुंदर और सार्थक कविताएं
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी और प्रभावशाली कविताएँ । सरल भाषा और छोटे वाक्यों में सारगर्भित भाव सम्प्रेषित करती। राजन जी को शुभकामनाएँ ।
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